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प्रकृति से प्रेम कर ही बचाई जा सकती है धरती

फोटो - गूगल

प्रकृति से प्रेम कर ही बचाई जा सकती है धरती

रोहित कौशिक

 इस दौर में जबकि हर तरफ देशभक्ति के नारे लगाए जा रहे हैं, हमें गंभीरता से यह विचार करना होगा कि वास्तव में देशभक्ति है क्या ? लोग जब यह कहते हैं कि हम अपनी धरती के लिए शीश कटा देगें तो हमें यह भी विचार करना होगा कि क्या हम सच्चे अर्थों में अपनी धरती के लिए चिन्तित हैं ? क्या हम अपनी धरती को बचाने के लिए वास्तव में कुछ प्रयास करते हैं। दरअसल इस दौर में प्रेम की बात करना ही सच्ची देशभक्ति है। प्रेम की भावना ही पृथ्वी का अस्तित्व बचा सकती है। अगर इस प्रक्रिया का सूक्ष्म अध्ययन किया जाए तो हमें पता चलेगा कि प्यार का माहौल तैयार करने में प्रकृति का महत्वपूर्ण योगदान है। सुहाने मौसम में हमारे अन्दर प्रेम के बीज अंकुरित होने की सम्भावना ज्यादा होती है।
खिलते हुए फूल, सुहानी हवा, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, ऊंचाई से गिरते झरनें, बहता हुआ पानी, नदियां व पहाड़, सूरज, चांद और तारे-ये सब प्रकृति के ही अवयव हैं। प्रकृति के ये अवयव अनेक तौर-तरीकों से हमें प्यार करने के लिए प्रेरित करते हैं। जब कहीं भी प्रेम की बात चलती है तो हम मात्र प्रेमी और प्रेमिका के प्रेम के बारे में सोचते लगते हैं। ऐसा सोचकर हम प्रेम का दायरा सीमित कर देते हैं। प्रेम का अस्तित्व किसी सीमित दायरे में नहीं हो सकता। माता-पिता, भाई-बहन, जीव-जन्तुओं, प्रकृति और समस्त संसार से हमें प्रेम होना चाहिए। घृणा, द्वेष और अघोषित युद्ध के इस माहौल में तो प्रेम का महत्व और भी ज्यादा बढ़ गया है।
संसार का अधिकांश साहित्य प्रकृति, प्रेम और सौन्दर्य को विषय बनाकर ही रचा गया है। प्रकृति हमें एक नया सौन्दर्यबोध प्रदान करती है। धरती को सौन्दर्य प्रदान करने में प्रकृति ने अतुलनीय योगदान दिया है। पेड़-पौधे, फूल-पत्तियां, झरने और पहाड़ धरती के आभूषण ही हैं। कल्पना कीजिए कि इन आभूषणों से रहित धरती हमें कैसी दिखाई देगी। यह हम सबका कर्तव्य है कि हम धरती के इन आभूषणों की चमक फीकी न पड़ने दें। हमें यह समझना होगा कि यह धरती सुन्दर रहेगी तो हमारा जीवन भी सुन्दर रहेगा। सवाल यह है कि हमसे प्यार करने और हमारे अन्दर प्रेम के बीज अंकुरित करने वाली प्रकृति से क्या हम प्यार करते हैं ? शायद नहीं। तभी तो हम प्रकृति के प्रति पत्थरदिल हो गए हैं।
कभी हम प्रकृति के विभिन्न अवयवों का क्षरण कर प्रदूषण बढ़ाते हैं तो कभी जलवायु परिवर्तन के लिए स्वयं जिम्मेदार होते हुए भी प्रकृति को कोसते हैं। यह दुखद ही है कि कभी धरती का बढ़ता हुआ ताप प्रकृति को जख्म दे रहा है तो कभी हमारा व्यवहार प्रकृति के जख्मों को कुरेद रहा है। अगर भारत और पकिस्तान के बीच युद्ध हुआ तो हम प्रकृति के जख्म पुनः हरे कर देंगे। युद्ध से धरती का ताप तो बढ़ेगा ही, प्रदूषण जैसी समस्याएं भी पैदा होंगीं कुल मिलाकर हम उसी प्रकृति से बेवफाई कर रहे हैं जो हमें हमेशा वफा की सीख देती है। विभिन्न अध्ययनों के माध्यम से यह बात सामने आ रही है कि प्रदूषण और धरती का ताप बढ़ने के कारण सम्पूर्ण विश्व को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। इन समस्याओं में सूखा, बाढ़, तापमान बढ़ना, ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्र का स्तर बढ़ना, अनेक जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों का विलुप्त होना आदि शामिल हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि जब हम इन प्राकृतिक समस्याओं से जूझने में व्यस्त होंगे तो प्यार के बारे में सोचने की फुर्सत किसे होगी ?
