चेतावनियों को नजरंदाज करने से आई तबाही
पंकज चतुर्वेदी
सुंदर, शांत , सुरम्य हिमाचल प्रदेश में इन दिनों मौत का सन्नाटा है । छोटे से राज्य का बड़ा हिस्सा अचानक आई तेज बरसात और जमीन खिसकने से कब्रिस्तान बना हुआ है तो जहां आपदा आई नहीं वहाँ के लोग भी आशंका में जी रहे हैं । आषाढ़ में मानसून की पहली बौछार के साथ ही कई जिलों, विशेषकर कुल्लू और धर्मशाला, में भारी बारिश और बादल फटने की घटनाएं हुई हैं। इससे कई जगहों पर भूस्खलन हुआ है, जिससे सड़कें अवरुद्ध हो गईं और यातायात बाधित हुआ।
कुल्लू और धर्मशाला जिलों में पांच जगह बादल फटने की घटनाएं हुईं, जिसमें कम से कम दो लोगों की मौत हो गई है और 11 लोग लापता हैं । पिछले एक हफ्ते में कम से कम 30 लोगों की मौत की पुष्टि हुई है । कांगड़ा के खनियारा क्षेत्र में इंदिरा हाइड्रो प्रोजेक्ट के पास फ्लैश फ्लड में 20 मजदूर बह गए, जिनमें से 7 के शव बरामद हुए हैं, बाकी की तलाश जारी है । कुल्लू की सेंज घाटी में 2000 से अधिक पर्यटक फंसे हुए हैं। यहाँ बादल फटने से एक ही परिवार के तीन लोग बह गए ।
धर्मशाला-चतरो-गगल मार्ग और अपर शिमला क्षेत्र में ताउणी-हाटकोटी मार्ग जैसे कई प्रमुख मार्ग भूस्खलन के कारण क्षतिग्रस्त हो गए हैं। अभी तो सावन-भादों आगे हैं । दुखद वैज्ञानिकों द्वारा इस बारे में दी गई ढेर सारी चेतावनियाँ फाईलों में बंद हैं। सरकारी महकमे अपने ढर्रे पर काम कर रहे हैं जबकि पहाड़ जलवायु परिवर्तन के विविध कुप्रभावों से ग्रस्त हैं ।
इसी साल 14-15 फ़रवरी को आई आई टी, बॉम्बे में सम्पन्न दूसरे इंडियन क्रायोस्फीयर मीट (ICM) में आई आई टी रोपड़ के वैज्ञानिकों ने एक शोध पत्र प्रस्तुत कर बताया था कि हिमाचल राज्य का 45% से ज़्यादा हिस्सा बाढ़, भूस्खलन और हिमस्खलन जैसी आपदाओं से ग्रस्त है। 5. 9 डिग्री और 16.4 डिग्री के बीच औसत ढलान वाले और 1,600 मीटर तक की ऊंचाई वाले क्षेत्र विशेष रूप से भूस्खलन और बाढ़ दोनों के लिए प्रवण हैं । इस मीटिंग में दुनिया भर के लगभग 80 ग्लेशियोलॉजिस्ट, शोधकर्ता और वैज्ञानिक शामिल हुए । इतनी स्पष्ट चेतावनी के बावजूद भी ना समाज चेत ना ही सरकार ।
नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी, इसरो द्वारा तैयार देश के भूस्खलन नक्शे में हिमाचल प्रदेश के सभी 12 जिलों को बेहद संवेदनशील की श्रेणी में रखा गया है । देश के कुल 147 ऐसे जिलों में संवेदनशीलता की दृष्टि से मंडी को 16 वें स्थान पर रखा गया है। यह आंकड़ा और चेतावनी फाइल में सिसकती रही और इस बार मंडी में तबाही का भयावह मंजर सामने आ गया । ठीक यही हाल शिमला का हुआ जिसका स्थान इस सूची में 61वे नम्बर पर दर्ज है ।
प्रदेश में 17,120 स्थान भूस्खलन संभावित क्षेत्र अंकित हैं , जिनमें से 675 बेहद संवेदनशील मूलभूत सुविधाओं और घनी आबादी के करीब हैं । इनमे सर्वाधिक स्थान 133 चंबा जिले में , मंडी (110), कांगड़ा (102), लाहुल-स्पीती (91), उना (63), कुल्लू (55), शिमला (50), सोलन (44) , आदि हैं । यहाँ भूस्खलन की दृष्टि से किन्नौर जिला को सबसे खतरनाक माना जाता है। बीते साल भी किन्नौर के बटसेरी और न्यूगलसरी में दो हादसों में ही 38 से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी। इसके बाद किन्नौर जिला में भूस्खलन को लेकर भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के विशेषज्ञों के साथ साथ आई आई टी , मंडी व रुड़की के विशेषज्ञों ने अध्ययन किया है।