Site icon Indiaclimatechange

मानवीय हस्तक्षेप से बढ़ी आपदाओं की तीव्रता

भूस्खलन

भूस्खलन

रोहित कौशिक

हर बरसात में पहाड़ों पर भूस्खलन की घटनाएं सामने आती हैं। इस साल भी यही हाल है।अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप एवं मानवीय गतिविधियों ने प्रकृति को जो जख्म दिए हैं, उसी कारण भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं। पिछले कुछ वर्षों मे हुए अध्ययन से यह बात सामने आई है कि जलवायु परिवर्तन और घटते वन क्षेत्र के कारण देश के कई हिस्सों में भूस्खलन की तीव्रता बढ़ी। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही देश के अनेक हिस्सो के साथ पहाड़ों पर कई तरह के खतरे मंडरा रहे हैं।  पहाड़ी इलाकों में लगातार भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। जिस गति से पहाड़ों पर निर्माण कार्य हो रहा है, उसके कारण भूस्खलन की घटनाएं और ज्यादा बढ़ने की उम्मीद है। कुछ समय पहले जोशीमठ में कई मकान धंस गए थे और मकानों में दरार आ गई थी। उस समय स्थानीय लोगों ने जोशीमठ की पहाड़ी के नीचे सुरंग से होकर गुजरने वाली एनटीपीसी की निर्माणाधीन तपोवन विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना को जोशीमठ की घटना के लिए जिम्मेदार माना था। वैज्ञानिकों का मानना है कि पहाड़ों के कई शहर भूकंप के अत्यधिक जोखिम वाले क्षेत्र में बसे हैं। इसलिए ऐसी जगहों पर किसी भी कारण से होने वाली थोड़ी सी भी हलचल भारी तबाही मचा सकती है। अनियंत्रित विकास ने पहाड़ों के कई शहरों को खतरे में डाल दिया है। आज किसी एक स्तर पर नहीं बल्कि अनेक स्तरों पर पहाड़ों के पर्यावरण को हानि पहुंचाने की कोशिश हो रही है।

     यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हम पहाड़ों की विभिन्न आपदाओं से सबक नहीं ले पाए और पहाड़ों पर जल प्रलय के शास्त्र को समझे बिना विकास की परियोजनाओं को हरी झंडी देते चले गए। यही कारण है कि हमें लगातार इस तरह के संकटों का सामना करना पड़ रहा है। प्रारम्भ से ही पहाड़ों पर अत्यधिक जल विद्युत परियोजनाओं का विरोध होता रहा है। अनेक वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का मानना है कि पहाड़ों पर ये जल विद्युत परियोजनाएं भविष्य में और भी बड़ी तबाही मचा सकती हैं। हर क्षेत्र का अपना अलग पर्यावरण होता है। हम पहाड़ के पर्यावरण की तुलना मैदानी क्षेत्रों के पर्यावरण से नहीं कर सकते। यदि हम पहाड़ के पर्यावरण को समझे बिना विकास की परियोजनाओं को आगे बढ़ाएंगे तो इस तरह की आपदाओं को ही निमंत्रण देंगे। यह विडम्बना ही है कि मानव हस्तक्षेप के चलते पहाड़ों पर विभिन्न तरह की आपदाएं बढ़ती जा रही हैं। गौरतलब है कि पहाड़ों पर बनने वाले बांधों ने ग्लेशियरों को भी कमजोर किया है।

    पहाड़ों में जल विद्युत परियोजनाओं पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। आज विकास का जो हवा महल बनाया जा रहा है, वह किसी न किसी रूप से आम आदमी की कब्र खोदने का काम ही कर रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हम बड़े ही शर्मनाक तरीके से इस विकास पर अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं। क्या हम विकास का ऐसा माडल नहीं बना सकते जिससे पहाड़ के निवासियों को स्थायी रूप से फायदा हो। आज विकास के जो तौर-तरीके अपनाए जा रहे है उनमें गरीब लोगों को अस्थायी फायदा होता है। इसीलिए वह ताउम्र गरीब बना रहता है और सत्ताएं तथा पूंजीपति लोग विकास का स्वप्न दिखाकर उसे लगातार ठगते रहते हैं। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि इस व्यवस्था से त्रस्त आम आदमी और पर्यावरण संरक्षण के पक्ष में खड़े होने वाले लोगों को भी सत्ताएं संदिग्ध बताकर गरीबों का दुश्मन घोषित करने पर लग जाती हैं। दरअसल बड़ी विकास परियोजनाओं की विसंगतियों के दर्द को आम आदमी ही महसूस कर सकते हैं। इन बड़ी योजनाओं से बड़ी संख्या में विस्थापन भी होता है। केवल बड़ी-बड़ी घोषणाएं करने तथा भाषणबाजी से पहाड़ के लोगों और विस्थापितों का दर्द कम नहीं हो जाता। विस्थापन के माध्यम से गरीब लोगों पर दोहरी मार पड़ती है। पहली मार तो व्यवस्था की होती है। सवाल यह है कि इस व्यवस्था में उजड़े हुए लोगों की मानसिक अवस्था के स्तर तक पहुंचने वाले कितने अधिकारी और कर्मचारी हैं। जिन अधिकारियों और कर्मचारियों को अपना कर्तव्य निभाने में भी जोर पड़ता है, वे अपनी सरकारी नौकरी की मानसिकता से ऊपर उठकर अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाते। विस्थापितों पर व्यवस्था की मार से उपजी दूसरी मार मानसिक तनाव की पड़ती है। इस तरह उन्हें अनेक स्तरों पर मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है। इसलिए पहाड़ के लोगों के भविष्य की ठोस और सार्थक कार्ययोजना बनाए बिना बिना विकास की बात करना बेमानी है।  

