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पर्यावरण – पुनर्जागरण

निरंजन देव भारद्वाज – प्रकाशक – राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत

अपने समय की महत्वपूर्ण पुस्तक का प्राक्कथन

डॉ. अशोक कुमार, प्रोफेसर, मानद, ग्रेंड वैली स्टेट यूनिवर्सिटी, मिशिगन संयुक्त राज्य अमरीका (यू.एस.ए.)

तथा

चेयरमैन, ग्लोबल फाउंडेशन फॉर एडवांसमेंट एंड ह्युमैन वैलनेस, दिल्ली, भारत

आज से लगभग पांच हज़ार वर्ष पहले, वैदिक ग्रंथों के रचयिताओं ने प्राणियों, सर्वशक्तिमान ईश्वर  तथा प्रकृति के बीच विद्यमान संबंध के प्रति विशिष्ट, गहन विज़न देखा था । यह विज़न ऐसी व्यवस्था हैं, जिसमें सभी प्रकार के तीन घटकों (मदजपजपमे) एवं उनके तत्वों में सदैव सामंजस्य एवं शांति होना आवश्यक है । नीचे उद्धृत यजुर्वेद के संस्कृत श्लोक में इसे सुंदर ढंग से अभिव्यक्त किया गया है:

ऊॅं द्यौःशांतिरंतरीक्षमशान्तिः

पृथ्वी शांतिरापह  शांतिरोशधायाह  शान्तिः  ।

वनस्पतयः शान्तिर्विश्र्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः,

सर्वशान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि ।।

ऊॅं शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

यजुर्वेद से लिए गए संस्कृत श्लोक (36: 17) का हिंदी में भावानुवाद: विशेष तौर पर, इसका अर्थ हैं: द्युलोक में शांति हो, अंतरिक्ष में शांति हो, पृथ्वी पर शांति हो, औशध में शांति हो, विश्व में शांति हो, सभी देवगणों में शांति हो, ब्रह्म में शांति हो, सर्वत्र शांति हो, चारों ओर शांति हो, ऊॅं शांति, शांति , शांति ।

पर्यावरण की दृष्टि से, इस श्लोक में सभी मनुष्यों को यह परम उत्तरदायित्व सौंपा गया है कि वे पृथ्वी एवं प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रखें । इसका यह अर्थ ध्वनित होता है कि हमें इस ढंग से कार्य करना चाहिए कि हमारे किसी कृत्य से प्रकृति, पृथ्वी या इसके किसी घटक को नुकसान न पहुंचे । दुर्भाग्यवश, औद्योगिकीकरण के आगमन से उत्प्रेरिक भौतिक सुखों और निस्सार वस्तुओं की चाह एवं तलाश  (च्नतेनपज) में मनुष्य निरंतर इस संबंध पर कुठाराघात करता आ रहा है ।

आज इसके परिणाम जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, जल और वायु का अत्यधिक प्रदूशण, जैव विविधता के क्षय, आदि समस्याओं के रूप में परिलक्षित हो रहे हैं । यह अनिवार्य है कि हम अन्य मनुष्यों, प्राणियों, धरती मॉं एवं प्रकृति के प्रति अपने व्यवहार की पूर्णरूपेण समीक्षा करें, पुनः विचार करें तथा व्यवहार को नया आकार दें । इससे प्रकृति एवं पृथ्वी के साथ हमारा शांतिमय एवं सामंजस्यपूर्ण संबंध स्थापित होगा ।

आज पर्यावरण की स्थिति वास्तव में खतरनाक है । तथा दिनोंदिन यह बदतर होती जा रही है । उदाहरण के लिए, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी दुःखद प्राकृतिक घटनाएं बार बार घटित हो रही हैं तथा प्रकृति को तबाह कर रही हैं । यह स्थिति चौंकाने वाली है । संयुक्त राज्य में दिसंबर 2021 में प्रतिदिन पांच ‘‘टार्नेडो’’ आए । यह अद्भुत एवं क्रूर निर्मम घटना है । अन्य विस्मयकारी घटना या उदाहरण ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ है ।

कोआपरेटिव इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च इन एन्वायरनमेंटल साइंसिज (सीआईआरईएस) ने बताया है कि कयामत रूप में ज्ञात थ्वैत ग्लेशियर तेज गति से पिघल रहा है तथा यदि पूर्णतः पिघल गया, तो समुद्र तल दो फीट ऊंचा उठ जाएगा । इस ग्लेशियर का आकार ब्रिटेन के बराबर है । यदि इसके आसपास के ग्लेशियर पिघल जाते हैं, तो समुद्र तल 10 फीट तक उठ जाएगा । यदि पर्यावरण के प्रति उपेक्षा बरतने की प्रवृत्ति चलती रही, तो अगले पांच वर्ष में यह आपदा घटित हो जाएगी ।

