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आत्मनिर्भर विकास लक्ष्यऔर कोंकणी साहित्य

फोटो - गूगल

जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में

डॉ. भूषण भावे

1992 में ब्राजील के रियो डी जनेरियो में संचालित पृथ्वी शिखर सम्मेलन (Earth Summit) में ‘एजेंडा 21’ शीर्षक के तहत 178 से अधिक देशों द्वारा अपनाई गई 21वीं सदी की घोषणा, मानव गतिविधियों के कारण होने वाले पर्यावरण (Environment) और पारिस्थितिकी (Ecology) के विनाश का मुकाबला करने का एक निर्णायक कदम माना जा सकता है।उसी सम्मेलन ने जलवायु परिवर्तन (Climate Change) पर एक सम्मेलन की मेजबानी की, जिसे जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क सम्मेलन (यूएनएफसीसीसी) के रूप में जाना जाता है।
इसी प्रकार, जैव-विविधता (Biological Diversity) पर एक सम्मेलन भी वहाँ आयोजित किया गया था और सम्मेलन द्वारा वन प्रबंधन के सिद्धांतों पर एक घोषणा को अपनाया गया था। 1992 के सम्मेलन का नाम “पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन” (UNCED) था। यह इस सम्मेलन के माध्यम से पूरे विश्व द्वारा व्यक्त की गई मानव व्यवहार के प्रति चिंता और विकास की अपनाई गई अवधारणा को दर्शाता है।
उसके पश्चात 2015 में, संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2030 के लिए थीम (एजेंडा) के रूप में 15 साल की अवधि के लिए स्वयंपोषक विकास के लक्ष्य की संकल्पना सादर की तथा 17 एस.डी.जी. अपनाएं गये, वे इस प्रकार हैः
1. किसी की प्रकार की गरिबी दूर करें;
2.   भुखमरी समाप्त करें, खाद्य सुरक्षा और पोषण लक्ष्य प्राप्त करें तथा आत्मनिर्भर कृषि को बढ़ावा दें;
3.   स्वस्थ जीवन सुनिश्चित करना और सभी उम्र के लोगों के लिए स्वस्थ जीवन को बढ़ावा देना;
4.   सभी के लिए समावेशी और समान गुणवत्ता वाली शिक्षा और आजीवन सीखने के अवसर सुनिश्चित करना;
5.   लैंगिक समानता स्थापित करना और सभी महिलाओं और लड़कियों को सशक्त बनाना;
6.   सभी के लिए पानी और स्वच्छता तक प्रवेशगम्यता और उनका आत्मनिर्भर प्रबंधन सुनिश्चित करना;
7.   सभी के लिए सस्ती, विश्वसनीय, आत्मनिर्भर और आधुनिक ऊर्जा सुनिश्चित करना;
8.   सभी के लिए पूर्णकालिक और उत्पादक रोजगार और सभ्य काम प्रदान करने का प्रयास करते हुए टिकाऊ, समावेशी और आत्मनिर्भर आर्थिक विकास को बढ़ावा देना;
9.   लचीले (अनुकूली) संसाधनों को विकसित करें, समावेशी और आत्मनिर्भर औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करें तथा नवाचार को बढ़ावा दें;
10. देशों के भीतर और देशों के बीच असमानताओं को कम करना।
11. शहरों और मानव बस्तियों को समावेशी, सुरक्षित, लचीला और आत्मनिर्भर बनाएं;
12. उपभोग/उपयोग और उत्पादन के आत्मनिर्भर/संतुलित पैटर्न सुनिश्चित करें;
13. जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों को कम करने के लिए तत्काल कार्रवाई करें;
