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हिमालय पर तापमान बढ़ने के खतरे

हिमालय पर तापमान बढ़ने के खतरे

हिमालय पर तापमान बढ़ने के खतरे

प्रमोद भार्गव

संपूर्ण हिमालय के पहाड़ एवं भूभाग 21वीं ‘ शताब्दी के सबसे बड़े बदलाव के खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं । इसी स्थाई हिम-रेखा 100 मीटर पीछे खिसक चुकी है। यहां जाड़ों में तापमान 1 डिगी बढ़ने से हिमखंड तीन किमी तक सिकुड़ चुके हैं । नतीजतन बर्फबारी का ऋतुचक्र डेढ़ महीने आगे खिसक गया है। हिमालय क्षेत्र में जो बर्फबारी दिसंबर-जनवरी माह में होती थी, वह फरवरी मध्य से ‘ शुरू होकर मार्च 2024 तक जा रही रही है । उत्तराखंड के वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने 1901 से लेकर 2018 तक के जलवायु अनुसंधान इकाई के आंकड़ों का विश्लेषण करके निष्कर्ष निकाला है कि तापमान ऐसे ही बढ़ता रहा तो 8 से 10 साल के भीतर हिमालय पर बर्फबारी का मौसम पूरी तरह परिवर्तित हो जाएगा या बर्फबारी की मात्रा घट जाएगी । दिसंबर-जनवरी की बर्फीली बारिश इन महीनों में तापमान कम होने के कारण सूख कर जम जाती थी, लेकिन इन माहों में आसमान से जो बर्फ गिरी, वह तापमान ज्यादा होने के कारण पिघलकर बह गई । अतएव आशंका की जा रही है कि इस बार हिमालय की चोटियां और सतही भूमि जल्द ही बर्फ से खाली हो जाएगी । उत्तराखंड में समुद्रतल से 11,385 फीट ऊंचाई पर बना तुंगनाथ मंदिर के क्षेत्र में 14 साल पहले जनवरी में जितनी बर्फ मौजूद होती थी, उतनी इस बार मार्च में है । यह स्थिति इतनी ऊंचाई पर बर्फीली बारिश के बदलते स्वरूप को दर्शाती है । संस्थान का यह ‘ शोध-अध्ययन हाल ही में प्रकाशित हुआ है ।

        भू-गर्भ वैज्ञानिक डॉ मनीष मेहता के अनुसार, ‘ पहले दिसंबर-जनवरी में हर साल सूखी बर्फबारी होती थी, जो तापमान कम रहने के कारण जमी रहती थी । इससे हिमखंड सुरक्षित व सुगठित रहते थे। पारा चढ़ने पर सूखी बर्फबारी बंद हो गई । बाद में गीली बर्फ गिरी, जो थोड़ी गर्मी होते ही पिघलने लग गई।‘ पहाड़ों पर अमूमन गर्मी मई माह से ‘शुरू होती थी । परंतु बीते एक दशक में सर्दी का तापमान तो बढ़ा है, जबकि गर्मी का स्थिर है । इसलिए हिमालय में गर्मी ज्यादा समय बनी रहती है । ये बदलते हालात हिमालय के जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के लिए खतरे की घंटी हैं । स्थाई बर्फीली रेखा हिमालय पर 4 से 5 हजार मीटर ऊपर होती है । यह स्थाई बर्फ के कारण बनती है । इसके तीन हजार मीटर नीचे तक वनस्पतियां नहीं होती हैं । इस रेखा के पीछे खिसकने से जहां पहले कम तापमान में हिमपात होता था, वहां अब बारिश होने लगी है। परिणामस्वरूप हिमालय के कई किमी क्षेत्र से बर्फ विलुप्त होने लगी है । इस सिलसिले में वाडिया संस्थान के वैज्ञानिक विनीत कुमार का कहना है कि मौसम चक्र बदलने का सबसे ज्यादा असर देश के उत्तर-पूर्वी भाग्य में हुआ है। सुदुर संवेदन उपग्रह के आंकड़े बताते है कि अरुणाचल प्रदेश में 1971 से 2021 के मध्य ज्यादातर हिमखंड 9 मीटर प्रतिवर्ष की औसत गति से 210 मीटर पीछे खिसक गए हैं। जबकि लद्दाख में यह रफ्तार 4 मीटर प्रतिवर्ष रही है। कश्मीर के हिमखंडों के पिघलने की गति भी लगभग यही रही है।

