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ऐसे शहर तो डूबेंगे ही

ऐसे शहर तो डूबेंगे ही

ऐसे शहर तो डूबेंगे ही

मौसम की बरसात के शुरुआत में ही दरिया बन गए

पंकज चतुर्वेदी

देश के  वे शहर जो कि हमारी प्रगति के प्रतिमान  हुआ करते हैं ,  मौसम की बरसात के शुरुआत में ही दरिया बन गए और जो समाज कुछ दिनों पहले तक नालों में पानी की एक एक बूंद के त्राहि त्राहि कर रहा था , अपने गली-मुहल्लों में  गर्दन तक पानी में डूब गया । कोई भी नाम लें ,  दिल्ली या खुर्जा,  पलवल या चंडीगढ़ , नागपुर या भोपाल, कानपुर या पटना , बंगलोर या  हैदराबाद या चेन्नई , जो चौड़ी सड़कें या फ्लाई ओवर यातायात को फर्राटे से निकालने के लिए बने हैं वहां मीलों तक वाहनों का जाम हो जाता है।

यह रोग अब महानगरों में ही नहीं जिला स्तर के नगरों में भी आम है। चूंकि बरसात के दिन कम हो रहे हैं, सो लोग इसे अस्थाई दिक्कत मान कर बिसरा देते । लेकिन जान लें कि अब हमारा देश भी शहरीकरण की ओर अग्रसर है उसके चलते जल्द ही जलभराव  गंभीर समस्या का रूप ले लेगा ।

पिछले साल बजट सत्र के आखिरी दिनों में  यह बात संसद में स्वीकार की गई थी कि केंद्र सरकार बारिश के पानी की निकासी के लिए शहरों पर बीते 10 वर्षों में 25 हजार करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है। इसके बावजूद हर बारिश के दौरान शहरों में बाढ़ जैसे हालात पैदा हो जाते हैं और पानी उतरने में घंटों लगते हैं।  दुखद तो यह है कि देश वे 100 शहर  जिन्हें स्मार्ट सिटी घोषित कर दिया गया, पहले से अधिक डूब रहे हैं । यदि सरकारी रिकार्ड की माने तो  जुलाई 2024 तक, 100 शहरों ने स्मार्ट सिटी मिशन के हिस्से के रूप में 1,44,237 करोड़ की राशि की 7,188 परियोजनाएं (कुल प्रोजेक्ट का 90 प्रतिशत) पूरी कर ली हैं। 19,926 करोड़ की राशि की शेष 830 परियोजनाएं भी पूरा होने के अंतिम चरण में हैं।

 संसद की आवास और शहरी मामलों पर स्थायी समिति (अध्यक्ष: श्री राजीव रंजन) ने “स्मार्ट शहर मिशन: एक मूल्यांकन” पर अपनी रिपोर्ट 8 फरवरी 2024  को संसद में पेश की थी जिसमें कहा गया था कि समूचे शहर के बनिस्पत शहर के एक छोटे से हिस्से में ही स्मार्ट सिटी परियोजन होने से इसके समग्र परिणाम नहीं दिखे । कचरा प्रबंधन, पीने के पानी की आपूर्ति और यातायात प्रबंधन ऐसी चुनौतियाँ  हैं जिन्हे यदि पूरे शहर में एक समान लागू न किया जाए तो उनका असर दिखने से रहा ।

शहरीकरण आधुनिकता की हकीकत है और पलायन इसका मूल, लेकिन नियोजित शहरीकरण ही विकास का पैमाना है। गांवों का कस्बा बनना, कस्बों का शहर और शहर का महानगर बनने की प्रक्रिया तेज हुई है। विडंबना है कि हर स्तर पर शहरीकरण की एक ही गति-मति रही, पहले आबादी बढ़ी, फिर खेत में अनाधिकृत कालोनी काट कर  या किसी सार्वजनिक पार्क या पहाड़ पर कब्जा कर अधकच्चे, उजड़े से मकान खड़े हुए।