14. आत्मनिर्भर विकास के लिए महासागरों, समुद्रों और जल संसाधनों का संरक्षण और उचित/टिकाऊ उपयोग;
15. भूमि-पर्यावरण के सतत उपयोग की रक्षा, संरक्षण और प्रोत्साहन, वनों का सतत प्रबंधन, मरुस्थलीकरण की रोकथाम, भूस्खलन की रोकथाम और बहाली के साथ-साथ जैव विविधता के नुकसान की रोकथाम;
16. आत्मनिर्भर विकास के लिए शांतिपूर्ण और समावेशी समुदायों को बढ़ावा देना, सभी के लिए न्याय तक पहुंच की सुविधाएं बनाना और सभी स्तरों पर प्रभावी, जवाबदेह और समावेशी संस्थानों का निर्माण करना;
17. आत्मनिर्भर/टिकाऊ विकास के लिए कार्यान्वयन मार्गों को मजबूत करें और वैश्विक भागीदारी को पुनर्जीवित करें।
उपरोक्त अधिकांश लक्ष्य अंग्रेजी शब्द ‘सस्टेनेबल’ के उपयोग को दर्शाते हैं जिसका प्रयोग कई अर्थों में किया जाता है, जैसे ‘आत्मनिर्भर/ क्रोनिक/ दीर्घकालिक/ टिकाऊ’ ।
दरअसल, आत्मनिर्भरता आधुनिक जीवन का मंत्र बन गया है। अंग्रेजी में ‘To sustain’ क्रिया का अर्थ है संरक्षित करना, बनाए रखना, जारी रखना, जिससे सस्टेनेबल, सस्टेनेबल, सस्टेनेबिलिटी जैसे विशेषण और विशेषण बने हैं। हालाँकि उपरोक्त कई शब्द कोंकणी और अन्य भाषाओं में उपयोग किए जाते हैं, लेकिन उनका मूल अर्थ एक ही है, अर्थात् ‘वह जो लंबे समय तक रहता है’। अन्य शब्द कार्य-कारण के निर्णय के अनुरूप हैं। उदाहरण के लिए, यदि सम्यक तरीके से उपयोग किया जाए तो कोई वस्तु लंबे समय तक चलेगी।
एक प्रणाली को इस तरह से विकसित करना कि वह खुद को कायम रख सके, जीवित रह सके और खुद का पोषण कर सके। इसलिए उसे आत्मनिर्भर कह रहे हैं. और जो व्यवस्था आत्मनिर्भर होगी, वह लंबे समय तक चलेगी, चिरस्थायी बनेगी। इस प्रकार, ये शब्द अन्योन्याश्रित हैं, जिनमें एक ही अर्थ के कई भाग हैं। ये ऐसी अवधारणाएं हैं जो “इस्तेमाल करो और फेंक दो” की विचारधारा से आगे बढ़कर ‘जियो और जीने दो’ या ‘जियो और परिपोषण करो’ की विचारधारा का प्रस्ताव करती है, जिसे 21वीं सदी के मनुष्य ने फिर से अपना लिया है।
20वीं सदी में पर्यावरण के संदर्भ में मानवीय हस्तक्षेप के कारण कई नई अवधारणाएँ अस्तित्व में आईं और लागू हुईं। इनमें जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग( Global Warming) और ग्रीन हाउस गैसें ( Green House Gases) मुख्य रूप से शामिल हैं ।
किसी भी ग्रह या उपग्रह के वायुमंडल में मौजूद कुछ गैसें वायुमंडलीय तापमान को अपेक्षा से अधिक बढ़ा देती हैं। यह कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसों के अत्यधिक उपयोग और उत्सर्जन के कारण होता है। 20वीं शताब्दी में मनुष्य द्वारा जीवाश्म ईंधन ( Fossil Fuels) के अत्यधिक उपयोग ने वायुमंडल (Atmosphere), जलमंडल (Hydrosphere), जीवमंडल (Biosphere) और भूमंडल (Geosphere) की एकीकृत जलवायु प्रणाली और उनके अंतर्संबंधों पर बहुत परिणाम हुआ  है तथा होना जारी है।
