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ग्लेशियर जल का भूमिगत जल रिचार्ज में योगदान

ग्लेशियर जल का भूमिगत जल रिचार्ज में योगदान

ग्लेशियर जल का भूमिगत जल रिचार्ज में योगदान

ग्लेशियर जल का भूमिगत जल रिचार्ज में योगदान

अजय सहाय         

ग्लेशियर जल का भूमिगत जल रिचार्ज में योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, विशेषकर भारत जैसे हिमालयी क्षेत्रों से घिरे देश में जहाँ 60 करोड़ से अधिक जनसंख्या नदियों और भूमिगत जल पर निर्भर है, और इन नदियों का मुख्य स्रोत ग्लेशियर पिघलाव है, जो सतही बहाव के साथ-साथ अदृश्य रूप से भूजल पुनर्भरण (groundwater recharge) में भी योगदान करता है; वैज्ञानिक रूप से जब ग्लेशियर पिघलते हैं तो उनके जल का एक भाग सतही प्रवाह (surface runoff) के रूप में नदी प्रणालियों में पहुँचता है, जबकि एक बड़ा भाग छिद्रदार चट्टानों, अवसादी मृदा (alluvial soil) और दरारों (fractures) से होते हुए भूमिगत जलभंडार (aquifer) में रिसता है।

            विशेष रूप से हिमालय और उपहिमालयी क्षेत्रों में जहाँ जल-संग्रहण की क्षमता अधिक होती है; Central Ground Water Board (CGWB) की रिपोर्ट (2023) के अनुसार भारत में भूमिगत जल का 35% रिचार्ज ग्लेशियर स्रोत नदियों के माध्यम से होता है, विशेषकर गंगा, यमुना, सतलुज, चिनाब, झेलम, ब्रह्मपुत्र और अलकनंदा जैसी नदियाँ जिनका उद्गम स्थायी हिमनदों से होता है; उदाहरणस्वरूप गंगोत्री ग्लेशियर से प्रतिवर्ष औसतन 250–300 करोड़ क्यूबिक मीटर (2.5–3 BCM) बर्फ पिघलकर गंगा नदी में प्रवाहित होता है, जिससे नदी के प्रवाह के साथ-साथ जल रिसाव द्वारा तराई और मैदान क्षेत्रों के एक्विफर में पुनर्भरण होता है।

             National Institute of Hydrology (NIH) द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर के पर्वतीय जिलों में कुल भूजल पुनर्भरण का 40–60% हिस्सा हिमनद जल पर निर्भर है, जो उच्च ढाल वाली घाटियों में सीधे बेसिन रिचार्ज करता है; ISRO और IIT Roorkee द्वारा 2022 में किए गए उपग्रह-आधारित अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ कि गढ़वाल हिमालय में सतलुज और भागीरथी बेसिन के जलग्रहण क्षेत्रों में ग्लेशियरों से रिसने वाला पानी 1.5–2.3 मीटर/वर्ष की दर से भूजल को रिचार्ज कर रहा है, जबकि निचले मैदानी क्षेत्रों में यह दर 0.3–0.5 मीटर/वर्ष है।

              ग्लेशियर से निकलने वाले पानी में बर्फ का पिघलाव धीरे-धीरे होता है जिससे लगातार महीनों तक धीमी गति से जल उपलब्ध होता है, और यह प्रवाह विशेष रूप से गर्मियों में जलवायु के अनुकूल भूजल पुनर्भरण के लिए उपयुक्त बनता है, जबकि मानसून जल अधिकतर सतही बहाव में चला जाता है; वैज्ञानिकों ने यह भी पाया है कि ग्लेशियर जल में घुले खनिज (minerals) और कम तापमान के कारण aquifer recharge की गुणवत्ता बेहतर होती है क्योंकि यह जल अधिक शुद्ध और दूषित तत्वों से मुक्त होता है।

               इसके अतिरिक्त, हिमनद जल के रिसाव के कारण झरनों, नालों, और छोटे कूपों (springs) की आवृत्ति भी बनी रहती है जो पर्वतीय भूजल के सतही लक्षण हैं; एक वैज्ञानिक लेख (Journal of Hydrology, 2021) में उल्लेख है कि हिमालय क्षेत्र के लगभग 1.5 लाख प्राकृतिक झरनों में से 65% ग्लेशियर पिघलाव आधारित हैं और ये प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से aquifer को recharge करते हैं, साथ ही ग्लेशियर के पिघलाव से बनने वाली झीलें (proglacial lakes) और उनकी seepage भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है—उदाहरणस्वरूप चंद्रताल झील (हिमाचल) और रुद्रताल (उत्तराखंड) की मिट्टी और बेसिन संरचना जल को रिसा कर aquifer तक पहुँचाने में सहायक है।