अंततः, मानव सृजित विश्व महामारी के निर्मम आविर्भाव रूप में, हमने विपुल संख्या में मानव जीवन के विनाश को देखा हैं तथा महामारी के कारण उत्पन्न कष्ट एवं विनाश की प्रक्रिया निर्बाध रूप में जारी है ।

भय और चिंता भरे ऐसे अशांत समय में निरंजन देव भारद्वाज की पुस्तक, ‘पर्यावरण-पुनर्जागरण‘ में निरंतर बढ़ती पर्यावरणीय समस्याओं के अद्भुत, प्रभावी एवं ठोस समाधान दिए गए हैं । ये समाधान मानव एवं प्रकृति के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों को मजबूत बनाने पर आधारित हैं । उनके विचार में, (और मैं भी इससे सहमत हूं) जिस प्रकार से हम व्यक्तिगत रूप में तथा सामूहिक रूप में लापरवाही बरतते हुए पर्यावरण को क्षति पहुंचा रहे हैं ;

वैसे ही, हम व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में धरती मॉं एवं प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण, विचारशील (जीवनहीजनिस) एवं शांतिमय संबंध स्थापित करके पर्यावरण को गौरवमय ढंग से शुद्ध भी कर सकते हैं । आत्म-संयम बरतते हुए तथा पर्यावरण के प्रति आदर सम्मान का भाव रखते हुए, हम पुनः ‘पारि-चेतना’ जागृत कर पाएंगे । तत्पश्चात, निःसंदेह छोटे-छोटे कार्य करते समय भी प्रकृति पर पड़ने वाले इनके प्रभाव को लेकर उचित आदर सम्मान किया जाएगा ।

इस पुस्तक में दर्शाया गया है कि यदि हम ‘‘पुनः जागृत’’ हों, (इस शब्द का निहितार्थ व्यवहार में बदलाव या कायांतरण है) तो हम पृथ्वी एवं प्रकृति के प्रति लालच, लापरवाही, असंवेदनशीलता तथा अनैतिक व्यवहार छोड़ पाएंगे । इसके अलावा, ऐसे परिवर्तन से ‘लोकहित’ ही नहीं, बल्कि हमारे जीवन की गुणवत्ता में भी काफी सुधार आएगा । इस पुस्तक में दर्शाया गया है कि मिलजुल कर कार्य करने पर मनुष्य जगत का आनंद एवं सुख तथा पर्यावरण उन्नयन टिका है ।

इस पुस्तक में व्यक्तिगत जिम्मेवारी का सशक्त ढंग से संदेश दिया गया हैं, जिसके अनुसार पर्यावरण में सुधार के माध्यम से निजी सुख एवं आनंद में वृद्धि हो सकती है । मैं निरंजन देव भारद्वाज की बौद्धिक क्षमता एवं पर्यावरण के प्रति जुनून से भली भांति परिचित हूं । उन्होंने हमारी फाउंडेषन के प्रतिश्ठित सलाहकार के रूप में षानदार सेवा की है । मैं निश्चित रूप में कह सकता हूं कि इस कृति की रचना करके इस दिशा  में उन्होंने सर्वश्रेष्ठ योगदान दिया है । पर्यावरण के प्रति ऐसे उत्साही लोगों को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए, जो परंपरा से हटकर पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं के नए नए समाधान ढूंढ रहे हैं ।

निरंजन देव भारद्वाज युवा पर्यावरणविद, शोधकर्त्ता एवं अंतर्राष्ट्रीय वक्ता हैं । इन्होंने राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, भोपाल मध्य प्रदेश से रसायन-इंजीनियरिंग में ऑनर्स में स्नातक डिग्री प्राप्त की थी । इसमें इन्हें विशिष्ठ उपाधि (क्पेजपदबजपवद) मिली थी । इन्होंने अपने देश भारत के अलावा फ्रांस, ईरान, थाइलैंड, नेपाल, उज्बेकिस्तान आदि विभिन्न देशो में पारिस्थितिकी विषय पर वार्ताएं प्रस्तुत की हैं ।

पर्यावरण संरक्षण पर ये विशिष्ठ (क्पेजतपबज) टेडेक्स वक्ता हैं ! विश्व भर में इनकी प्रशंसा की गई है । वर्तमान में, निरंजन देव भारद्वाज ग्लोबल फाउंडेशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ एन्वायरनमेंट एंड ह्युमैन वेलनैस (भारत) में प्रतिष्ठित  (क्पेजपदहनपेीमक) सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं । इनकी पुस्तक ‘‘पर्यावरणीय नैतिकता और पर्यावरण के प्रति भारत का परिप्रेक्ष्य’’ राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत द्वारा प्रकाशित की गई है । इनके कार्यों से उजागर होता है कि इन्होंने लोगों को पर्यावरण के संरक्षण एवं धरती को बेहतर स्थान बनाने की आवश्यकता के बारे में जागरूक बनाने की दिशा में अथक प्रयास किए हैं ताकि हम निरंतर जीवन जी सकें ।

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