वास्तव में, इन ग्रीनहाउस गैसों के कारण पृथ्वी का तापमान आज की तरह 15° सेल्सियस तक बना रहता है। इन गैसों के बिना, पृथ्वी ठंडी हो जाती। हालाँकि, वर्तमान समय में इन गैसों की अत्यधिक मात्रा ग्लोबल वार्मिंग (तापमान वृद्धि) का कारण बन रही है, जो न केवल मानव जाति बल्कि संपूर्ण सृष्टि को विनाश की ओर ले जा सकती है। इसलिए, इन ग्रीनहाउस गैसों को स्थिर करने और कम करने पर सभी देशों के बीच आम सहमति स्थापित की गयी है है।
जलवायु परिवर्तन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मानवीय क्रियाओं के कारण वैश्विक पर्यावरण के घटकों में हुआ एक परिवर्तन है, जो प्राकृतिक जलवायु परिवर्तन से भिन्न है। भौतिक पर्यावरण या जैविक जीवन में हुए परिवर्तन, जिनका प्राकृतिक या मानव निर्मित पारिस्थितिकी तंत्र के घटकों, उनके लचीलेपन, उत्पादकता. सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों या मानव स्वास्थ्य और कल्याण पर प्रतिकूल/हानिकारक प्रभाव पड़ा है, स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे हैं। कुछ स्थानों पर रुक-रुक कर, अप्रत्याशित और असामयिक बारिश, बारह महीने बाढ़, समुद्र के स्तर में अचानक परिवर्तन, जिसके परिणामस्वरूप बाढ़, सुनामी, तूफान, कुछ स्थानों पर लंबे समय तक गरमी और कुछ स्थानों पर लंबे समय तक ठंड, ग्लेशियरों के पिघलने में वृद्धि, संयोग से, हम आज इन प्रभावों का अनुभव कर रहे हैं। .

साहित्य में जलवायु परिवर्तन का प्रतिबिंब

यह स्वाभाविक ही था कि 20वीं सदी के उत्तरार्ध में मानवता को त्रस्त करने वाले जलवायु परिवर्तन के ये मुद्दे लेखकों के ध्यान में आए। विकास की भ्रांतियों और मनुष्य के अव्यवस्थित, कृत्रिम जीवन की ओर लेखकों का  ध्यान आकर्षित होने से बच नहीं सका। भारतीय साहित्य में राजा राव, आर.एस. के.एस. नारायण, कमला मार्कंडेय, भबानी भट्टाचार्य, रस्किन बॉन्ड, अनीता देसाई और अमिताव घोष ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी के मानव विनाश के मार्मिक चित्र चित्रित किए हैं।
कोंकणी में, शणै गोंयबाब (वामन रघुनाथ वर्दे वालवालिकर) के साहित्य में भी मनुष्य और पौधे, मनुष्य और मनुष्य के बीच संबंधों की कलात्मक चिकित्सा देखी जा सकती है। ‘गोमंतोपनिषद’ संग्रह के दूसरे खंड में प्रकाशित उनकी कहानी ‘बाबूमामालो पणस’ (बाबुमामा का कटहल का पेड), मनुष्य और पौधे के बीच संबंधों की एक चिकित्सा और विश्लेषण है। सबसे महत्वपूर्ण बात है उन्होंने किया हुआ कटहल के पेड़ का मानवीकरण। उन्होंने इस प्राचीन भारतीय विचार को रेखांकित किया कि पौधों में भी ‘जीवन’ है ।
यह कटहल का पेड़ लोगों से बात करता है और उनसे बहस करता है। मनुष्य उनके बच्चों (छोटे कटहल) को खाता है। वह न केवल बच्चों के बड़े होने पर उनको खाता है, बल्कि जब वे बहुत छोटे होते हैं, तब भी वह उन्हें मारता है और उनसे तरह-तरह की चीज़ें बनाकर अपनी जीभ का स्वाद संतुष्ट करता है। मनुष्य उनके बच्चों की मृत्यु (वसंत पंचमी) का जश्न मनाते है। यह कहानी हिंसा, पाप और पुण्य, मानव-पौधे के रिश्ते और रिश्तों जैसे कई विषयों से संबंधित है। गोकुलदास प्रभु का लघु उपन्यास ‘पृथिवै नमः’ (केरल कोंकणी अकादमी, 1986) भी मनुष्य और प्रकृति के अंतर्संबंध, उनके साहचर्य और निकटता पर प्रकाश डालता है।