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, हिमाचल प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 97.42% भूस्खलन की संभावना में है । हिमाचल सरकार की डिज़ास्टर मैनेजमेंट सेल द्वारा प्रकाशित एक “लैंडस्लाइड हैज़ार्ड रिस्क असेसमेंट” अध्ययन ने पाया कि बड़ी संख्या में हाइड्रोपावर स्थल पर धरती खिसकने का खतरा है । लगभग 10 ऐसे मेगा हाइड्रोपावर प्लांट , स्थल मध्यम और उच्च जोखिम वाले भूस्खलन क्षेत्रों में स्थित हैं।
राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से सर्वेक्षण कर भूस्खलन संभावित 675 स्थल चिन्हित किए है । चेतावनी के बाद भी किन्नोर में , एक हज़ार मेगावाट की करचम और 300 मेगा वाट की बासपा परियोजनाओं पर काम चल रहा है । एक बात और समझना होगा कि “वर्तमान में बारिश का तरीका बदल रहा है और गर्मियों में तापमान सामान्य से कहीं अधिक पर पहुंच रहा है। ऐसे में मेगा जलविद्युत परियोजनाओं को बढ़ावा देने की राज्य की नीति को एक नाजुक और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्र में लागू किया जा रहा है।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, हिमाचल प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 97.42% भूस्खलन की संभावना में है । हिमाचल सरकार की डिज़ास्टर मैनेजमेंट सेल द्वारा प्रकाशित एक लैंडस्लाइड हैज़ार्ड रिस्क असेसमेंट अध्ययन ने पाया कि बड़ी संख्या में हाइड्रोपावर स्थल भूस्खलन आपदा जोखिम के खतरे में हैं और कम से कम 10 ऐसे मेगा हाइड्रोपावर स्थल हैं जो कि मध्यम और उच्च जोखिम वाले भूस्खलन क्षेत्रों में स्थित हैं।
यदि गंभीरता से देखें तो यह हालात भले ही आपदा से बने हों लेकिन इन आपदाओं को बुलाने में इन्सान की भूमिका भी कम नहीं हैं। जब दुनियाभर के शोध कह रहे थे कि हिमालय पर्वत जैसे युवा पहाड़ पर पानी को रोकने, जलाशय बनाने और सुरंगे बनाने के लिए विस्फोटक के इस्तेमाल के अंजाम अच्छे नहीं होंगे, तब हिमाचल की जल धाराओं पर छोटे-बड़े बिजली संयंत्र लगा कर उसे विकास का प्रतिमान निरुपित किया जा रहा था ।
कहने को तो प्रदेश के 50 स्थानों पर आई आई टी, मंडी द्वारा विकसित आपदा पूर्व सूचना यंत्र लगाये गए हैं । भूस्खलन जैसी आपदा से पहले ये लाल रौशनी के साथ तेज आवाज़ में सायरन बजाते हैं लेकिन इस बार आपदा इतनी तेजी से आई कि ये उपकरण काम के नहीं रहे ।
यह बात कई शोध पत्र कह चुके हैं कि हिमाचल प्रदेश में अंधाधुंध जल विद्युत परियोजनाओं से चार किस्म की दिक्कते आ रही हैं । पहला इसका भूवैज्ञानिक प्रभाव है , जिसके तहत भूस्खलन , तेजी से मिटटी का ढहना शामिल है । यह सड़कों, खेतों, घरों को क्षति पहुंचाता है । दूसरा प्रभाव जलभूवैज्ञानिक है जिसमें देखा गया कि झीलों और भूजल स्रोतों में जल स्तर कम हो रहा है । तीसरा नुकसान है – बिजली परियोजनाओं में नदियों के किनारों पर खुदाई और बह कर आये मलवे के जमा होने से वनों और चरागाहों में जलभराव बढ़ रहा है। ऐसी परियोजनाओं का चौथा खतरा है , सुरक्षा में कोताही के चलते हादसों की संभावना ।
यह सच है कि विकास का पहिया बगैर अच्छी सड़कों और उर्जा के घूम नहीं सकता लेकिन इसके लिए ऐसी परियोजनाओं से बचा जाना चाहिए जो कि कुदरत की अनमोल देन कहे जाने वाले हिमालय पहाड़ के मूल स्वरूप पर खतरा हों ।