        वाडिया संस्थान के पूर्व वैज्ञानिक डॉ डीपी डोभाल के अनुसार, ‘जहां आज गंगोत्री मंदिर है, वहां कभी हिमखंड हुआ करता था । परंतु जैसे-जैसे तापमान बढ़ा और ऋृतुचक्र बदला वैसे-वैसे हिमखंड सिकुड़ता चला गया। 1817 से लेकर अब तक यह 18 किमी से ज्यादा पीछे खिसक चुका है। करीब 200 साल पहले हिमखंड खिसकने का दस्तावेजीकरण सर्वे आफ इंडिया के भूविभानी जॉन हॉजसन ने किया था । उससे पता चला था कि 1971 के बाद से हिमखंडों के पीछे हटने की रफ्तार 22 मीटर प्रतिवर्ष रही है ।‘ कुछ साल पहले गोमुख के विशाल हिमखण्ड का एक हिस्सा टूटकर भागीरथी, यानी गंगा नदी के उद्गम स्थल पर गिरा था । हिमालय के हिमखण्डों का इस तरह से टूटना प्रकृति का अशुभ संकेत माना गया है । इन टुकड़ों को गोमुख से 18 किलोमीटर दूर गंगोत्री के भागीरथी के तेज प्रवाह में बहते देखा गया था । गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के वनाधिकारी ने इस हिमखण्ड के टुकड़ों के चित्रों से इसके टूटने की पुष्टि की थी । तब भी ग्लेशियर वैज्ञानिक इस घटना की पृष्ठभूमि में कम बर्फबारी होना बता रहे थे । इस कम बर्फबारी की वजह धरती का बढ़ता तापमान बताया जा रहा है । यदि कालांतर में धरती पर गर्मी इसी तरह बढ़ती रही और हिमखंड क्षरण होने के साथ टूटते भी रहे तो इनका असर समुद्र का जलस्तर बढ़ने और नदियों के अस्तित्व पर पड़ना तय है । गरमाती पृथ्वी की वजह से हिमखण्डों के टूटने का सिलसिला आगे भी जारी रहा तो समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, जिससे कई लघु द्वीप और समुद्रतटीय ‘शहर डूबने लग जाएंगे । हालांकि वैज्ञानिक अभी तक यह निश्चित नहीं कर पाए हैं कि इन घटनाओं को प्राकृतिक माना जाए या जलवायु परिवर्तन के कारण टूटना माना जाए ? 

        अब तक हिमखण्डों के पिघलने की जानकारियां तो आती रही हैं, किंतु किसी हिमखण्ड के टूटने की घटना अपवादस्वरूप ही सामने आती है । हालांकि कुछ समय पहले ही आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों की ताजा अध्ययन रिपोर्ट से पता चला था कि ग्लोबल वार्मिंग से बढ़े समुद्र के जलस्तर ने प्रशांत महासागर के पांच द्वीपों को जलमग्न कर दिया है । यह अच्छी बात थी कि इन द्वीपों पर मानव बस्तियां नहीं थीं, इसलिए दुनिया को विस्थापन और ‘शरणार्थी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा । दुनिया के नक्शे से गायब हुए ये द्वीप थे, केल, रेपिता, कालातिना, झोलिम एवं रेहना । पापुआ न्यू गिनी के पूर्व में यह सालोमन द्वीप समूह का हिस्सा थे । पिछले दो दशकों में इस क्षेत्र में समुद्र के जलस्तर में सालाना 10 मिली की दर से बढ़ोत्तरी हो रही है । गोमुख के द्वारा गंगा के अवतरण का जलस्त्रोत बने हिमालय पर जो हिमखण्ड हैं, उनका टूटना भारतीय वैज्ञानिक फिलहाल साधारण घटना मानकर चल रहे हैं। उनका मानना है कि कम बर्फबारी होने और ज्यादा गर्मी पड़ने की वजह से हिमखण्डों में दरारें पड़ गई थीं, इनमें बरसाती पानी भर जाने से हिमखण्ड टूटने लग गए । अभी गोमुख हिमखण्ड का बाईं तरफ का एक हिस्सा टूटा है । उत्तराखण्ड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग की आंच ने भी हिमखण्डों को कमजोर करने का काम किया है । आंच और धुएं से बर्फीली शिलाओं के ऊपर जमी कच्ची बर्फ तेजी से पिघलती चली गई । इस कारण दरारें भर नहीं पाईं । अब वैज्ञानिक यह आशंका भी जता रहे हैं कि धुएं से बना कॉर्बन यदि शिलाओं पर जमा रहा तो भविष्य में नई बर्फ जमना मुश्किल होगी ?