उसके बाद, मनुष्य और पर्यावरण के बीच की बातचीत और प्रत्येक मानव लेनदेन में प्रकृति और पर्यावरण (वायु, पानी, पृथ्वी, आकाश और प्रकाश) के बीच की बातचीत के बारे में सचेत रूप से लिखी गई एक साहित्यिक कृति है “अच्चेव” (पुंडलिक नायक, जाग प्रकाशन, 1977) । उपन्यास बताता है कि औद्योगीकरण के आगमन के बाद यह पारिस्थितिक तंत्र कैसे बदलता और विघटित होता है।
महाबळेश्वर सैल के द्वारा उपन्यास ‘काली गंगा’ भी मानव-पर्यावरण संबंधों का विश्लेषण है। इसके अलावा, दामोदर मावजो, मीना काकोडकर, शीला कोळंबकर, देवीदास कदम, रामनाथ गावड़े, प्रकाश पर्येंकर इ. ने भी कोंकणी में पर्यावरणीय संदर्भ के साथ कथा साहित्य लिखा है। मावजो का उपन्यास “सुनामी साइमन” मानव जीवन पर पर्यावरणीय आपदाओं के प्रभाव को दर्शाता है। इस साहित्य में जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ पर्यावरण और पारिस्थितिक विनाश के कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं।
लेखक को ‘भविष्यदर्शी, भविष्य जानने वाला’ (Omniscient, omnipotent) कहा जाता है । वह सामान्य व्यक्ति की तुलना में मानवीय त्रुटियों और परिणामी पारिस्थितिक और पारिस्थितिकीय विनाश का पहले ही पता लगा लेता है और उस विनाश की भविष्यवाणी भी बहुत पहले कर देता है। इस संबंध में, पुंडलिक नायक की ‘अच्चेव’ उपन्यास को कोंकणी में पहले पारिस्थितिक उपन्यास (Ecological Novel) के रूप में स्थान दिया जा सकता है। यह उपन्यास उदाहरणों के साथ दिखाता है कि कैसे अत्यधिक आधुनिकीकरण और अनियंत्रित औद्योगीकरण पर्यावरण के पांच ‘ज’: जन, जल, जमीन, जंगल और जानवरों के अपरिवर्तनीय विनाश का कारण बनता है।
पर्यावरण का प्रकृति-निर्मित और मानव-निर्मित चक्र (cycle), मानव आशावाद द्वारा कैसे बाधित होता है, इसकी एक भेदक दृष्टि प्रदान करते हुए, यह उपन्यास 1977 में ही उस तस्वीर की भविष्यवाणी करता है जो 20-30 साल बाद उभरी है। इसकी विजय यह है कि यह उपन्यास 1977 की शुरुआत में ही जलवायु परिवर्तन के कई बिंदुओं को छूता है। 1980 के दशक में गोवा में अनियंत्रित खनन के कारण होने वाली पारिस्थितिक तबाही को अच्चेव, होमकांड (आर.के.बर्वे) ऐसे उपन्यासों में दर्शाया गया है। उनके बाद के कुछ लेखन विट्ठल गावस (देउल, कथा), चंद्रकांत गावस (इदवास, कादंबरी) द्वारा मराठी में किए गए हैं।
हालाँकि, खनन के पारिस्थितिक हमले पर, विशेषकर 1990 के दशक के बाद, लंबे समय तक किसी ने नहीं लिखा है। हाल ही में, श्री. गजानन देसाई (ओरबिन) और श्री. विट्ठल गांवकर (खाणमाती)(खनीज की मिट्टी) पर्यावरण, प्रदूषण और जीवन की हानि पर चर्चा करते हैं।
