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स्वस्थ ओजोन परत ही हमारी स्वस्थता का आधार

स्वस्थ ओजोन परत दिवस

स्वस्थ ओजोन परत दिवस

रोहित कौशिक

16 सितम्बर, विश्व ओजोन दिवस

आज विश्व ओजोन दिवस है। यह दिन हमें पर्यावरण से जुडे विभिन्न मुददों पर बहुत कुछ सोचने के लिए प्रेरित करता है। दरअसल ओजोन परत की स्थिति में उतार-चढ़ाव होता रहता है। समय-समय पर ओजोन परत को लेकर विभिन्न अध्ययन सामने आते रहते हैं। कभी-कभी इन अध्ययनों में विरोधाभासी बातें भी सामने आती हैं। यानी कभी ओजोन परत की स्थिति में सुधार का शोध प्रकाशित होता है तो कभी ओजोन परत की स्थिति बदतर होने का शोध प्रकाशित होता है। ऐसी विरोधाभासी शोध हमें भ्रमित करते हैं। दरअसल यह एक जटिल मामला है, इसलिए ओजोन परत से सम्बन्धित शोधों में अलग-अलग बातें सामने आती हैं। भिन्न-भिन्न जगहों पर ओजोन परत की स्थिति भिन्न-भिन्न हो सकती है। मूल बात यह है कि आज जिस तरह से पर्यावरण को हानि पहुंचायी जा रही है, वह ओजोन परत के लिए शुभ नहीं है। पर्यावरण के अनुकूल जीवनशैली अपनाकर ही हम ओजोन परत को बचा सकते हैं।

     कुछ समय पूर्व ओजोन परत पर काम करने वाले कोलोरेडो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने उपग्रहों के जरिए किए गए अध्ययन मेें पाया था कि कुछ जगहों पर पिछले दस साल के दौरान ओजोन के स्तर में स्थिरता बनी रही है या फिर इसमें मामूली बढोतरी हुई है। सम्पूर्ण विश्व में ओजोन परत पर हुए अन्य शोधों के द्वारा भी यह बात सामने आई कि 1997 के आस-पास ओजोन क्षय की दर कम हो गई थी। वैज्ञानिकों ने इस सम्बन्ध में 25 साल के आंकडों का अध्ययन किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि लगातार खराब होती जा रही ओजोन परत की स्थिति कुछ जगहों पर अब बेहतर है। वैज्ञानिकों का मानना है कि कुछ जगहों पर ओजोन परत की स्थिति में सुधार 1987 की अन्तर्राष्ट्रीय मांट्रियल संधि के कारण ही संभव हुआ है। मांट्रियल संधि का उददेश्य ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाली गैसों एवं तत्वों के उत्सर्जन पर रोक लगाना था। लेकिन इसके बाद कुछ जगहों से ओजोन परत की खराब हालत की खबरें भी आईं।

     वैज्ञानिकों ने सत्तर के दशक में यह खोजा था कि ओजोन परत पतली हो रही है। 1980 के आस-पास यह बहुत स्पष्ट हो गया था कि ओजोन परत का तेजी से क्षरण हो रहा है। इसके लिए विभिन्न मानवनिर्मित कारक जिम्मेदार थे। विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों के द्वारा यह बात सामने आई कि क्लोरो फ्लोरो कार्बन नामक गैस ओजोन परत को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा रही है। यह गैस मुख्यतः वातानुकूलन एवं प्रशीतन (रेफ्रिजिरेशन) में काम आती है। इसके अतिरिक्त वातावरण में ऊंचाई पर उड़ने वाले जेट विमान भी क्लोरो फ्लोरो कार्बन छोड़ते हैं। इस गैस के द्वारा ओजोन परत को हानि पहुंचते देख वैज्ञानिक जगत चिन्तित था। इसलिए इस तरह की गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए 1987 में अन्तर्राष्ट्रीय मांट्रियल संधि को लागू किया गया। वैज्ञानिकों का मानना है कि कुछ जगहों पर ओजोन परत की सुधरती स्थिति इसी मांट्रियल संधि का नतीजा है। दरअसल कुछ समय पूर्व जारी ओजोन परत की सुधरती स्थिति से सम्बन्धित रिपोर्ट के कारण कोई भ्रम पाल लेना तर्कसंगत नहीं होगा। अनेक जगहों पर ओजोन परत की हालत बहुत अच्छी नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि मात्र क्लोरो फ्लोरो कार्बन ही ओजोन परत को नुकसान नहीं पहुंचाती है बल्कि कुछ अन्य कारक भी ओजोन परत के क्षरण के लिए जिम्मेदार होते हैं। सूर्य कंलक(सन स्पोट) ,ज्वालामुखी तथा मौसम जैसे कारक ओजोन परत का स्वरूप निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। सन-स्पोट के माध्यम से पराबैंगनी किरणें ओजोन परत को मजबूत बनाती हैं जबकि ज्वालामुखी से निकलने वाली सलफ्यूरस गैसें ओजोन परत को कमजोर करती हैं। इसके अतिरिक्त वातावरण में स्थित ठंडी हवा ऊंचाई तथा अक्षांश के आधार पर ओजोन परत को मजबूत या फिर कमजोर कर सकती है। बहरहाल यह सही है कि कुछ जगहों पर ओजोन परत की स्थिति सुधारने में बहुत से कारक जिम्मेदार हो सकते हैं। लेकिन नासा तथा कुछ विश्वविद्यालयों का मानना है कि आज कुछ जगहों पर ओजोन परत की बेहतर स्थिति के लिए क्लोरो फ्लोरो कार्बन के उत्सर्जन में कमी ही मुख्य रूप से जिम्मेदार है।