हालांकि प्राचीन समय में हमने प्रकृति से कई रिश्ते जोड़े। प्रकृति के विभिन्न अवयवों को हमने अपने परिवार की तरह माना। प्रकृति के इन अवयवों को हमने ईश्वर का दर्जा भी दिया। तभी तो हम आज तक धरती को धरती माता, तुलसी को तुलसी माता, गाय को गाय माता सांप को नाग देवता, गंगा को गंगा मैया, चांद को चंदा मामा तथा सूरज को सूर्य देवता कह रहे हैं। क्यों न हम इस दौर में इसी श्रंृखला को आगे बढ़ाते हुए प्रकृति से प्यार का एक नया रिश्ता जोड़ें। जैसे एक स्त्री मां, बहन, पत्नी और बेटी- किसी भी रूप में हमारे सामने हो सकती है, उसी तरह प्रकृति भी विभिन्न रूपों में हमारे सामने हो सकती है। हम प्रकृति से जितना ज्यादा प्यार करेंगे, हमारे रिश्तों के बीच भी यह उतना ही प्यार बढ़ाएगी। अब प्रकृति को हमें अपनी प्रेमिका बनाना ही होगा।
प्रकृति मानसिक तनाव दूर करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। कई बार चिकित्सक भी मानसिक तनाव दूर करने के लिए हमें प्रकृति के बीच रहने की सलाह देते हैं। यह दुःखद ही है कि प्रकृति जो शान्ति हमें प्रदान करना चाहती है, हम अपने व्यवहार से उस शान्ति को भंग कर देना चाहते हैं। मानसिक तनाव का एक बड़ा कारण यह भी है कि इस दौर में हम लगातार प्रकृति से दूर होकर यांत्रिक होते जा रहे हैं। प्रकृति से दूर होना हमें भावनात्मक स्तर पर भी कमजोर कर रहा है। महानगरों में निवास करने वाले लोग तो कई-कई दिनों तक प्रकृति के दर्शन ही नहीं कर पाते हैं।
सुबह फ्लैट से बाहर निकलकर जाम से जूझते हुए कार्यालय पहुंचना तथा शाम को पुनः जाम से जूझते हुए घर पहुंचना उनकी नियति बन गई है। ऐसी स्थिति में शरीर के अन्दर पहुंची प्रदूषित वायु जीवन की लय बिगाड़ देती है। जीवन की इस लय को सुधारने के लिए हम प्रकृति के सान्निध्य में समय बिताना चाहते हैं। यह प्रकृति की उदारता और सहिष्णुता ही है कि वह उसे जख्म देने वाले इन्सान को अपना सान्निध्य देकर उस पर सब कुछ लुटा देना चाहती है। जब हम चारो तरफ से हार मान जाते हैं तो प्रकृति ही हमें आशा की किरण दिखाकर एक नई ऊर्जा देती है। प्रकृति का स्नेहिल और शीतल स्पर्श हमें अवसाद के गहन अन्धकार से बाहर निकालने में सहायता प्रदान करता है। 
दरअसल हमने आज तक प्रकृति का ध्यान इसलिए नहीं रखा क्योंकि हम प्रकृति से प्यार का रिश्ता नहीं जोड़ पाए। आज प्रकृति को बचाने के लिए विभिन्न कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं लेकिन प्रकृति के जख्म बढ़ते ही जा रहे हैं। ये कार्यक्रम केवल कुछ लोगों की जेबें भर रहे हैं। इनके जरिए केवल औपचारिकता निभाई जा रही है। यही कारण है कि आज प्रकृति को बचाने के लिए हल्ला तो मच रहा है लेकिन उससे प्यार का रिश्ता कायम नहीं हो पा रहा है। प्रकृति से यह प्यार का रिश्ता तभी कायम हो पाएगा जब हम उसे अपनी नई प्रेमिका बनाएंगे। वैसे प्यार का प्रकृति से बहुत पुराना रिश्ता है। पहले फिल्मों में प्रेमी और प्रेमिका का मिलन दो फूलों या फूल और भंवरे के मिलन द्वारा दर्शाया जाता था।
फूल और भंवरा प्रकृति के ही अवयव हैं। आज भी प्यार के लिए फूल भेंट करना सबसे अच्छा माना जाता है। इस दौर में भी मुस्कुराते हुए चेहरे की तुलना खिलते हुए फूल से ही की जाती है। इस तरह प्रकृति के विभिन्न अवयवों के साथ हमारा रिश्ता लगातार बना रहता है। प्रकृति स्वस्थ होगी तो हमारा प्यार भी स्वस्थ होगा। प्यार का आधार यह प्रकृति ही है। इस धरती के लिए शीश कटाने की नहीं, धरती के प्रति संवेदनशीलता दिखाने की जरूरत है। अब हमें यह समझना होगा कि अपनी धरती और प्रकृति को बचाना ही सच्ची देशभक्ति है। प्रकृति से प्रेम करके ही हम सच्चे अर्थों में धरती को बचा सकते हैं।  

रोहित कौशिक

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