सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवहार में परिवर्तन कैसे लायें?
भारत की सर्कुलर अर्थव्यवस्था सिर्फ तकनीक और नीति पर निर्भर नहीं रह सकती. इसके लिए सामाजिक व्यवहार में बड़े पैमाने पर बदलाव और कचरे से जुड़े सामाजिक मानदंडों को बदलना होगा.
भारत में कचरा प्रबंधन के काम में एक दिलचस्प विरोधाभास दिखता है. भारत में चीजों और वस्तुओं के दोबारा इस्तेमाल, उनकी मरम्मत और रिसाइक्लिंग की जड़ें काफ़ी गहरी हैं. कबाड़ीवाला प्रणाली देश में सब जगह दिख जाती है. इसके अलावा हमारे यहां सांस्कृतिक तौर पर भी मितव्ययिता यानी कम खर्च करने की प्रवृति रही है, लेकिन लोगों में एक खराब आदत भी है. उन्हें लगता है, जो चीज ‘नज़र से दूर हो गई और मन से भी दूर है’
इस मानसिकता की वजह से लोग ये मानते हैं कि कचरे का प्रबंधन किसी और की जिम्मेदारी है. इसी मानसिकता की वजह से सार्वजनिक स्थानों पर बेतरतीब तरीके से कचरा फेंकने, अलग-अलग कूड़ेदान होने के बावजूद गीले और सूखे कचरे को एक ही जगह फेंकने, एक ही बार इस्तेमाल हो सकने वाले पॉलिथीन और बर्तनों का ज़्यादा इस्तेमाल करने लगते हैं. इस सबका आखिरी नतीजा ये होता है कि आखिर में इस तरह की चीजें रास्ते में फेंक दी जाती हैं.
आधुनिक शहरीकरण और बढ़ी हुई खपत ने कचरे को लेकर नई चुनौतियों को जन्म दिया है. 2021 में नीति आयोग द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि भारत एक शहरी कचरा प्रबंधन संकट का सामना कर रहा है. उस वक्त शहरों में सालाना करीब 62 मिलियन टन कचरा पैदा हो रहा था, जो 2030 तक 165 मिलियन टन तक पहुंचने का अनुमान है.
जिन शहरों में कचरा-प्रसंस्करण यानी वेस्ट प्रोसेसिंग का बुनियादी ढांचा होता है, वो शहर अक्सर कचरे के वर्गीकरण की समस्या से जूझते हैं, वहीं जिन समुदायों में अच्छा सामाजिक सहयोग होता है, वो न्यूनतम औपचारिक प्रणालियों के बावजूद शानदार परिणाम हासिल करते हैं
ये विरोधाभास एक महत्वपूर्ण वास्तविकता को सामने रखता है. एक सफल सर्कुलर अर्थव्यवस्था बनाने के लिए, लोगों को अलग तरीके से सोचने और खुद को बदलने की इच्छा सीखनी होगी. सर्कुलर इकोनॉमी एक ऐसी व्यवस्था को कहा जाता है, जिसमें वस्तुओं का दोबारा इस्तेमाल हो, चीजों या उत्पादों को फिर से उत्पन्न किया जाए
ये एक सतत प्रक्रिया और पर्यावरण के लिहाज से फायदेमंद प्रणाली होती है. वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट और उससे जुड़ी नीतियों को कचरा प्रबंधन की रीढ़ माना जाता है, लेकिन हकीक़त ये है कि जब तक लोग अपनी रोज़मर्रा की आदतें और सामाजिक व्यवहार नहीं बदलते, तब तक ये सारा सिस्टम व्यर्थ है.
सर्कुलर इकोनॉमी एक ऐसी व्यवस्था को कहा जाता है, जिसमें वस्तुओं का दोबारा इस्तेमाल हो, चीजों या उत्पादों को फिर से उत्पन्न किया जाए. ये एक सतत प्रक्रिया और पर्यावरण के लिहाज से फायदेमंद प्रणाली होती है.
