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जंगल बचाना है तो हाथी बचाना होगा

जंगल बचाना है तो हाथी बचाना होगा

बांधवगढ़ में मारे गया हाथी

पंकज चतुर्वेदी

 जब सारा देश महालक्ष्मी की पूजा की तैयारी कर रहा था , ठीक उसी समय की पंद्रह दिनों  के भीतर कुछ सौ वर्ग किलोमीटर के दायरे में 14 लक्ष्मी के प्रिय गजराज का मारा जाना एक अव्यक्त भय और आशंका की तरफ इशारा कर रहा है । ओकतूबर के तीसरे हफ्ते में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में तीन हाथी करेंट लगने से मारे गए । फिर 26 अक्टूबर को पास ही बांधवगढ़ में एक साथ दस हाथियों की मौत कथित जहरीला पदार्थ खा  लेने से हो जाना दुनिया की भयावह घटनाओं में से है। इनमें नौ मादा थीं और दो गर्भवती । और इस तरह दो हाथियों की मौत भ्रूण में भी हो गई । अभी इस मामले की पड़ताल चल ही रही थी कि अचानकमार  टाइगर रिजर्व के करीब बसे गाँव टिंगीपुर गांव में ठीक दिवाली के दिन एक युवा होता तीन साल का नर हाथी शावक मृत मिला है।  बांधवगढ़ में हाथियों की मौत का कारण कोदो-कुटकी के फंगस में माइक्रो टॉक्सिन के कारण कही जा रही है । सोचने की बात है किया आखिर हाथी को कोदो के खेत में घुसना ही क्यों पड़ा ?  अभी बरसात विदा हुई है और बांधवगढ़ जैसे जंगलों में पर्याप्त हरियाली और चारा होना चाहिए ।

असल में हाथी को अपने शरीर  की विशालता के कारण ढेर सारा भोजन  व पानी चाहिए होता है।  इन दिनों झारखंड और छत्तीसगढ़ में हाथी के गांव में घुसने, तोड़फोड करने  की कई घटना हो रही हैं। जाहिर है कि जब जंगल में हाथी का पेट नहीं भर रहा हो तो वह बस्ती की तरफ आ रहा है। देश  में 75 साल पहले देश  से लुप्त हो गए चीतों को फिर से बसाने या बाघ पर तो बहुत ध्यान दिया जा रहा है लेकिन जिस जानवर के कारण जंगल हैं और जिस जंगल में ही चीता या बाघ रह सकता है, उस हाथी पर समाज को सचेत करने पर जमीनी योजना का सदैव अभाव दिखा । प्राकृतिक संसाधनों के सिमटने के चलते भूखा-प्यासा हाथी अपने ही पारंपरिक इलाकों में जाता है। दुखद है कि वहां अब बस्ती, सड़क  का जंजाल है। ‘द क्रिटिकल नीड आफ एलिफेंट’ उब्लूडब्लूएफ-इंडिया की यह रिपोर्ट बताती है कि  दुनिया में इस समय कोई 50 हजार हाथी बचे हैं इनमें से साठ फीसदी का आसरा भारत है।  देश  के 14 राज्यों में 32 स्थान हाथियों के लिए संरक्षित हैं। यह समझना जरूरी है कि धरती पर इंसान का अस्तित्व तभी तक है जब तक जंगल हैं और जंगल में जितना जरूरी बाघ है उससे अधिक अनिवार्यता हाथी की है।

दुनियाभर में हाथियों को संरक्षित करने के लिए गठित आठ देशों के समूह में भारत शामिल हो गया है। भारत में इसे ‘राष्ट्रीय धरोहर पशु’ घोषित किया गया है। इसके बावजूद भारत में बीते दो दशकों के दौरान हाथियों की संख्या स्थिर हो गई हे। जिस देश में हाथी के सिर वाले गणेश को प्रत्येक शुभ कार्य से पहले पूजने की परंपरा है , वहां की बड़ी आबादी हाथियों से छुटकारा चाहती है । 