जलवायु परिवर्तन और अन्य एसडीजी के बारे में लिखने के गोवा जैसे वैश्विक पर्यटन स्थलों के लेखकों के लिए कई अवसर हैं। कृषि भूमि का रूपांतरण, अनगिनत होटल और निर्माण, समुद्री जल और जीवन की तबाही, वनों की कटाई, नदी प्रदूषण और प्रवासन (म्हादई नदी की समस्या सहित) जैसे कई ज्वलंत मुद्दे अभी भी साहित्य में परिलक्षित होते हैं। ‘खंदक’ जैसे लेखों द्वारा राजू नाइक ने कुछ मुद्दों पर चर्चा की है।
एस.डी.जी. आंतरिक गरीबी को खत्म करना, भूख को खत्म करना, स्वस्थ जीवन बनाना, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना, लैंगिक समानता स्थापित करना, पानी और स्वच्छता प्रदान करना, ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोत बनाना, आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्थाएं बनाना, आत्मनिर्भर औद्योगीकरण को बढ़ावा देना, मानव समाज में असमानताओं को कम करना, मानव बस्तियां रहने योग्य बनाना, टिकाऊ उपभोग को बढ़ावा देना, जलवायु परिवर्तन का प्रबंधन करना, जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को प्रदूषण से मुक्त करना, पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना, सतत विकास के लिए समुदायों का निर्माण करना और इन सभी के लिए वैश्विक साझेदारी का निर्माण करना, यह उच्च लक्ष्य शामिल हैं।
इनमें से कई विषय आज भी कोंकणी साहित्य में अछूते हैं। जब लेखक को यह एहसास होगा कि पर्यावरणीय कारकों के बारे में हमारा दृष्टिकोण दामोदर मावजो की कहानी के शीर्षक ‘यह बच्चे मेरे हैं’ जैसा होना चाहिए, तभी ऐसा वैश्विक दृष्टिकोनसे संबद्ध साहित्य बनेगा। विकास की गलत नीतियों के कारण आगे क्या हो सकता है इसका पूर्वानुमान पुंडलिक नायक के उपन्यास ‘अच्छेव’ में देखा जा सकता है। जैसा कि इस उपन्यास में अबू कहता है, ‘यह कोई ग्रहण भी नहीं है जिसे साफ किया जा सके।
हर कोई भ्रष्ट है. खाने में भ्रष्ट, पीने में भ्रष्ट, उद्योग में भ्रष्ट। अब किसके बीज किसके खेत में उगेंगे, वह तालाब का भगवान ही जानता है!’ जब कोंकणी लेखकों में ऐसी ‘तालाब के भगवान’ होने और भ्रष्टाचारियों को पहचानने की दृष्टि आ जाएगी, तब हमारा साहित्य विश्व के उच्चतम स्तर पर पहुंच जाएगा।
एम.ए. (मराठी तथा कोंकणी), पीएच.डी. (कोंकणी) ने कोंकणी, मराठी, हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में प्रचुर लेखन किया है। साथ ही सिद्धहस्त अनुवादक भी हैं। उनकी स्वयं की और सहलिखित, संपादित एवं अनुवादित 18 पुस्तकें प्रकाशित हैं। श्री भावे की ‘माटोली’ किताब को 2007 में डॉ.टी.एम.ए.पै फाउंडेशन, मणिपाल द्वारा ‘उत्कृष्ट कोंकणी ग्रंथ पुरस्कार’, कोंकणी भाषा मंडल, गोवा का शिक्षक पुरस्कार (2019) सहित कई सम्मान मिले हैं। वे साहित्य अकादमी, दिल्ली, सी.आर.आर.एल, मैसूर, सहित कई संस्थाओं के सदस्य हैं। संप्रति : विद्या प्रबोधिनी कॉलेज ऑफ कॉमर्स, एजुकेशन, कंप्यूटर एंड मैनेजमेंट, पर्वरी, गोवा के प्राचार्य।

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