बुनियादी ढांचा-व्यवहार में अंतर: जब सिस्टम और नागरिक के बीच तालमेल नहीं होती
भारतीय शहरों में कचरा प्रबंधन की आधारभूत संरचना और उसे वास्तविक व्यवहार में अपनाने के बीच एक अंतर मौजूद है. भारत हर साल करीब 62 मिलियन टन ठोस कचरा उत्पन्न करता है. नगरपालिकाएं इसमें से सिर्फ 70 प्रतिशत कचरे को इकट्ठा कर पाती हैं. इससे भी कम कचरे को सही तरीके से प्रोसेस किया जाता है. इसकी वजह है कि जो लोग कचरा पैदा करते हैं, वो नियमों का सही तरीके से पालन नहीं करते हैं. 2025 तक, दिल्ली हर रोज़ 11,000 टन से ज़्यादा कचरा पैदा करती है, जबकि मुंबई में लगभग 7,000 टन उत्पन्न होता है. कचरे की ये मात्रा वेस्ट मैनेजमेंट की मौजूदा क्षमता से ज़्यादा है. (स्रोत)
सर्कुलर अर्थव्यवस्था की सफलता हर चरण में आम लोगों के व्यवहार पर निर्भर करती है. कचरे को अलग-अलग करना एक बड़ा चुनौती है. 75-80 प्रतिशत कचरा ही इकट्ठा किया जाता है और इसमें से भी सिर्फ 30 प्रतिशत से कम की प्रोसेसिंग या रिसाइक्लिंग की जाती है
बुनियादी ढांचे और रोज़मर्रा की प्रथाओं के बीच का ये अंतर महंगी सामग्री को फिर से हासिल करने की सुविधाओं को अप्रभावी बनाता है. ये शहरों को लैंडफिल साइट्स यानी कचरा फेंकने की आधिकारिक जगह पर निर्भर होने के लिए मजबूर करता है. इससे सर्कुलर अर्थव्यवस्था के सिद्धांत नाकाम हो जाते हैं.
पुणे और चेन्नई जैसे शहरों ने वेस्ट प्रोसेसिंग और इससे इकट्ठा करने की सुविधाओं में बड़े पैमाने पर निवेश किया है. हालांकि, वो भी घरेलू कचरे के वर्गीकरण जैसी बुनियादी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. सैन फ्रांसिस्को और कोपेनहेगन जैसे शहरों का उदाहरण ये बताता है कि कचरा प्रबंधन के लिए आम लोगों की सक्रिय भागीदारी की संस्कृति का निर्माण करना महत्वपूर्ण है. ये दिखाता है कि सबसे उन्नत सर्कुलर बुनियादी ढांचा भी लोगों के व्यवहार में बदलाव पर निर्भर करता है.
ठोस कामों को बढ़ावा, सामाजिक मानकों में बदलाव और सांस्कृतिक आयाम
व्यवहारिक विज्ञान शहरों में लोगों की आदत में बदलाव को प्रेरित करने के लिए तीन तंत्रों की पहचान करता है: हल्का-फुल्का प्रेरित करना, व्यवहार में बदलाव को बढ़ावा देना, और सामाजिक मानदंड.
इसमें पहला तरीका पारंपरिक रूप से बदलाव को बढ़ावा देना है. इसमें बिना किसी दबाव के लोगों को आदतें बदलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. उदाहरण के लिए, सार्वजनिक जगहों पर कूड़ेदान उपलब्ध कराना या कचरे को अलग करने के लिए मोबाइल फोन से रिमाइंडर भेजना. हालांकि, कम समय के लिए ये तरीके अच्छी तरह से काम करते हैं, लेकिन शोध से पता चलता है कि समय के साथ इनकी उनकी प्रभावशीलता कम हो जाती है और आखिरकार स्थायी व्यवहार परिवर्तन को प्रेरित करने में विफल हो जाते हैं.
इसलिए, लोगों की समझ और व्यवहारिक क्षमताओं का निर्माण करने, उन्हें कौशल, ज्ञान और आत्मविश्वास से भरने की ज़रूरत है. ऐसा होने पर ही वो लंबे समय तक नियमों का पालन करने की आदत डालेंगे और उनके व्यवहार में स्थायी बदलाव आएगा. उदाहरण के लिए, जब लोग ये समझ जाते हैं कि किन चीजों की रिसाइक्लिंग की जाती है और उससे उनके कितने पैसे बचेंगे तो इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि वो समय के साथ खुद ही कचरे का वर्गीकरण करने लगेंगे.
अभी भारत में कचरे के सही इस्तेमाल की संस्कृति नहीं है. लोग कचरा प्रबंधन से बचना चाहते हैं. इसकी बजाए कचरे को लेकर एक स्वस्थ धारणा और उसके मूल्य के बारे में जागरूकता की ज़रूरत है.