               International Centre for Integrated Mountain Development (ICIMOD) की रिपोर्ट में बताया गया है कि हिंदू-कुश हिमालयी क्षेत्र में वर्ष 2000–2020 के बीच लगभग 16% भूजल recharge ग्लेशियर melt से हुआ, और यदि यह दर कम होती है तो नीचे के मैदानी क्षेत्रों में जल संकट और अधिक गहराएगा; भारत के बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के एक्विफर में भूजल का एक बड़ा हिस्सा उत्तर की ओर से आने वाले ग्लेशियर जल की वजह से बरकरार रहता है, जो गंगा और उसकी सहायक नदियों के माध्यम से मैदानों में पहुँचता है और प्रति वर्ष औसतन 30–40 BCM जल recharge में योगदान देता है।

                पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, ग्लेशियर जल से गंगा बेसिन में हर वर्ष लगभग 12–15 BCM भूजल recharge होता है, विशेषकर तराई और मध्य गंगा मैदान क्षेत्रों में; परंतु IPCC की रिपोर्ट (2023) चेतावनी देती है कि यदि वैश्विक तापमान वृद्धि इसी तरह चलती रही और 2100 तक 3°C तक पहुँच गई, तो ग्लेशियरों का तीव्र पिघलाव पहले अधिक जल देगा लेकिन बाद में स्थायी जल स्रोत समाप्त हो जाएगा जिससे aquifer recharge प्रणाली ढह सकती है।

                यह स्थिति भूजल संकट को और भयावह बना देगी क्योंकि वर्तमान में भारत के 70% ग्रामीण और 50% शहरी जलापूर्ति भूमिगत जल पर निर्भर है; वैज्ञानिकों ने यह भी चेताया है कि उत्तराखंड और हिमाचल के कई पर्वतीय गाँवों में झरनों के सूखने का मुख्य कारण ग्लेशियर shrinkage और जल रिसाव की कमी है, जिससे पीने का जल भी संकट में आ गया है।

                समाधान के रूप में शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि ग्लेशियर जल रिसाव क्षेत्रों की पहचान कर वहाँ recharge trench, recharge well, और percolation tank जैसे संरचनाओं को बनाना चाहिए ताकि meltwater को aquifer तक पहुँचने में सहायक बनाया जा सके; साथ ही जलवायु अनुकूलन उपायों जैसे afforestation, slope stabilization, और glacial monitoring को बढ़ावा देना चाहिए; ISRO के BHUVAN प्लेटफ़ॉर्म और GRACE सैटेलाइट मिशन द्वारा aquifer स्तरों की निगरानी को मजबूत करके हमें यह समझने में सहायता मिल रही है कि कहाँ-कहाँ ग्लेशियर melt recharge हो रहा है और कहाँ नहीं।

                 मनरेगा जैसी योजनाओं से पर्वतीय जिलों में recharge संरचनाएँ बनाकर ग्लेशियर जल को संचयित करना, और community based monitoring द्वारा भूजल स्तर पर निगरानी रखना भविष्य के जल संकट से बचाव में सहायक होगा; अतः स्पष्ट है कि ग्लेशियर जल न केवल नदियों का जीवन है बल्कि अदृश्य रूप से हमारे भूमिगत जलभंडार को भी जीवन देता है, और इसका वैज्ञानिक, पार…और इसी वैज्ञानिक संदर्भ में यह कहना पूरी तरह उचित है कि ग्लेशियर जल का भूमिगत जल रिचार्ज में योगदान भारत के जल भविष्य के लिए एक अदृश्य लेकिन अत्यंत निर्णायक स्तंभ है, क्योंकि जब तक हिमालय के हजारों ग्लेशियर स्थिर और संतुलित रहेंगे।

