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परम्परा के नाम पर जीवन से खिलवाड़ क्यों ?

रोहित कौशिक

दीपावली के दौरान होने वाले वायु प्रदूषण से वातावरण में हानिकारक गैसों एवं तत्वों की मात्रा आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाती है। दीपावली के कई दिनों बाद तक भी वातावरण में इन हानिकारक गैसों एवं तत्वों का अस्तित्व बना रहता है।

    हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दीपावली पर दिल्ली-एनसीआर में ज्यादा प्रदूषण को लेकर चिंता जताई। अदालती आदेशों के उल्लंघन का संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पटाखों पर प्रतिबंध से जुड़े उसके निर्देर्शों पर शायद ही अमल हुआ। शीर्ष अदालत ने दिल्ली सरकार और पुलिस आयुक्त को यह बताने के लिए कहा कि दिल्ली में पटाखों के निर्माण, बिक्री और उन्हें फोड़ने पर पूर्ण प्रतिबंध संबंधी आदेशों को लागू करने के लिए क्या कदम उठाए गए और उल्लंघनकर्ताओं के खिलाफ क्या कार्रवाई की गई। सुप्रीम कार्ट ने अखबारों में प्रकाशित उन खबरों का हवाल दिया, जिसमें पटाखों पर प्रतिबंध से जुड़े अदालती आदेशों के उल्लंघन का जिक्र किया गया है।

  पटाखों पर नियंत्रण के संदर्भ में कोर्ट, शासन और प्रशासन के फैसलों पर अक्सर अनेक लोग आपत्ति जताते रहते हैं। ऐसे लोग त्योहार पर पटाखों को नियंत्रित करने के फैसले को खोखला आदर्शवाद मानते हैं। ऐसे लोगों का मानना होता है कि दीवावली पर एक-दो दिन पटाखों का इस्तेमाल करने से कौन सी बड़ी आफत आ जाएगी। ये लोग पटाखों पर नियंत्रण के प्रयासों को हिन्दू धर्म पर कुठाराघात और हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के रूप में देखते हैं। सवाल यह है कि क्या खुशी पटाखों के द्वारा ही प्रदर्शित की जा सकती है ? दरअसल दीपावली के दौरान पटाखों के प्रदूषण से दमा और ब्रोंकाइटिस से पीड़ित मरीजों की हालत बहुत खराब हो जाती है। जो लोग दीपावली पर पटाखों को रोकने के प्रयासों पर अपना विरोध जताते हैं, उन्हें दीपावली के दौरान सांस के मरीजों की हालत देखनी चाहिए। तर्कसंगत तो यह है कि हम सभी ऐसे विषयों को समुदाय और धर्म की राजनीति में न फंसा कर सभी के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर अपना व्यवहार करें। दरअसल वायु प्रदूषण बढ़ने से सांस के रोगियों की समस्या बढ़ जाती है और स्वस्थ व्यक्ति को भी सांस सम्बन्धी बीमारियां होने की संभावना बढ़ जाती है।

     इस साल दीपावली से पहले देश के विभिन्न हिस्सों में पटाखा फैक्ट्रियों में हुई अलग-अलग दुर्घटनाओं में अनेक लोग मारे गए। ये तो प्रकाश र्में आइं कुछ बड़ी दुर्घटनाओं की तस्वीर भर है। इसके अलावा दीपावली से पहले पटाखा फैक्ट्रियों में ऐसी छुटपुट दुर्घटनाएं भी हुई होंगी जिनमें लोग मारे गए या फिर घायल हुए और वे प्रकाश में नहीं आ पाईं। हर साल दीपावली के दौरान पटाखों से घायल होने या फिर मौत होने की खबरें भी अक्सर प्रकाश में आती ही रहती हैं। इस तरह की दुर्घटनाओं से पीड़ित परिवारों के लिए दीपावली खुशी की बजाय दुख का कारण बन जाती है। यह तो तस्वीर का एक पहलू है। दूसरी तरफ दीपावली के दौरान पटाखों से होने वाले वायु एवं ध्वनि प्रदूषण से सांस के मरीजों एवं हृदय रोगियों को भारी परेशानी उठानी पड़ती है और इन लोगो के लिए दीपावली प्रकाश की जगह अंधेरे का त्योहार बन जाता है।