अगर भारत को सर्कुलर इकोनॉमी की दिशा में ले जाना है तो समय के साथ बदलाव को बनाए रखने के लिए सामाजिक मानदंडों में मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है. अभी भारत में कचरे के सही इस्तेमाल की संस्कृति नहीं है. लोग कचरा प्रबंधन से बचना चाहते हैं. इसकी बजाए कचरे को लेकर एक स्वस्थ धारणा और उसके मूल्य के बारे में जागरूकता की ज़रूरत है. ये गहरे सांस्कृतिक बदलाव कचरे को लेकर व्यापक दृष्टिकोण अपनाने और दीर्घकालिक स्थिरता के लिए आधार को ठोस बनाते हैं.
ये लक्ष्य हासिल करने के लिए सभी तीन पहलुओं की रणनीतिक तैनाती की आवश्यकता है: प्रोत्साहन, सतत विकास की प्रथाओं को बढ़ावा, पैमाने और वैधता के लिए सामाजिक मानदंड.
देश में समृद्ध सांस्कृतिक परंपराएं हैं जो स्वाभाविक रूप से इन सिद्धांतों से जुड़ी हुई हैं. उदाहरण के लिए, पारंपरिक कबाड़ीवाला प्रणाली दुनिया के सबसे प्रभावी अनौपचारिक रिसाइक्लिंग नेटवर्क में से एक का प्रतिनिधित्व करती है. 15 लाख से ज़्यादा कचरा बीनने वाले करीब 20 प्रतिशत रिसाइक्लिंग के लायक सामग्री को कचरे से अलग कर लेते हैं. ये प्रणाली हर साल लैंडफिल साइट्स से कई टन कचरे को हटाती है.
इसके अलावा, सामान की मरम्मत और दोबारा इस्तेमाल की विशुद्ध भारतीय संस्कृति कई समुदायों में मज़बूत बनी हुई है. ये एक ऐसी सोच है, जिसे कई विकसित देश अपने यहां लागू करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. आप-पड़ोस में छोटे व्यवसाय में लगे लोग घरेलू उपकरणों से लेकर कपड़े, जूते और मोबाइल फोन तक कई तरह के सामान की मरम्मत करना जारी रखते हैं. ये मितव्ययिता और संसाधन संरक्षण की गहरी जड़ें जमाए रखने की संस्कृति को दर्शाता है. इस परंपरा को आम बोलचाल की भाषा में जुगाड़ तकनीकी भी कहा जाता है. ये व्यवस्था सर्कुलर इकोनॉमी की प्रथाओं को आगे बढ़ाने के लिए एक मजबूत सांस्कृतिक आधार प्रदान करती है.
हालांकि, इस सांस्कृतिक नवाचार के साथ कई महत्वपूर्ण बाधाएं जुड़ी हुई हैं. कचरा प्रबंधन के काम से जुड़े लोगों को पुरानी और स्थापित सामुदायिक स्थिति के आधार पर लगातार सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ता है. लोग कचरा छांटने, इस काम से जुड़े मज़दूरों या व्यापारियों के साथ बातचीत करने को आसानी से तैयार नहीं होते. सामुदायिक कम्पोस्टिंग कार्यक्रमों में भाग लेने से जुड़ना नहीं चाहते. वो अपने कचरे का निपटान करके उसे भूल जाना पसंद करते हैं. इससे इस कहावत की पुष्टि होती है कि ‘नज़र से दूर, दिमाग से दूर’. शहरी मध्यम वर्ग के परिवार सुविधा और सफाई पर ध्यान केंद्रित तो करते हैं
लेकिन कचरे की समस्या के स्थानीय समाधान की बजाए उसे लेकर कामचलाऊ रुख़ अपनाते हैं. कई बार लोग चलती गाड़ी से कचरा बाहर फेंक देते हैं. ये समस्या पूरे भारत में दिखती है. ये सामान के उपभोग और निपटान के बीच के अंतर को दर्शाता है. युवा पीढ़ी मितव्ययिता और सामान के दोबारा इस्तेमाल की पुरानी आदतों को कम आंकती है. ये पीढ़ी वस्तुओं के स्थायित्व और मरम्मत की बजाए अपनी सुविधा को प्राथमिकता देती है.
