एक वैज्ञानिक विश्लेषण
अजय सहाय
भारत एक ऐसा देश है जहां औसत वार्षिक वर्षा 4000 बिलियन क्यूबिक मीटर (BCM) होती है, परंतु लगभग 1869 BCM जल नदियों द्वारा बहकर समुद्र में चला जाता है और लगभग 800-1000 BCM वाष्पीकरण से नष्ट हो जाता है, जिससे मात्र 1122 BCM जल सतही और भूजल के रूप में बचता है, जिसमें से भी भारत केवल 450-500 BCM जल ही प्रभावी रूप से संग्रहित कर पाता है, जिससे शेष 3200 BCM जल व्यर्थ बह जाता है ।
यह जल संकट की सबसे बड़ी विडंबना है, जिससे भारत की 140 करोड़ जनसंख्या की जल सुरक्षा खतरे में रहती है, इस संदर्भ में भारत की पारंपरिक जल संरक्षण तकनीकों जैसे जोहड़, बावड़ी, तालाब, अहर-पईन, कुएँ, झीलें, नाड़ा बांध, चेक डैम, जलाशय, खेत पोखरियाँ, जल टंकी, आहड़-पईन प्रणाली, वाटर हार्वेस्टिंग पिट, और वेटलैंड आधारित मॉडल उल्लेखनीय रहे हैं जिनसे सदियों तक जल संकट से लड़ा गया ।
उदाहरण के लिए राजस्थान के अलवर जिले में ‘तारुण भारत संघ’ ने जोहड़ पुनर्जीवन से लगभग 1000 गांवों में भूजल स्तर को औसतन 15-20 मीटर तक पुनर्जीवित किया तथा कई सूखी नदियाँ पुनः प्रवाहित हुईं, इसी तरह मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले में ‘राजेंद्र सिंह’ के प्रयासों से कई जल संरचनाएँ बनीं, महाराष्ट्र के ‘पानी पंचायत’ मॉडल और ‘लोक बिरादरी प्रकल्प’ जैसे प्रयोगों ने वर्षाजल संचयन को जनभागीदारी से जोड़ा, वहीं बिहार में ‘जल-जीवन-हरियाली’ मिशन के तहत 2.39 लाख जलाशयों का निर्माण और 97,000 से अधिक जल संरचनाओं का पुनरुद्धार कर 28.5 BCM से 34.15 BCM तक भूजल भंडारण क्षमता बढ़ाई गई ।
इसके अलावा 13,000 से अधिक चेक डैम बनाए गए तथा 17.8 करोड़ से अधिक पौधारोपण कर हरित क्षेत्र 15% तक बढ़ाया गया, उत्तराखंड और हिमाचल में ग्लेशियर जल संग्रहण की परंपराएँ आज भी सक्रिय हैं, दूसरी ओर वैश्विक स्तर पर जल संकट से निपटने के लिए अत्याधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जा रहा है, जैसे इजराइल का ‘नेताफिम’ मॉडल जिसमें ड्रिप इरिगेशन (टपक सिंचाई) तकनीक के माध्यम से प्रति हेक्टेयर जल खपत को 40-60% तक घटाया गया, इसके साथ ही इजराइल का ‘रेन वाटर बैंक’ मॉडल भी चर्चित है जिसमें प्रत्येक वर्षा जल की बूँद को भूमिगत टैंक में संग्रहित कर शुद्ध कर पुनः प्रयोग किया जाता है ।
सिंगापुर का ‘न्यू वॉटर’ मॉडल जिसमें गंदे जल को 100% शोधित कर पीने योग्य जल में बदला जाता है, ऑस्ट्रेलिया का ‘ग्रेटर मेलबर्न वाटर रीसायक्लिंग प्रोजेक्ट’ जिसमें सीवेज जल को कृषि और उद्योग के लिए रिसाइकिल कर जल संकट को रोका गया है, अमेरिका का ‘स्टॉर्म वाटर हार्वेस्टिंग’ मॉडल जिसमें शहरी जल बहाव को संग्रह कर पुनः उपयोग में लाया जाता है, चीन के ‘स्पंज सिटी’ मॉडल में शहरी इलाकों को इस तरह डिजाइन किया गया है कि बारिश का जल स्वतः जमीन में रिस सके, जापान में छत जल संचयन को अनिवार्य किया गया है ।