     दरअसल कोई भी त्योहार जहां एक ओर हमारी आस्था से जुड़ा होता है वहीं दूसरी ओर ईश्वर और प्रकृति में हमारे विश्वास को और अधिक पुष्ट भी करता है। हमारे शास्त्रों मे भी कहा गया है कि ईश्वर पृथ्वी, जल, वायु और प्रकृति के कण-कण में विराजमान है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि एक तरफ तो हम त्योहार मनाकर ईश्वर में अपना विश्वास प्रकट करते हैं वहीं दूसरी ओर प्रकृति विरोधी क्रियाकलापों से प्रकृति के प्रति अपनी ही आस्था पर चोट भी करते हैं। अगर त्योहार मनाने का तरीका प्रकृति संरक्षण में अवरोधक है तो उस पर पुनर्विचार किया जाना आवश्यक है। यह विडम्बनापूर्ण ही है कि हमारे देश में जब भी परम्परा से हटकर कुछ सकारात्मक सोचा या किया जाता है तो बिना किसी ठोस तथ्य के कट्टरपंथियों का विरोध झेलना पड़ता है। लेकिन इस बदलते समय में जबकि प्रकृति का दोहन निरन्तर बढ़ता जा रहा है, प्रकृति को मात्र परम्परावादियों के भरोसे छोड़ना सबसे बडी बेवकूफी होगी। इसलिए अब समय आ गया है कि हम अपने और प्रकृति के अस्तित्व के लिए दीपावली मनाने के ढंग पर पुनर्विचार करें। गौरतलब है कि कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने वायु प्रदूषण रोकने के लिए सरकार को कुछ सुझाव दिए थे। इसके कुछ समय बाद सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि इस सम्बन्ध में दिए गए निर्देशों के अनुसार सरकार ने काम क्यों नहीं किया ? दरअसल वायु प्रदूषण बढ़ने पर सरकारें जरूर सक्रिय होती हैं लेकिन जैसे ही प्रदूषण कम होता है, सरकारें पुनः सो जाती हैं। जबकि वायु प्रदूषण कम करने वाले उपायों पर पूरे साल सक्रियता के साथ काम होते रहना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि कोई भी तकनीक प्रदूषण को कम करने में सहायता तो कर सकती है लेकिन इसे पूरी तरह से खत्म नहीं कर सकती।

     दीपावली के दौरान होने वाले वायु प्रदूषण से वातावरण में हानिकारक गैसों एवं तत्वों की मात्रा आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाती है। दीपावली के कई दिनों बाद तक भी वातावरण में इन हानिकारक गैसों एवं तत्वों का अस्तित्व बना रहता है। पटाखों के जलने पर वातावरण में सल्फरडाई आक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है। सल्फरडाई आक्साइड की अधिकता आंखों में जलन, सिरदर्द, श्वसन सम्बन्धी रोग, कैंसर और हृदय रोग उत्पन्न करती है। दीपावली के दौरान वातावरण में सस्पैंडिड परटिकुलेट मैटर (एसपीएम) तथा रेस्पाइरेबल परटिकुलेट मैटर (आरपीएम) की मात्रा बढ़ने से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। एसपीएम से दमा, कैंसर, फेफडों के रोग तथा आरपीएम से श्वसन सम्बन्धी रोग एवं हृदय रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। इस दौरान वातावरण में नाइट्रोजन डाई आक्साइड की मात्रा आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाती है। नाइट्रोजन डाईआक्साइड की अधिकता से फेफडों के रोग, छाती में जकड़न एवं विषाणु संक्रमण होने का खतरा बना रहता है।

     दूसरी तरफ पटाखों में कैडमियम, लैड, कापर, जिंक, आर्सेनिक, मरकरी एवं क्रोमियम जैसी अनेक जहरीली धातुएं भी पाई जाती हैं। ये सभी जहरीली धातुएं भी पर्यावरण पर बहुत बुरे प्रभाव डालती हैं। कापर श्वसन तन्त्र को प्रभावित करता है। कैडमियम गुर्दो को नुकसान पहुंचाता है तो लैड तंत्रिका तन्त्र को प्रभावित करता है। जिंक से उल्टी के लक्षण प्रकट होने लगते हैं जबकि आर्सेनिक एवं मरकरी कैंसर जैसे रोग उत्पन्न करते हैं। इसके अतिरिक्त पटाखा उद्योग में प्रयोग किया जाने वाला गन पाउडर भी हानिकारक होता है। इस उद्योग में कार्य करने वाले बच्चों पर इसके हानिकारक प्रभाव देखे गए हैं। पटाखे छुड़ाते समय आग लगने की घटनाओं से भी जान-माल का नुकसान होता है। दीपावली के दौरान होने वाले ध्वनि प्रदूषण से जहां एक ओर मानव शरीर में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं वही दूसरी ओर पशु-पक्षियों पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है। ध्वनि प्रदूषण से उच्च रक्तचाप, बहरापन, हृदयघात, नींद में कमी जैसी बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं। कुल मिलाकर दीपावली के दौरान होने वाले प्रदूषण से पर्यावरण का हर अवयव प्रभावित होता है।  सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों के कारण हुए प्रदूषण का संज्ञान लेकर और इस संबंध में दिल्ली सरकार से जवाब मांगकर उचित कदम उठाया है। लेकिन सवाल यह है कि हम ऐसे मुद्दों पर कब तक कोर्ट के भरोसे बैठे रहेंगे ? परम्परा के नाम अपने और पूरे समाज के जीवन को खतरे में नहीं डाला जा सकता। यह हम सभी को समझना होगा।

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