व्यवहार परिवर्तन और बुनियादी ढांचा एक हो
सबसे सफल सर्कुलर शहर वहीं बनते हैं जहां बुनियादी ढांचे का विकास और व्यवहार परिवर्तन कार्यक्रम एक साथ विकसित किए जाते हैं. ये एक-दूसरे के गुण को मज़बूत करता है जो बदलाव में तेज़ी लाता है.
भारतीय शहरों में काम कर रहे सामाजिक उद्यम कंपनी रेसिटी के मुताबिक अगर कचरा इकट्ठा करने की दर को 100 प्रतिशत के करीब पहुंचा दिया जाए, आस-पास की गलियां और सड़कें साफ-सुथरी हों तो ये लोगों के व्यवहार में बदलाव की मज़बूत वजह बन सकता है.
भारतीय शहरों में काम कर रहे सामाजिक उद्यम कंपनी रेसिटी के मुताबिक अगर कचरा इकट्ठा करने की दर को 100 प्रतिशत के करीब पहुंचा दिया जाए, आस-पास की गलियां और सड़कें साफ-सुथरी हों तो ये लोगों के व्यवहार में बदलाव की मज़बूत वजह बन सकता है. इतना ही नहीं इससे ‘स्वच्छता से ही सफाई पैदा होती है’ की धारणा भी विकसित होगी. ये सामाजिक प्रमाण और पर्यावरण मनोविज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित है, जिसमें व्यक्ति अपने व्यवहार को अपने आस-पास के परिवेश में कथित सामाजिक मानदंडों के अनुरूप ढालते हैं.
इंदौर में आया बदलाव इस एकीकृत दृष्टिकोण का शानदार उदाहरण है. इंदौर का भारत के सबसे गंदे शहर से सबसे स्वच्छ शहर में बदलना एक चमत्कार
माना जाता है. इसके लिए प्रशासन ने कचरा प्रबंधन के बुनियादी ढांचे और सेवा विकास को घरों, स्कूलों और समुदायों को लक्षित करने वाले गहन व्यवहार परिवर्तन अभियान के साथ जोड़ा. इस एकीकृत दृष्टिकोण के कारण कचरे का 100 प्रतिशत संग्रहण और 95 प्रतिशत प्रसंस्करण हुआ. इसने इंदौर को शहरी कचरा प्रबंधन में एक वैश्विक उदाहरण के रूप में स्थापित किया.
इसका एक और उदाहरण सूरत की एकीकृत कचरा प्रबंधन प्रणाली है. इसने बुनियादी ढांचे को व्यवहार परिवर्तन के साथ जोड़ दिया. इसी का नतीजा है कि सूरत नगर निगम भी आज 90 प्रतिशत कचरे को इकट्ठा करता है और 65 प्रतिशत वेस्ट प्रोसेसिंग का लक्ष्य को हासिल किया, जो राष्ट्रीय औसत से काफ़ी ज़्यादा है.
जब आम नागरिक सक्षम बुनियादी ढांचे की उपलब्धता और सर्कुलर अर्थव्यवस्था के महत्व को समझने लगते हैं, तब वो इस व्यवस्था के सक्रिय भागीदार बन जाते हैं. इससे बेहतर परिणाम हासिल होते हैं
सामाजिक मानदंड परिवर्तन की रणनीतियां: सर्कुलर समुदायों का निर्माण
सामाजिक मानदंड में ज़बरदस्ती बदलाव नहीं लाया जा सकता. इसके लिए मौजूदा सांस्कृतिक धाराओं के साथ काम करने की ज़रूरत होती है. उन बाधाओं को दूर करना भी ज़रूरी है, जो सकारात्मक प्रथाओं के विस्तार के रास्ते में रुकावट पैदा करती हैं.
इसके लिए पहला कदम मौजूदा सकारात्मक प्रथाओं की पहचान करना है. जो परंपराएं पहले से ही काम कर रही हैं, उन्हें बढ़ावा देना और उनका लाभ उठाना है. उदाहरण के लिए, कबाड़ीवाला प्रणाली को औपचारिक बनाया जा सकता है और इस व्यवस्था को नगरपालिका की कचरा प्रबंधन प्रणावी के साथ एकीकृत किया जा सकता है. हालांकि ऐसा करते हुए इनकी पारंपरिक पहचान और दक्षता बरकरार रखी जा सकती है. पुणे जैसे शहरों ने कचरा प्रबंधन के काम में लगे अनौपचारिक श्रमिकों को पहचान पत्र, बीमा कवरेज़ और कार्य कार्यक्रमों की गरिमा प्रदान करने का काम किया है. इससे प्रणालीगत प्रदर्शन को बढ़ाने और इस काम से जुड़े कलंक को कम करने में मदद मिल सकती है.
