वैशाख में करें सावन की तैयारीवैशाख में करें सावन की तैयारी

वैशाख में करें सावन की तैयारी

पंकज चतुर्वेदी

प्रकृति कभी इंसान को निराश नहीं करती जबकि इंसान ने हर समय प्रकृति के उपभोग के बनिस्पत दोहन अधिक किया । भले ही इस बार गर्मी पहले आ गई  और आने वाले दिन और तपेंगे  लेकिन भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने यह बताया दिया है कि भारत में इस बार का चार महीने के मानसून मौसम (जून से सितंबर) सामान्य से अधिक वर्षा ले कर आएगा  और संचयी वर्षा दीर्घ अवधि औसत 87 सेमी का 105 प्रतिशत रहने का अनुमान है।

ध्यान रहे यह  समाचार तभी  सुखद  हो सकता है जब तपती  धूप में श्रम के स्वेद कण सुखी धरती को अभी से  गीला करें ।  यह स्वीकार करना ही होगा कि हमारे देश में हमारे पूर्वजों ने  इस तरह की जल-निधियाँ विकसित की थीं जो न्यूनतम बरसात में लोगों की जल जरूरतों को पूरा करने में सक्षम थी, आधुनिकता की आंधी में हमने ही  अपनी समृद्ध विरासतों को बिसरा दिया ।

 ये लोक परंपराएं न केवल पानी की कमी से निपटने और मानसून की तैयारी करने के व्यावहारिक तरीके थीं, बल्कि ये सामाजिक बंधनों को मजबूत करने, प्रकृति के प्रति सम्मान जगाने और पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान और संस्कृति को हस्तांतरित करने का भी माध्यम थीं।

यह तीखी गर्मी एक तपस्या है और प्रायश्चित करने का अवसर भी कि  जिन जल संरक्षण प्रणालियों को विकसित करने में हमारे पुरखों की कई  पुश्तें लगी रहीं , उन्हें हमने कुछ ही दशक में नष्ट कर दिया ।  यदि कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्त्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे।

एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते जब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्त्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है – तालाब, कुंए, बावड़ी। लेकिन एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है

पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी ओर काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है। तभी बीते तीन दशक में  केंद्र और राज्य की अनैक योजनों के तहत तालाबों से गाद निकालने, उन्हें सहेजने  के नाम पर अफरत पैसा खर्च किया गया और नतीजा रहा ‘ढाक के तीन पात!’ ।

जानना जरूरी है कि नदी-तालाब- बावड़ी-जोहड़ आदि जल स्त्रोत नहीं है, ये केवल जल को सहेज रखने के खजाने हैं, जल स्त्रोत तो बारिश ही है और जलवायु परिर्तन के कारण साल दर साल बारिश का अनयिमित होना, बेसमय होना और अचानक तेज  गति से होना घटित होगा ही। आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विशय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं।

वैशाख  देश के आधे राज्यों में नए वर्ष का प्रारंभ है । सनातन  मान्यता के अनुसार इस महीने विष्णु भगवान जल में रहते  हैं । इस समय मानसून की तैयारी करना बुद्धिमानी भरा कदम है। गांवों और शहरों में स्थित तालाबों, कुओं और अन्य जलाशयों की सफाई करना महत्वपूर्ण है ताकि वे मानसून के पानी को कुशलतापूर्वक संग्रहित कर सकें। इस समय अधिकांश जल निधियाँ सूख गई हैं ।

इनकी गाद निकालना और उसे खेतों में फैला देना , एक पंथ –दो काज के मानिंद हैं । पत्ते और अन्य जैविक पदार्थों के सदने- गलने  से निर्मित यह सूखी गाद खेतों के लिए वरदान है , वहीं इनकी खुदाई से सूखे तालाब- बावड़ी को नया जीवन मिल जाता है । एक तो सफाई हो गई और दूसरा गहराई भी बढ़ गई । सूखी  छोटी नदियों की सफाई , उसके किनारों  से कूड़ा  हटाना और बड़ी नदियों से उनके मिलन स्थल पर जमा हो गई गाद और रेत हटाने का काम समाज यदि अभी कर ले तो सामान्य बरसात की स्थिति में भी न कंठ सूखे रहेंगे और न ही खेत ।

हाँ , एक बात जान लें , जेसीबी जैसी मशीनों से जल निधियों के गहरीकरण   के अपने खतरे हैं। हमारे पूर्वजों की समझ कितनी सूझबूझभरी एवं वैज्ञानिक थी। उन दिनों उन्नत जल-विज्ञान और कुशल जलविज्ञानी का पूरा समाज  था जो मिट्टी और जलवायु की बेहतरीन समझ  रखते थे । कुएं , तालाब, बावड़ी आदि लोक की संस्कृति  सभ्यता का अभिन्न अंग हैं और इन्हें सरकारी बाबुओं के लाल बस्ते के बदौलत नहीं छोड़ा जा सकता ।

असल में इनकी  की सफाई का काम आज के अंग्रेजीदां इंजीनियरों के बस की बात नहीं है।  यह हाथ से मिट्टी को हौले से छूने के स्नेह को महसूस कर  बदले में  जल और उसमें पलने वाले जीवन का स्नेह- उपहार देने का गणित है , जिसे कोई मशीन समझ नहीं सकती ।

यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘‘औसत से कम’’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि  करती है। असल में इस बात को लेग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।

 जरा देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित हो पाता है। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जा कर मिल जाता है और बेकार हो जाता है।

जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य केश क्राप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा  भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है।

यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के माग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है।  देश के उत्तरी हिस्से में नदियो में पानी  का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में  यह आंकडा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि षेश आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिश से होती है और ना ही नदियों से।

प्रकृति तो हर साल कम या ज्यादा , पानी से धरती को सींचती ही है लेकिन असल में हमने पानी को ले कर अपनी आदतें खराब कीं। हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा यानी पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है।

इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी जिंदगी का थम जाना। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है। इसके लिए जरूरी है कि विरासत में हमें जल को सहेजने के जो साधन मिले हैं उनको मूल रूप में जीवंत रखें। पानी केवल सरकार के बस की बात नहीं है, उसके उपभोक्ता को हर योजना में सहभागी बनना होगा । क्यों न हर एक  कुएं-बावड़ी, नदी-तालाब को समाज गोद ले और वैशाख- जेठ के लंबे दिनों में से कुछ घंटे निकाल कर अपने श्रम और कौशल से इसे मानसून के स्वागत के लिए  तैयार कर दे ।