इन सभी मॉडलों का भारत में वैज्ञानिक अनुकूलन जल क्रांति की दिशा में बड़ा कदम है, भारत सरकार भी ‘कैच द रेन’ अभियान, ‘अटल भूजल योजना’, ‘अमृत 2.0’, ‘राष्ट्रीय जल मिशन’ और ‘स्वच्छ भारत मिशन’ जैसे कार्यक्रमों से वर्षाजल संचयन, पुनर्भरण, जल शोधन और जल पुन: उपयोग को बढ़ावा दे रही है ।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यदि भारत में प्रत्येक घर वर्षाजल संचयन के लिए 1000 लीटर क्षमता की टंकी लगाए और छत जल संचयन प्रणाली लागू करे तो अकेले शहरी क्षेत्रों में लगभग 250 BCM वर्षाजल को संरक्षित किया जा सकता है, साथ ही गांवों में खेत तालाब, चेक डैम, सोकपिट, तथा रिचार्ज ट्रेंच से लगभग 350-400 BCM वर्षाजल को जमीन में पुनर्भरित किया जा सकता है, जिससे देश की कुल जल उपलब्धता 800 से 900 BCM तक बढ़ सकती है, जिससे कृषि, घरेलू और औद्योगिक जल संकट का स्थायी समाधान निकल सकता है ।
वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि भारत में हर 100 वर्गमीटर की छत से प्रति वर्ष औसतन 1 लाख लीटर वर्षाजल संग्रहण संभव है, इसी तरह 1 एकड़ भूमि पर लगभग 5 लाख लीटर वर्षाजल संग्रह किया जा सकता है, इस प्रकार 17.5 करोड़ ग्रामीण और शहरी परिवारों के लिए यह रणनीति अत्यंत प्रभावी है, इसके अलावा भारत के वेटलैंड्स भी जल संरक्षण के अहम स्तंभ हैं, जहां लगभग 75-80 BCM जल प्रतिवर्ष संचित होता है, इनमें से अधिकांश वेटलैंड्स में ‘हाइड्रिला’, ‘टाइफा’, ‘वलिस्नेरिया’ जैसे जल शुद्धिकरण करने वाले पौधे होते हैं, जो जल को न केवल संचित रखते हैं, बल्कि प्रदूषण भी नियंत्रित करते हैं ।
भारत में वेटलैंड्स का वैज्ञानिक पुनर्जीवन कर जल संग्रहण क्षमता को 150 BCM तक बढ़ाया जा सकता है, इसके साथ ही नदियों में ‘नदी पुनर्जीवन परियोजनाएँ’ भी जल संकट समाधान का अहम जरिया बन सकती हैं, जैसे यमुना पुनर्जीवन परियोजना, साबरमती रिवरफ्रंट प्रोजेक्ट आदि, ग्लेशियर संरक्षण से भी 10-15 BCM अतिरिक्त जल उपलब्ध कराया जा सकता है, भारत के भूजल संकट के समाधान हेतु ‘आर्टिफिशियल रिचार्ज वेल’, ‘पर्कोलेशन टैंक’, ‘रिचार्ज ट्रेंच’, ‘फार्म पॉन्ड’ जैसी तकनीकों का तेजी से उपयोग बढ़ रहा है, भारत के 6000 से अधिक ब्लॉकों में ‘ग्राउंड वाटर रिचार्ज’ पर कार्य हो रहा है ।
ISRO द्वारा ‘भूजल उपग्रह निगरानी’ (GRACE Satellite Data) से जल स्तर पर वैज्ञानिक निगरानी रखी जा रही है, जल नीति विशेषज्ञों का कहना है कि यदि भारत वैश्विक तकनीकों और अपने पारंपरिक अनुभवों का वैज्ञानिक सम्मिलन करे तो हर वर्ष 1000 BCM से अधिक जल सुरक्षित कर सकता है जिससे जल संकट स्थायी रूप से समाप्त हो सकता है, इसके लिए वर्षाजल संचयन को अनिवार्य बनाने, वेटलैंड संरक्षण को कानूनी दर्जा देने, जल पुनर्भरण संरचनाओं को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने, घरेलू जल रिसाइक्लिंग यूनिट को अनुदान देने तथा जल दक्ष कृषि तकनीकों को प्रोत्साहन देना अनिवार्य है ।
इस दिशा में ‘पानी पंचायत’, ‘जल मित्र’, ‘वॉटर वारियर्स’, ‘युवा जल शक्ति अभियान’ जैसे जनआंदोलनों को तीव्र गति से बढ़ाना होगा, जल विज्ञान विशेषज्ञों का मानना है कि 2047 तक यदि भारत यह रणनीति अपनाता है तो ‘जल आत्मनिर्भर भारत’ का सपना साकार हो सकता है, और भारत विश्व में जल संरक्षण का आदर्श बन सकता है, इस प्रकार पानी बचाने की यह क्रांति भारतीय अनुभव, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सांस्कृतिक परंपराएँ और वैश्विक तकनीकों का सफलतम समन्वय है जो जलवायु परिवर्तन और बढ़ती आबादी के इस दौर में जल सुरक्षा के लिए आवश्यक है।