        हिमखण्डों का टूटना तो नई बात है, लेकिन इनका पिघलना नई बात नहीं है। ‘ शताब्दियों से प्राकृतिक रूप में हिमखण्ड पिघलकर नदियों की अविरल जलधारा बनते रहे हैं । लेकिन भूमण्डलीकरण के बाद प्राकृतिक संपदा के दोहन पर आधारित जो औद्योगिक विकास हुआ है, उससे उत्र्सिर्जत कॉर्बन ने इनके पिघलने की तीव्रता को बढ़ा दिया है । एक ‘शताब्दी पूर्व भी हिमखण्ड पिघलते थे, लेकिन बर्फ गिरने के बाद इनका दायरा निरंतर बढ़ता रहता था । इसीलिए गंगा और यमुना जैसी नदियों का प्रवाह बना रहा । किंतु 1950 के दशक से ही इनका दायरा तीन से चार मीटर प्रति वर्ष घटना ‘शुरू हो गया था । 1990 के बाद यह गति और तेज हो गई इसके बाद से गंगोत्री के हिमखण्ड प्रत्येक वर्ष 5 से 20 मीटर की गति से पिघल रहे हैं । कमोबेश यही स्थिति उत्तराखण्ड के पांच अन्य हिमखण्ड सतोपंथ, मिलाम, नीति, नंदादेवी और चोराबाड़ी की है । भारतीय हिमालय में कुल 9,975 हिमखण्ड हैं । इनमें 900 उत्तराखण्ड के क्षेत्र में आते हैं । इन हिमखण्डों से ही ज्यादातर नदियां निकली हैं, जो देश की 40 प्रतिशत आबादी को पेय, सिंचाई व आजीविका के अनेक संसाधन उपलब्ध कराती हैं । किंतु हिमखण्डों के पिघलने और टूटने का यही सिलसिला बना रहा तो देश के पास ऐसा कोई उपाय नहीं है कि वह इन नदियों से जीवन-यापन कर रही 50 करोड़ आबादी को रोजगार व आजीविका के वैकल्पिक संसाधन दे सके ?

        बढ़ते तापमान को रोकना आसान काम नहीं है, बावजूद हम अपने हिमखंडों को टूटने और पिघलने से बचाने के उपाय औद्योगिक गतिविधियों को विराम देकर एक हद तक रोक सकते हैं । पर्यटन के रूप में मानव समुदायों की जो आवाजाही हिमालयी क्षेत्रों में बढ़ रही है, उस पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है । इसके अलावा वाकई हम अपनी बर्फीली शिलाओं को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो हमारी ज्ञान परंपरा में हिमखंडों के सुरक्षा के जो उपाय उपलब्ध हैं, उन्हें भी महत्व देना होगा। हिमालय के शिखरों पर रहने वाले लोग आजादी के दो दशक बाद तक बरसात के समय छोटी-छोटी क्यारियां बनाकर पानी रोक देते थे। तापमान ‘शून्य से नीचे जाने पर यह पानी जमकर बर्फ बन जाता था। इसके बाद इस पानी के ऊपर नमक डालकर जैविक कचरे से इसे ढक देते थे। इस प्रयोग से  लंबे समय तक यह बर्फ जमी रहती थी और गर्मियों में इसी बर्फ से पेयजल की आपूर्ती की होती थी। इस तकनीक को हम  ‘ वाटर हार्वेस्टिंग ‘ की तरह  ‘ स्नो हार्वेस्टिंग ‘ भी कह सकते हैं । हालांकि पृथ्वी के धु्रवों में समुद्र के खारे पानी को बर्फ में बदलने की क्षमता प्राकृतिक रूप से होती है । बहरहाल हिमखंडों के टूटने या गलने की घटनाएं चिंताजनक हैं ।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार

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