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रासायनिक खादों के स्थान पर हो प्राकृतिक खेती पर जोर!

रासायनिक खादों के स्थान पर हो प्राकृतिक खेती

रासायनिक खादों के स्थान पर हो प्राकृतिक खेती

सुनील कुमार महला

हाल ही में ब्राजील, रियो-दि-जानेरो में जी-20 शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि संघर्षों के कारण उत्पन्न हुए खाद्य, ईंधन और उर्वरक संकट से वैश्विक दक्षिण के देशों को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा है। वास्तव में युद्ध और संघर्ष किसी भी देश को बरसों पीछे धकेल देते हैं। आज रूस-यूक्रेन संघर्ष, इजरायल-हमास विवाद, सीरियाई और यमनी गृह युद्धों का विश्व अर्थव्यवस्था पर बहुत ज्यादा असर पड़ा है और संपूर्ण विश्व खाद्य, ईंधन और उर्वरक संकट झेल रहा है। वास्तव में आज जरूरत इस बात की है कि जी-20 के सभी देश ग्लोबल साउथ’ की चुनौतियों और प्राथमिकताओं को ध्यान में रखें और इनको ध्यान में रखते हुए काम करें। भुखमरी और गरीबी के खिलाफ लड़ाई आज प्रमुख लड़ाई है। उल्लेखनीय है कि हमारा देश भारत वर्ष 2024 के वैश्विक भुखमरी सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट- जीएचआई) में 27.3 स्कोर के साथ 127 देशों में से 105 वें स्थान पर है, जो खाद्य असुरक्षा और कुपोषण की चुनौतियों से प्रेरित “गंभीर” भूख संकट को उजागर करता है। हालांकि,देश ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम जैसे प्रभावी खाद्य सुरक्षा उपायों को लागू किया है, फिर भी चुनौतियाँ बनी हुई हैं। 

उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएम-जीकेएवाई) प्रवासियों और गरीबों को मुफ्त खाद्यान्न की आपूर्ति करने के लिए आत्मनिर्भर भारत के हिस्से के रूप में एक योजना है, जिसके तहत केंद्र सरकार गरीबों को हर महीने 5 किलो मुफ्त अनाज मुहैया कराती है। यह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत आने वाले परिवारों को दिए जाने वाले सब्सिडी वाले (2-3 रुपये प्रति किलो) राशन के अतिरिक्त है।  इतना ही नहीं, सरकार ने कुछ समय पहले इस योजना को जुलाई 2024 से दिसंबर 2028 तक जारी रखने की मंजूरी भी प्रदान कर दी है। हाल फिलहाल, नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले नौ वर्षों में देश में रहने वाले लगभग 24.8 करोड़ लोग ‘बहुआयामी ग़रीबी से बाहर आए हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले नौ वर्षों में बहुआयामी गरीबी में 18 फीसद की गिरावट आई है और इस स्थिति में रहने वाले लोगों की संख्या 29 फीसद से घटकर 11 फीसद हो गई है। जहां तक देश में उर्वरक संकट की बात है तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान समेत आज देश के कई राज्यों में खाद के लिए लंबी-लंबी कतारें लग रही हैं। किसान अपने खेतों में काम छोड़कर इधर-उधर भटक रहे हैं और जगह-जगह खाद और उर्वरकों के  प्रदर्शन कर रहे हैं। इस संदर्भ में, यदि हम भारत में उर्वरक परिदृश्य की बात करें तो संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट (अगस्त 2023) के अनुसार, लगभग 20% यूरिया, 50-60% डीएपी और 100% म्यूरेट ऑफ पोटेशियम (एमओपी) का आयात किया जाता है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2021-22 में, भारत ने 435.95 लाख मीट्रिक टन (एलएमटी) रासायनिक उर्वरकों का उत्पादन किया, लेकिन 579.67 एलएमटी की खपत की, जो एक महत्वपूर्ण कमी दर्शाती है। हालांकि, यह बात अलग है कि सरकार ने इस संबंध में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं और उर्वरकों के लिए सब्सिडी प्रदान की है, वर्ष 2012 की नई निवेश नीति के तहत छह नए यूरिया संयंत्रों की स्थापना की गई है, जिससे उत्पादन क्षमता बढ़कर 76.2 लाख मीट्रिक टन प्रति वर्ष हो गई। अनेक पुनरुद्धार प्रयास किए हैं,उर्वरक उत्पादन और विपणन को मजबूत करने के लिए सरकार ने सार्वजनिक, सहकारी और निजी क्षेत्रों में निवेश को प्रोत्साहित किया है। बहरहाल कहना ग़लत नहीं होगा कि देश में उर्वरक संकट से निपटने के लिए किसानों को प्राकृतिक खेती के संदर्भ में जागरूक करने की जरूरत है। किसानों को यह चाहिए कि वे खेती में डीएपी,एनपीके के स्थान पर देशी खाद(गोबर की खाद/आर्गेनिक खाद) के प्रयोग को बढ़ावा दें। मात्र उत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों/खादों का खेती में प्रयोग करने से आज खेती जहरीली होती चली चली जा रही है,जो स्वास्थ्य के लिहाज से बहुत ही खतरनाक है। इसलिए रासायनिक खादों पर निर्भरता को कम करने की जरूरत है। खाद्य और उर्वरक संकट पर सरकार ने बेहतरीन काम किया है, लेकिन बावजूद इसके हमें किसानों को पारंपरिक और प्राकृतिक खेती की ओर ले जाने की दिशा में जागरूक करके काम करने की आवश्यकता है।

फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड ।

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