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मानसून में मन के आंसू

फोटो - गूगल

मानसून में मन के आंसू

क्या है तापमान बढ़ने की वजह?

हर साल इस समय पीली पड़ी और जली-भुनी पृथ्वी को मानसून की बूंदें ही हरा-भरा और खुशनुमा करती हैं। क्योंकि, पृथ्वी के वाष्पीकरण की बौछारों से पृथ्वी का जीवंतकरण होता है। तपती पृथ्वी को मानसून से ही निजात मिलती है। आज दुनिया भर में चिंता है कि पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है। और पृथ्वी का तापमान बढ़ने से जीवन के ही अस्तव्यस्त होने की आशंका भी लगायी जा रही है। इसलिए, मानसून में मन की बात भी साफ-साफ होनी चाहिए। समाज को संपोषणीय, सस्टेनेबल व टिकाऊ जीवनशैली के लिए जागना होगा। क्योंकि, प्रकृति तो परिवर्तनशील ही रही है, मगर क्या समाज में इसको झेल पाने की क्षमता है?  

परिवर्तन ही जीवमंत्र

बेशक है। अगर हजारों-लाखों वर्षों से जीव जीवनयापन करते आए है तो परिवर्तन ही जीवमंत्र रहा है। लेकिन समाज की समझ समय पर बननी-बदलनी भी चाहिए। पर्यावरण प्रेमी अनुपम मिश्र ने बरसों पहले आगाह किया था। बाड़ हो, अकाल हो या सूखा, ये बेवजह अकेले नहीं आते हैं। इनसे पहले समाज में अच्छे विचार और अच्छे काम का अकाल आता है। समाज में अच्छे विचार और अच्छे काम के अकाल और सूखे ने ही पृथ्वी के तापमान को बढ़ाया है। संपन्नता की स्वार्थ बाढ़ के कारण समाज के अच्छे विचार और अच्छे काम तिलांजित कर दिए गए है। 

पर्यावरण संरक्षण

जुमले से विनाश का खेल

पर्यावरण संरक्षण की बातें-बहस होती है और पहाड़ खोदने से लेकर पेड़ काटना जारी रहता हैं। तीर्थ के नाम पर छुट्टियां भर मनायी जाती हैं। नदियां सहेजने के नाम पर बांध बनाए जाते हैं। सड़क बनाने के नाम पर पेड़ काटे जाते हैं। और स्वच्छता के नाम पर कचरा जलाशयों में भरा-बहाया जाता है या फिर कचरे के पहाड़ खड़े कर दिए जाते हैं। नदियों पर बांध बना कर हर घर, नल से जल पहुंचाने की मुहिम चल रही है। वहीं सत्ता के साथ समाज ने भी अपने जल संसाधन के कुएं, तालाब व बावड़ी सूखने दिए हैं। यह सब बिना विचार के विकास के नाम पर हो रहा है। यानी विकास के जुमले से विनाश का खेल चल रहा है। समाज भी अगर खुद की सेवा सत्ता के भरोसे छोड़ता है तो पृथ्वी पर जीवन दूभर ही होने वाला है।

देहरादून

विकास के नाम पर बेपरवाही

पिछले दिनों अपन भी छुट्टी मनाने देहरादून गए। पहाड़ के ही रहने वाले बचपन के मित्र दंपत्ति विराज और नीरा बिष्ट का देहरादून के जंगल के पास धौलास गांव के घर का बुलावा था। पेड़ पर लदी और घोर गर्मी से रसीली-मिठ्ठी हुई लीची का वायदा था। देहरादून की पहाड़ी तक तो ठीक-ठाक पहुंच गए।

उन्हीं पहाड़ियों से मानसून में बहने वाली नदी पर चलता “विकास” देख कर दहशत दौड़ गयी। गर्मी के ताप से सूखी उस नदी के तल पर कारें दौड़ रहीं थी। गाड़ी वालों की यह असभ्य हिम्मत इसलिए हुई क्योंकि उस मानसूनी नदी के ऊपर विकास का नेशनल हाईवे बन रहा है। यानी नदी में वर्षा का जल चले या न चले लेकिन संभ्रांतता के नाम पर गाड़ियां जरूर चलेंगी। देखने पर दिखा कि देहरादून के नदी, झरने व अन्य जल संसाधनों की विकास के नाम पर बेपरवाही हुई है। नैतिकता बिना नीतियां बनें तो भाव बिना भोग ही बढ़ेगा।

विकास की कीमत कौन चुकाएगा?

फिर खबर आई की उत्तराखंड के मुख्यमंत्री धामी का प्रधानमंत्री मोदी को अनुरोध था कि राज्य की भौगोलिक जमीन समझ कर ही केन्द्र विकास कार्य करे। सड़क की जमीन के बदले दोगुनी जमीन पर पेड़ लगाने का कानून तो है लेकिन उसको वन विभाग से ज्यादा राजस्व विभाग देखता है। कारण था नागरिकों के लगातार पेड़ काटे जाने पर विरोध। एक घंटे में एक किलोमीटर सड़क बनाने का दावा करने वाले किस मुंह से पेड़ लगाने की बात कर सकते हैं? क्या विनाश की रफ्तार का कोई मेल विकास की रफ्तार से किया जा सकता है? ऐसे विकास की कीमत कौन चुकाएगा?

महात्मा गांधी

समझने के लिए महात्मा गांधी के कहे की याद पर ही लौटते हैं। ‘दुनिया में सभी की जरूरत के लिए पर्याप्त है, मगर बेहद कम है एक के भी लालच के लिए।‘ क्या जल बिना जीवन संभव है? क्या जंगल बिना मंगल संभव है? और क्या समाज की संपन्नता के बिना व्यक्ति की संपन्नता संभव है? सत्ता को समाज के आंसू दिखते भी हैं या नहीं? समाज को अपने आंसू पोछना सीखना होगा।

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