कई दशकों तक ना तो नालियां बनीं या सड़क और धीरे-धीरे इलाका ‘अरबन-स्लम’ में बदल गया। गौर करने लायक बात यह भी है कि साल में ज्यादा से ज्यादा 25 दिन बरसात के कारण बेहाल हो जाने वाले ये शहरी क्षेत्र  पूरे साल में आठ से दस महीने पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसते हैं। राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, पटना का एक शोध बताता कि नदियों के किनारे बसे लगभग सभी शहर अब थोड़ी सी बरसात में ही दम तोड़ देते हैं। दिक्क्त अकेले बाढ़ की ही नहीं है, इन शहरों की दुरमट मिट्टी में पानी सोखने की क्षमता अच्छी नहीं होती है। शहरों में अब गलियों में भी सीमेंट पोत कर आरसीसी सड़कें बनाने का चलन बढ़ गया है और औसतन बीस फीसदी जगह ही कच्ची बची है, सो पानी सोखने की प्रक्रिया नदी-तट के करीब की जमीन में तेजी से होती है।

शहरों में बाढ़ का सबसे बड़ा कारण तो यहां के प्राकृतिक नदी-नालों, तालाब-जोहड़ों  और उन तक पानी लाने वाले  मार्ग पर अवैध कब्जे, भूमिगत सीवरों की ठीक से सफाई ना होना है। लेकिन इससे बड़ा कारण है हर शहर में हर दिन बढ़ते कूड़े का भंडार व उसके निबटान की माकूल व्यवस्था ना होना ।  जाहिर है कि बरसात होने पर यही कूड़ा पानी को नाली तक जाने या फिर सीवर के मुंह को बंद करता है। महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण हैं । जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं ?

एक बात और बंगलूरू या हैदराबाद या दिल्ली में जिन इलाकों में पानी भरता है यदि वहां की कुछ दशक पुरानी जमीनी संरचना का रिकार्ड उठा कर देखें तो पाएंगे कि वहां पर कभी कोई तालाब, जोहड़ या प्राकृतिक नाला था। अब पानी के प्राकृतिक बहाव के स्थान पर सड़क या कोलोनी रोपी गई है तो पानी भी तो धरती पर अपने हक की जमीन चाहता है? ना मिलने पर वह अपने पुराने स्थानों की ओर रूख करता है। मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और सीवर की 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही है। बंगलौर में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है ।

शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्त्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने का करना होगा । यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा । विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं । परिणामतः थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता है ।

शहरीकरण व वहां बाढ़ की दिक्कतों पर विचार करते समय जलवायु परिवर्तन की त्रासदी पर भी गौर करना  होगा। इस बात के लिए हमें तैयार रहना होगा कि वातावरण में बढ़ रहे कार्बन और ग्रीन हाउस गैस प्रभावों के कारण ऋतुओं का चक्र गड़बड़ा रहा है और इसकी  दुखद परिणति है – मौसमों का चरम ।  गरमी में भयंकर गर्मी तो ठंड के दिनों में कभी बेतहाशा जाड़ा तो कभी गरमी का अहसास, बरसात में कभी सुखाड़ तो कभी अचानक  आठ से दस सेमी पानी बरस जाना।

महानगरों में बाढ़ का मतलब है परिवहन और लोगों का आवागमन ठप होना। इस जाम से  ईंधन की बर्बादी, प्रदूशण स्तर में वृद्धि और मानवीय स्वभाव में उग्रता जैसे कई दीर्घगामी दुश्परिणाम होते हैं। इसका स्थाई निदान तलाशने के विपरीत जब कहीं शहरों में बाढ़ आती है तो सरकार का पहला और अंतिम कदम राहत कार्य लगाना होता है, जोकि तात्कालिक सहानुभूतिदायक तो होता है, लेकिन बाढ़ के कारणों पर स्थाई रूप से रोक लगाने में अक्षम होता है । जल भराव और बाढ़ मानवजन्य समस्याएं हैं और इसका निदान दूरगामी योजनाओं से संभव है ; यह बात शहरी नियोजनकर्ताओं को भलींभांति जान लेना चाहिए और इसी सिद्धांत पर भविष्य की योजनाएं बनाना चाहिए ।

शहर को डूबने से बचाना है तो कूड़ा कम करने, पॉलीथिन पर पाबंदी, सीवरों की ईमानदारी से नियमित सफाई जरूरी है। शहरों में अधिक से अधिक खाली जगह यानि कच्ची जमीन हो, ढेर सारे  पेड़ हों। जलभराव वाली जगहों भूजल रिचार्ज के प्रयास हों। प्राकृतिक जलाशयों, नदियों  को उनके मूल स्वरूप में रखने तथा उसके जलग्रहण क्षेत्र को किसी भी किस्म में निर्माण ना हों।

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