पिछले एक दशक के दौरान मध्य भारत में हाथी का प्राकृतिक पर्यावास कहलाने वाले झारखंड, छत्तीसगड़, उड़िया राज्यों में हाथियों के बेकाबू झुंड के हाथों कई सौ इंसान मारे जा चुके हैं। धीरे-धीरे इंसान और हाथी के बीच के रण का दायरा विस्तार पाता जा रहा है। कभी हाथियों का सुरक्षित क्षेत्र कहलाने वाले असम में पिछले सात सालों में हाथी व इंसान के टकराव में 467 लोग मारे जा चुके हैं। अकेले पिछले साल 43 लोगों की मौत हाथों के हाथों हुई। उससे पिछले साल 92 लोग मारे गए थे। झारखंड की ही तरह बंगाल व अन्य राज्यों में आए रोज हाथी को गुस्सा आ जाता है और वह खड़े खेत, घर, इंसान; जो भी रास्ते में आए कुचल कर रख देता है । दक्षिणी राज्यों  के जंगलों में गर्मी के मौसम में हर साल 20 से 30 हाथियों के निर्जीव शरीर संदिग्ध हालात में मिल रहे हैं ।

जानना जरूरी है कि हाथियों के 100 लीटर पानी और 200 किलो पत्ते, पेड़ की छाल आदि की खुराक जुटाने के लिए हर रोज 18 घंटें तक भटकना पड़ता है । गौरतलब है कि हाथी दिखने में भले ही भारीभरकम हैं, लेकिन उसका मिजाज नाजुक और संवेदनशील होता है । थोड़ी  थकान या भूख उसे तोड़ कर रख देती है । ऐसे में थके जानवर के प्राकृतिक घर यानि जंगल को जब नुकसान पहुचाया जाता है तो मनुष्य से उसकी भिडं़त होती है ।

वन पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को सहेज कर रखने में गजराज की  महत्वपूर्ण भूमिका हैं।  पयार्वरण-मित्र पर्यटन और और प्राकृतिक आपदाओं के बारे में पूर्वानुमान में भी हाथी बेजोड़ हैं। अधिकांश संरक्षित क्षेत्रों में, आबादी हाथियों के आवास के पास रहते हैं और वन संसाधनों पर निर्भर हैं। तभी जंगल में मानव अतिक्रमण और खेतों में हाथियों की आवाजाही ने संघर्ष की स्थिति बनाई और तभी यह विशाल जानवर  खतरे है।

एक बात जान लें किसी भी जंगल के विस्तार में हाथी सबसे बड़ा ‘बीज-वाहक होता है। वह वनस्पति खाता है और उसकी लदी  भोजन करने के 60 किलोमीटर दूर तक जा कर करता है और उसकी लीद में उसके द्वारा खाई गई वनस्पति के बीज होते हैं।  हाथी की लीद  एक समृद्ध खाद होती है और उसमें  बीज भली-भांति  प्रस्फुटित होता है। जंगल  का विस्तार और पारंपरिक वृक्षों का उन्नयन इसी तरह जीव-जंतुओं द्वारा नैसर्गिक वाहन से ही होता हैं।

यही नहीं हाथी की लीद , कई तरह के पर्यावरण मित्र कीट-भृगों का भोजन भी होता है। ये कीट ना केवल  लीद को खाते हैं बल्कि उसे जमीन के नीचे दबा भी देते हैं जहां उनके लार्वा उसे खाते हैं। इस तरह से कीट कठोर जमीन को मुलायम कर देते है। और इस तरह वहां जंगल उपजने का अनुकूल परिवेष तैयार होता हैं।

घने जंगलों में जब हाथी ऊंचे पेड़ों से पत्ती तोड़ कर खाता है तो वह एक प्रकार से  सूरज की रोशनी नीचे तक आने का रास्ता भी बनाता है। फिर उसके चलने से जगह-जगह जमीन कोमल होती है और उस तरह जंगल की जैव विविधता को फलने-फूलने का मौका मिलता हैं। हाथी भूमिगत या सूख चुके जल-साधनों को अपनी सूंड, भारीभरकम पैर व दांतों की मदद के खोदते हैं। इससे उन्हें तो पानी मिलता ही है, जंगल के अन्य जानवरों की भी प्यास बुझती हैं।