जब ऐसे काम को मान्यता और सम्मान मिलता है तो दूसरे लोग भी इससे जुड़ने को प्रेरित होते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि जब इससे श्रमिकों को बेहतर वित्तीय लाभ मिलता है, तो इससे जुड़ा सामाजिक कलंक दूर होने लगता है. केरल में ‘हरिता कर्मा सेना’ कचरा प्रबंधन कार्य के माध्यम से स्थानीय महिलाओं को आर्थिक रूप से मज़बूत करती है. इस तरह की पहल सर्कुलर इकोनॉमी के मूल्य और महत्व को लेकर एक नया सोशल नैरेटिव बनाती है.
सामाजिक मानदंडों को बदलने के लिए मज़बूत सामुदायिक नेतृत्व और स्थानीय उदाहरणों की ज़रूरत होती है. इस दिशा में की गई कई सफल पहलों से पता चलता है कि जिन इलाकों में निवासियों की सक्रिय भागीदारी होती है, वो कचरा वर्गीकरण की उच्च दर हासिल करते हैं. इसका एक उदाहण गुरुग्राम में भी दिखा, जहां इसके लिए ‘अलग करो’ पहल शुरू की गई. नियमों को लागू करने के अलावा ये स्थानीय सफलताएं व्यवहार का मॉडल बनाती हैं, सफलताओं का जश्न मनाती हैं और निरंतर भागीदारी के लिए सामाजिक दबाव बनाए रखती हैं.
भारत में सर्कुलर अर्थव्यवस्था में बदलाव के लिए कई चीजों की ज़रूरत है. नीति एकीकरण और बुनियादी ढांचे के विकास के साथ-साथ आंतरिक व्यवहारिक और सांस्कृतिक बदलाव की आवश्यकता है. इस काम में सफलता के लिए कचरे को सांस्कृतिक प्रथाओं, आर्थिक संबंधों और सामुदायिक गतिशीलता से जुड़ी एक सामाजिक घटना के रूप में देखना ज़रूरी है.
भारतीय शहरों में बदलाव लाने के लिए कई सकारात्मक परिस्थितियां पहले से मौजूद हैं. मज़बूत सामुदायिक नेटवर्क, मौजूदा सर्कुलर प्रथाएं और मितव्ययिता की सांस्कृतिक आदतें पारंपरिक तौर पर मौजूद हैं. हालांकि, इसके लिए इस काम से जुड़े कलंक को ख़त्म करना, प्रौद्योगिकी का पर्याप्त लाभ उठाना और सामाजिक बुनियादी ढांचे का निर्माण करना आवश्यक है. ऐसा करने के लिए समुदायों को संसाधनों, उपभोग और सामूहिक कल्याण के साथ अपने संबंधों को समझने के तरीके को बदलने की ज़रूरत है.
भारत में शहरीकरण तेज़ी से हो रहा है. कचरा प्रबंधन की संस्कृति और प्रथाओं को लेकर जो फैसले अभी किए जाएंगे, उनका असर कई दशक तक दिखेगा. उच्च तकनीक के बुनियादी ढांचे और सामाजिक व्यवहार संबंधी शिक्षा प्रदान करने जैसे मुद्दों को तत्काल संबोधित किए जाने की ज़रूरत है.
भारत में शहरीकरण तेज़ी से हो रहा है. कचरा प्रबंधन की संस्कृति और प्रथाओं को लेकर जो फैसले अभी किए जाएंगे, उनका असर कई दशक तक दिखेगा. उच्च तकनीक के बुनियादी ढांचे और सामाजिक व्यवहार संबंधी शिक्षा प्रदान करने जैसे मुद्दों को तत्काल संबोधित किए जाने की ज़रूरत है. इस तरह की सांस्कृतिक नींव ही ये तय करेगी कि सर्कुलर अर्थव्यवस्थाएं फलती-फूलती हैं या असफल होती हैं.
साभार – orfonline.org