     उत्तराखंड तथा देश के अन्य भागों में विभिन्न बांधों से जुड़ी परियोजनाएं सिर्फ विस्थापितों के राहत एवं पुनर्वास कार्यो को लेकर ही सवालों के घेरे में नहीं रहती हैं बल्कि इन परियोजनाओं में शुरू से ही पर्यावरण से जुड़े अनेक नियमों के पालन में कोताही बरती गई है। सवाल यह है कि विकास के माडल में ऐसी परियोजनाआंे से प्रभावित परिवारों के बारे में क्यों नहीं सोचा जाता है ? यह दुर्भाग्यपूर्ण ही ही है कि सरकार प्रभावित लोगों के बारे मंें बड़ी-बड़ी बातें तो करती है लेकिन उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया जाता है। क्या विकास के इस माडल में गरीब लोगों के लिए कोई जगह नहींे है ? इस प्रगतिशील दौर में भी विभिन्न जगहों पर बांध से प्रभावित लोग विस्थापन की मार झेल ही रहे हैं। 

     यह विडम्बना ही है कि देश में पिछले पचास वर्षो में बड़ी सिचाई परियोजनाओं पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए हैं लेकिन सूखे एवं बाढ़ से प्रभावित जमीन का क्षेत्रफल लगातार बढ़ता ही जा रहा है। दरअसल अब समय आ गया है कि पिछले पचास वर्षों में बने अनेक बांधों से मिल रही सुविधाओं की वास्तविक समीक्षा की जाए। पिछले कुछ वषों से बड़े बांधो की उपयोगिता पर एक नई बहस चल पड़ी है। अधिकतर विकसित देशों ने बड़े बांधों को हानिकारक मानते हुए इनका निर्माण बन्द कर दिया है। बांधों के विश्व आयोग की भारत से सम्बन्धित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि बड़ी सिचाई परियोजनाओं से अधिक लाभ नहीं होता है जबकि इसके दुष्परिणाम अधिक होते हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में बड़े बांधों के कारण विस्थापित करोड़ों लोगों में 62 प्रतिशत अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों से सम्बन्धित हैं। बड़े बांधों के कारण जहां एक ओर लगभग कई लाख हेक्टेयर जंगलों का विनाश हुआ है वहीं दूसरी ओर इस तरह की परियोजनाओं से अनेक तरह की विषमताएं पैदा हुई हैं और इसका लाभ अधिकतर बड़े किसानों और शहरी लोगों को ही मिला है।

     आज निश्चित रूप से विज्ञान निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर है लेकिन वह प्रकृति के सामने बौना ही है। अगर इस दौर के बुद्धिजीवी प्रकृति के साथ विज्ञान की प्रतियोगिता कराएंगे तो किसी न किसी रूप में वे तबाही को ही जन्म देंगे। विज्ञान और प्रगतिवादी सोच का उपयोग मानव कल्याण के लिए होना चाहिए न कि मानव विनाश के लिए। सम्पूर्ण विश्व में प्रकृति ने बड़े बांधों के माध्यम से जो तबाही मचाई है वह किसी से छिपी नहीं है। अक्सर हमारे कुछ वैज्ञानिक एवं बुद्धिजीवी विभिन्न तर्क देकर यह सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं कि बड़े बांध एक निश्चित अवधि तक प्रकृति की मार झेलने में सक्षम हैं। ऐसा कहकर ये बुद्धिजीवी एक तरह से प्रकृति को चुनौती ही देते हैं। यह अनेक बार सिद्ध हो चुका है कि विभिन्न भविष्यवाणियों के बावजूद विश्व के वैज्ञानिक प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने में असमर्थ हैं। दरअसल इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वैज्ञानिकों द्वारा घोषित इस निश्चित समयावधि में भी बड़े बांध प्रकृति की मार झेल ही लेंगे।

     भारत जैसे विकासशील देश में पीने के पानी, सिचाई एवं ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए एक ऐसी व्यवस्था की जरूरत है जिससे कि संसाधनों का समुचित उपयोग एवं ठीक ढंग से पर्यावरण संरक्षण हो सके। इस व्यवस्था में वर्षा जल के संरक्षण, वैकल्पिक स्रोतों से ऊर्जा प्राप्त करने तथा जैविक खेती को प्रोत्साहन दिया जा सकता है। ऐसी व्यवस्था से गरीबो का भी भला होगा। यह सर्वविदित है कि बड़े बांधों से जहां एक ओर अनेक बीमारियां फैलती हैं वहीं दूसरी ओर बांधों में मिट्टी भर जाने से इनकी अवधि भी कम हो जाती है। बड़े बांधों से किसानों की जमीन ,जंगल एवं मकान जलमग्न हो जाते हैं तथा जलभराव भी होता है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि पहाड़ का अपना अलग पर्यावरण होता है। इस पर्यावरण की रक्षा करना आम नागरिकों का कर्तव्य तो है ही, सरकार का कर्तव्य भी है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि विभिन्न सरकारें विकास की परियोजनाओं में पहाड़ के पर्यावरण का ख्याल नहीं रखती हैं। अब हमें इन आपदाओं से सबक लेना चाहिए।

Exit mobile version