कहना गलत ना होगा कि हाथी जंगल का पारिस्थितिकी तंत्र इंजीनियर है। उसके पद चिन्हों से कई छोटे जानवरों को सुरक्षित रास्ता मिलता है। हाथी के  विशाल पद चिन्हों में यदि पानी भर जाता है तो वहां मेंढक सहित कई छोटे जल-जीवों को आसरा मिल जाता हैं।

यह वैज्ञानिक तथ्य है कि जिस जंगल में यह विशालकाय शाकाहारी जीव का वास होता है वहां आमतौर पर शिकारी या जंगल कटाई करने वाले घुसने का साहस नहीं करते और तभी वहां हरियाली सुरक्षित रहती है और साथ में बाघ, तेंदुए, भालू जैसे जानवर भी  निरापद रहते हैं।

कई-कई सदियों से यह हाथी अपनी जरूरत के अनुरूप अपना स्थान बदला करता था । गजराज के आवागमन के इन रास्तों को ‘‘एलीफेंट कॉरीडार’’ कहा गया । जब कभी पानी या भोजन का संकट होता है गजराज ऐसे रास्तों से दूसरे जंगलों की ओर जाता है जिनमें मानव बस्ती ना हो। देष में हाथी के सुरक्षित कॉरीडोरों की संख्या 88 हैं, इसमें 22 पूर्वोत्तर राज्यों , 20 केंद्रीय भारत और 20 दक्षिणी भारत में हैं। दरअसल, गजराज की सबसे बड़ी खूबी है उनकी याददाश्त। आवागमन के लिए वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी परंपरागत रास्तों का इस्तेमाल करते आए हैं।

बढ़ती आबादी के भोजन और आवास की कमी को पूरा करने के लिए जमकर जंगल काटे जा रहे हैं। उसे जब भूख लगती है और जंगल में कुछ मिलता नहीं या फिर जल-स्त्रोत सूखे मिलते हैं तो वे खेत या बस्ती की ओर आ जाते हैं । नदी-तालाबों में शुद्ध पानी के लिए यदि मछलियों की मौजूदगी जरूरी है तो वनों के पर्यांवरण को बचाने के लिए वहां हाथी अत्यावश्यक हैं । मानव आबादी के विस्तार, हाथियों के प्राकृतिक वास में कमी, जंगलों की कटाई और बेशकीमती दांतों का लालच; कुछ ऐसे कारण हैं जिनके कारण हाथी को निर्ममता से मारा जा रहा है । हाथी का जंगल में रहना कई  लुप्त हो रहे पेड़-पौधों, सुक्ष्म जीव, जंगली जानवरों और पंक्षियों के संरक्षण को सुनिश्चित करता है।

 बांधवगढ़ के जंगलों में एक झटके में हाथी की आबादी 20 फीसदी कम हो गई । करेंट से मारे गए हाथी हों या  कथित रूप से जहरीला पदार्थ खाने से मृत पाए गजराज , कहीं न कहीं  इसमें इंसान से उसके टकराव के तत्व हैं ही । इसी सायं मार्च में हाथियों और मानव के बीच बढ़ते संघर्ष को देखते हुए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय , प्रोजेक्ट एलीफैंट के तहत 22 राज्यों में जंगल से सटे गांवों को “अर्ली अलर्ट सिस्टम” से जोड़ने की घोषणा की थी ताकि गांव के आसपास हाथियों की हलचल बढ़ने पर उन्हें सतर्क किया जा सके । इस दौरान प्रभावित गावों में सायरन और सेंसर लगाने की योजना थी , जिससे  हाथियों के आने पर तेज आवाज करके सभी को सतर्क कर देंगे। इसके साथ ही हाथियों के मूवमेंट की जानकारी वन महकमे को भी सेंसर के जरिए तुरंत मिल जाएगी। लेकिन हाल की घटनाओं से स्पष्ट है  कि सेंसर योजन अभी फाईलोन से निकाल आकर जंगल तक आई नहीं हैं ।

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