                तब तक भारत के करोड़ों लोगों के लिए पेयजल, सिंचाई, उद्योग, और पारिस्थितिक आवश्यकताओं के लिए भूजल उपलब्ध होता रहेगा, लेकिन जैसे-जैसे यह ग्लेशियर वैश्विक तापमान वृद्धि, ग्रीनहाउस गैसों और कालिख जैसे तत्वों के कारण सिकुड़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे भूजल रिचार्ज की प्राकृतिक प्रणाली पर भी खतरा बढ़ता जा रहा है; एक वैज्ञानिक गणना के अनुसार यदि गंगा-यमुना बेसिन में ग्लेशियर रिचार्ज बंद हो जाए तो वर्ष 2047 तक इन क्षेत्रों में भूजल स्तर औसतन 5–15 मीटर तक गिर सकता है, जिससे हर साल औसतन 1 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि सिंचाई संकट में फँस जाएगी, और लगभग 20 करोड़ लोगों की पेयजल निर्भरता प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होगी।

                 भूजल विज्ञानियों का यह भी मानना है कि ग्लेशियर meltwater recharge की धीमी, संतुलित और निरंतर प्रकृति aquifer को recharge करने के लिए आदर्श है, क्योंकि इसमें flash flood जैसी तीव्र गति नहीं होती जो जल को बहाकर ले जाए, बल्कि महीनों तक मीठा और ठंडा पानी मिट्टी की दरारों और porous strata से नीचे रिसता है जिससे aquifer की recharge क्षमता मजबूत होती है; वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यदि हम 2047 तक जल आत्मनिर्भरता का सपना साकार करना चाहते हैं, तो हमें ग्लेशियरों को केवल नदी स्रोत के रूप में नहीं बल्कि एक बहुस्तरीय जल आपूर्ति श्रृंखला के प्राणवायु के रूप में देखना होगा—जो सतही प्रवाह के साथ-साथ भूमिगत जलभंडार को भी जीवन देता है।

                 इस हेतु “National Glacier Recharge Strategy” जैसे बहुपक्षीय वैज्ञानिक कार्यक्रम की आवश्यकता है जिसमें पर्यावरण मंत्रालय, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय, NITI आयोग, राज्य भूजल बोर्ड, विश्वविद्यालयों और स्थानीय समुदायों की भागीदारी हो, जिससे meltwater capture और recharge structure alignment की वैज्ञानिक योजना बनाई जा सके; साथ ही स्कूल स्तर पर भी युवाओं को यह बताया जाए कि ग्लेशियरों के संरक्षण का अर्थ केवल हिमालय की रक्षा नहीं, बल्कि उनके गाँव के कुएँ, चापाकल और तालाब का भविष्य सुरक्षित करना है, क्योंकि यदि आज ग्लेशियर सिकुड़े तो कल aquifer सूख जाएंगे।

                  इस संदर्भ में जल शक्ति मंत्रालय को पर्वतीय जिलों के लिए विशेष भूजल रिचार्ज योजना शुरू करनी चाहिए जिसमें सभी recharge zones की GIS mapping हो और ग्लेशियर melt का direction आधारित capture planning की जाए; भारत जैसे देश में जहाँ 4000 BCM वर्षा जल गिरता है और उसका 70% बहकर चला जाता है, वहाँ ग्लेशियर जल का भूमिगत उपयोग जल नीति का केन्द्रीय बिंदु होना चाहिए; अतः उपरोक्त सभी वैज्ञानिक और भूगर्भीय तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह निष्कर्ष निकलता है कि ग्लेशियर जल के बिना भूजल पुनर्भरण की धारणा अधूरी है, और जलवायु परिवर्तन के इस कालखंड में जब नदियाँ भी मौसमी और अस्थिर हो रही हैं।  

                  तब भूमिगत जल सुरक्षा के लिए ग्लेशियरों का संरक्षण ही वह प्राथमिक शर्त है जिस पर भारत का जल भविष्य टिका है, और जिसे यदि आज वैज्ञानिक नीति, समाजिक चेतना, भूजल प्रबंधन और जलवायु सहनशीलता के दृष्टिकोण से संगठित रूप से नहीं अपनाया गया तो कल यह देश भूमिगत जल के लिए त्राहि-त्राहि करेगा—इसलिए जल आत्मनिर्भर भारत 2047 की बुनियाद हिमालय के ग्लेशियरों और उनके रिचार्ज योगदान की स्थिरता पर टिकी है।

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