     ओजोन वातावरण के स्ट्रेटोस्फीयर भाग में धरती की सतह से ऊपर 15 किमी से लेकर लगभग 40 किमी तक की ऊंचाई में पाई जाती है। धरती पर जीवन के लिए वातावरण में ओजोन की उपस्थिति जरूरी है। यह सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को सोखकर ऐसे विभिन्न रासायनिक तत्वों को बचाती है जो कि जीवन के लिए बहुत ही आवश्यक होते हैं। जब वातावरण में आक्सीजन ,पराबैंगनी किरणों को सोखती हैं तो रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा ओजोन का निर्माण होता है। ओजोन परत के क्षरण से सूर्य से निकलने वाली हानिकारक पराबैंगनी किरणें धरती पर पहुंचकर मनुष्यों ,जानवरों ,पेड़-पौधों तथा अन्य बहुत सारी चीजों को नुकसान पहुंचाती हैं। पराबैंगनी किरणों से त्वचा कैंसर ,फेफडों का कैंसर ,शरीर की प्रतिरक्षक प्रणाली का कमजोर होना ,आंखों के रोग ,डीएनए का टूटना तथा सन बर्न जैसे रोग हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त ये किरणंें पेंट ,प्लास्टिक तथा सीमेंट जैसी चीजों के लिए भी हानिकारक सिद्ध होती हैं। सर्वप्रथम स्वीडन ने 23 जनवरी 1978 को क्लोरो फ्लोरो कार्बन वाले ऐरोसोल स्प्रे को प्रतिबन्धित किया था। इसके बाद कुछ अन्य देशों जैसे अमेरिका ,केनाडा तथा नार्वे ने भी यही कदम उठाए। लेकिन यूरोपियन समुदाय ने इस तरह के प्रस्ताव को खारिज कर दिया। यहां तक कि अमेरिका में भी प्रतिशीलन(रेफ्रीजेरेशन) जैसे उद्देश्यों के लिए क्लोरो फ्लोरो कार्बन का उपयोग होता रहा। मांट्रियल संधि के बाद ही सभी देशों ने क्लोरो फ्लोरो कार्बन के उत्सर्जन को कम करने के लिए गंभीरता से सोचा।

     वातावरण में सभी जगह ओजोन की सान्द्रता बराबर नहीं रहती है। उष्णकटिबन्धी क्षेत्रों में ओजोन की सान्द्रता अधिक होती है जबकि ध्रुवीय क्षेत्रों में इसकी सान्द्रता कम होती है। वातावरण में ओजोन फोटो केमिकल प्रक्रिया के द्वारा लगातार बनती तथा नष्ट होती रहती है और इस तरह से इसका संतुलन बना रहता है। लेकिन मानवनिर्मित प्रदूषण के द्वारा वातावरण में ओाजोन का सन्तुलन गड़बड़ा जाता है और यह बहुत सारी समस्याएं पैदा करता है। यह माना जाता है कि वातावरण में ओजोन की हर एक प्रतिशत कमी पर विभिन्न रोग बढ़ने की संभावना दो प्रतिशत अधिक हो जाती है। ज्यादातर विकसित देश ही ओजोन को नुकसान पहुंचाने वाले तत्वों का उत्सर्जन अधिक करते हैं। यह विडम्बना ही है कि एक ओर तो विकसित देश स्वयं ज्यादा प्रदूषण फैला रहे हैं वहीं दूसरी ओर विकासशील देशों को प्रदूषण न फैलाने का भाषण दे रहे हैं। इसी खोखले आदर्शवाद के कारण आज वातावरण को गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है। अब समय आ गया है कि विश्व के सभी देश खोखले आदर्शवाद की परिधि से बाहर निकलकर वातावरण को बचाने का सामूहिक प्रयास करें।

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