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सिर्फ नारों से नहीं बचेगी धरती

सिर्फ नारों से नहीं बचेगी धरती

सिर्फ नारों से नहीं बचेगी धरती

सिर्फ नारों से नहीं बचेगी धरती

रोहित कौशिक

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज धरती को बचाने के लिए भाषणबाजी तो बहुत होती है लेकिन धरातल पर काम नहीं हो पाता है। यही कारण है कि इस धरती और पर्यावरण की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। इस दौर में जिस तरह से मौसम का चक्र बिगड़ रहा है, वह हम सबके साथ-साथ समाज के उस वर्ग के लिए भी चिन्ता का विषय है जो ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा करने को एक फैशन मानने लगा था। दरअसल इन दिनों सम्पूर्ण विश्व में धरती बचाने के नारे जोर-शोर से सुने जा सकते हैं लेकिन जब नारे लगाने वाले ही इस अभियान की हवा निकालने में लगे हुए हों, तो धरती पर संकट के बादल मंड़राने तय हैं।

आज विभिन्न देशों में अनेक मंचों से जो धरती बचाओ आन्दोलन चलाए जा रहे हैं, उनमें एक अजीब विरोधाभास दिखाई दे रहा है। धरती सभी बचाने चाहते हैं लेकिन अपने त्याग की कीमत पर नहीं बल्कि दूसरों के त्याग की कीमत पर। स्थायी विकास, ग्रीन इकोनॉमी और पर्यावरण सम्बन्धी विभिन्न चुनौतियों पर चर्चा जरूरी है लेकिन इसका फायदा तभी होगा जब हम व्यापक दृष्टि से सभी देशों के हितों पर ध्यान देंगे।

गौरतलब है कि ग्रीन इकोनॉमी के तहत पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना सभी वर्गों की तरक्की वाली अर्थव्यवस्था का निर्माण करना शामिल है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हरित अर्थव्यवस्था के उद्देश्यों के क्रियान्वयन के लिए विकसित देश, विकासशील देशों की अपेक्षित सहायता नहीं करते हैं। स्पष्ट है कि विकसित देशों की हठधर्मिता की वजह से पर्यावरण के विभिन्न मुद्दों पर कोई स्पष्ट नीति नहीं बन पाती है। दरअसल इस दौर में धरती की स्थिति किसी से छिपी नही है।

 हालात यह हैं कि पर्यावरण पर कई तरह से दबाव पड़ रहा है। इसी वजह से मौसम की अनिश्चितता और तापमान का उतार-चढ़ाव देखा जा रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण एक ही ऋतु में किसी एक जगह पर ही मौसम में उतार-चढ़ाव या परिवर्तन हो सकता है।

     दरअसल इस दौर में पर्यावरण को लेकर कुछ अन्तराल पर विभिन्न अध्ययन प्रकाशित होते रहते हैं। कभी-कभी इन अध्ययनों की विरोधाभासी बातों को पढ़कर लगता है कि पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर हौव्वा खड़ा किया जा रहा है। लेकिन जब पर्यावरण के बिगड़ते स्वरूप पर गौर किया जाता है तो जल्दी ही यह भ्रम टूट जाता है। वास्तव में हम पिछले अनेक दशकों से भ्रम में ही जी रहे हैं। यही कारण है कि पर्यावरण के अनुकूल तकनीक के बारे में सोचने की फुरसत किसी को नहीं है।

पुराने जमाने में पर्यावरण के हर अवयव को भगवान का दर्जा दिया जाता था। इसीलिए हम पर्यावरण के हर अवयव की इज्जत करना जानते थे। नए जमाने में पर्यावरण के अवयव वस्तु के तौर पर देखे जाने लगे और हम इन्हें मात्र भोग की वस्तु मानने लगे। उदारीकरण की आंधी ने तो हमारे समस्त ताने-बाने को ही नष्ट कर दिया। इस प्रक्रिया ने पर्यावरण के अनुकूल समझ विकसित करने में बाधा पहुंचाई। यह समझ विकसित करने के लिए एक बार फिर हमें नए सिरे से सोचना होगा। हमें यह मानना होगा कि जलवायु परिवर्तन की यह समस्या किसी एक शहर ,राज्य या देश के सुधरने से हल होने वाली नहीं है।

पर्यावरण की कोई ऐसी परिधि नहीं होती है कि एक जगह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन या प्रदूषण होने से उसका प्रभाव दूसरी जगह न पड़े। इसीलिए इस समय सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण के प्रति चिन्ता देखी जा रही है। हालांकि इस चिन्ता में खोखले आदर्शवाद से लिपटे हुए नारे भी शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन पर होने वाले सम्मेलनों में हम इस तरह के नारे अक्सर सुनते रहते हैं।

 सवाल यह है कि क्या खोखले आदर्शवाद से जलवायु परिवर्तन का मुद्दा हल हो सकता है ? यह सही है कि ऐसे सम्मेलनों के माध्यम से विभिन्न बिन्दुओं पर सार्थक चर्चा होती है और कई बार कुछ नई बातें भी निकलकर सामने आती हैं। लेकिन यदि विकसित देश एक ही लीक पर चलते हुए केवल अपने स्वार्थों को तरजीह देने लगें तो जलवायु परिवर्तन पर उनकी बड़ी-बड़ी बातें बेमानी लगने लगती हैं। 

     दरअसल जब हम प्रकृति का सम्मान नहीं करते हैं तो वह प्रत्यक्ष रूप से तो हमें हानि पहुंचाती ही है, परोक्ष रूप से भी हमारे सामने कई समस्याएं खड़ी करती है। पिछले दिनों इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं और लड़कियों के प्रति होने वाली हिंसा में इजाफा हुआ है।

रिपोर्ट के अनुसार गरीब देशों में जलवायु परिवर्तन को रोकने में सरकारें विफल हो रही हैं। इसके कारण संसाधन बर्बाद हो रहे हैं। इसका असर बढ़ती हुई लैंगिक असमानता के रूप में दिखाई दे रहा है। जलवायु परिवर्तन से जूझ रहे इलाकों में संसाधनों पर काबिज होने के लिए वर्ग संघर्ष जारी है। इसमें जीत पुरुषों की होती है और महिलाएं दोयम दर्जे का जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाती हैं।

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में कई तौर-तरीकों से समाज पर जलवायु परिवर्तन का असर पड़ रहा है। इस दौर में यह बात किसी से छिपी नहीं है कि यदि ग्रीन हाउस गैसों की वृद्धि इसी तरह जारी रही तो दुनिया को लू, सूखे, बाढ़ व समुद्री तुफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पडे़गा। कुपोषण, पेचिश, दिल की बीमारियां एवं श्वसन सम्बन्धी रोगों मे इजाफा होगा। बाढ़ और मच्छरों के पनपने से हैजा और मलेरिया जैसी बीमारियां बढ़ेंगी। तटीय इलाकों पर अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा और अनेक परिस्थितिक तंत्र, जन्तु एवं वनस्पतियां विलुप्त हो जाएंगी।

30 फीसद एशियाई प्रवाल भित्ती जो कि समुद्रीय जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, अगले तीस सालों में समाप्त हो जाएगीं। वातावरण मंस कार्बनडाइआक्साइड की मात्रा बढ़ने से समुद्र के अम्लीकरण की प्रक्रिया लगातार बढ़ती चली जाएगी जिससे खोल या कवच का निर्माण करने वाले प्रवाल या मूंगा जैसे समुद्रीय जीवों और इन पर निर्भर रहने वाले अन्य जीवों पर नकारात्मक प्रभाव पडे़गा। दरअसल उन्नत भौतिक अवसंरचना (फिजीकल इन्फ्रास्ट्रक्चर) जलवायु परिवर्तन के विभिन्न खतरों जैसे बाढ़ ,खराब मौसम ,तटीय कटाव आदि से कुछ हद तक रक्षा कर सकती है।

ज्यादातर विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन के प्रति सफलतापूर्वक अनुकूलन के लिए आर्थिक एवं प्रोद्यौगिकीय स्रोतों का अभाव है। यह स्थिति इन देशों में उस भौतिक अवसंरचना के निमार्ण की क्षमता में बाधा प्रतीत होती है जो कि बाढ़ ,खराब मौसम का सामना करने तथा खेती-बाड़ी की नई तकनीक अपनाने के लिए जरूरी है। दरअसल हरेक परिस्थितिक तंत्र के लिए अनुकूलन विशिष्ट होता है।

गौरतलब है कि विभिन्न तौर-तरीकों से जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित किया जा सकता है। इन तौर-तरीकों में ऊर्जा प्रयोग की उन्नत क्षमता ,वनों के काटने पर नियंत्रण और जीवाश्म ईंधन का कम से कम इस्तेमाल जैसे कारक प्रमुख हैं। अब हमें यह समझना होगा कि धरती को सिर्फ नारे लगाकर नहीं बचाया जा सकता।

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