ग्लेशियरों से सूखती नदियों की कहानी
अजय सहाय
जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध ग्लेशियरों का संरक्षण आज मानव अस्तित्व और पृथ्वी की जल, पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी स्थिरता के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता बन गया है, क्योंकि ग्लेशियर न केवल स्थायी जल स्रोत हैं बल्कि वैश्विक तापमान को संतुलित रखने वाले पृथ्वी के शीतलक (cooling agents) भी हैं, और यदि इनका पिघलना यूँ ही जारी रहा तो समुद्र स्तर वृद्धि, जल संकट, कृषि असंतुलन, बाढ़, सूखा, और जैव विविधता के विघटन जैसे अनेक संकट और तीव्र हो जाएँगे ।
वैज्ञानिकों और जलवायु विशेषज्ञों के अनुसार ग्लेशियरों का संरक्षण बहुस्तरीय उपायों की मांग करता है जिसमें स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक रणनीतियाँ वैज्ञानिक रूप से लागू की जानी चाहिए—सबसे पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय है ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) के उत्सर्जन में कटौती, विशेष रूप से कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH2), और नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) जैसे तत्व जो ग्लोबल वार्मिंग के मूल कारक हैं।
IPCC की 2023 की AR6 रिपोर्ट के अनुसार यदि हम 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन को 2010 के स्तर से 45% कम नहीं करते तो 2100 तक ग्लेशियरों का 70–80% द्रव्यमान समाप्त हो जाएगा,अतः भारत सहित सभी देशों को पेरिस समझौते के तहत ‘नेट ज़ीरो’लक्ष्य को समय से पहले प्राप्त करना होगा—भारत ने वर्ष 2070 तक नेट ज़ीरो का लक्ष्य रखा है लेकिन ग्लेशियर संरक्षण हेतु इसे और शीघ्र करना आवश्यक होगा।
दूसरा उपाय है ब्लैक कार्बन (Black Carbon) पर नियंत्रण, जो डीज़ल, लकड़ी, कोयला जैसे ईंधनों के अधजले कण हैं और ग्लेशियरों की सतह पर जमकर बर्फ की परावर्तन क्षमता (albedo) को कम करते हैं जिससे बर्फ जल्दी पिघलती है—WWF और ICIMOD के एक अध्ययन के अनुसार हिमालय पर जमा ब्लैक कार्बन स्थानीय तापमान को 0.8–1.2°C तक बढ़ा देता है।
जिससे ग्लेशियरों की पिघलन दर दोगुनी हो जाती है; अतः पर्वतीय क्षेत्रों में क्लीन कुकिंग, सौर ऊर्जा, ई-वाहन, LPG कनेक्शन और पर्यावरण-अनुकूल ईंधन को प्राथमिकता देना ग्लेशियर संरक्षण की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
तीसरा समाधान है “Sustainable Glacier Tourism”—जैसे कि हिमालयी क्षेत्रों में बर्फ पर चलने, ट्रेकिंग, गाड़ियों की आवाजाही, कैंपिंग और प्लास्टिक अपशिष्ट से अल्बेडो प्रभाव घटता है, अतः भारत सरकार को स्विट्ज़रलैंड और आइसलैंड की तर्ज पर ‘Carrying Capacity Based Glacier Tourism’ नीति बनानी चाहिए जिसमें ट्रेकिंग सीज़न, पर्यटकों की संख्या, अपशिष्ट प्रबंधन और ‘zero waste trek’ जैसे मानक अनिवार्य हों।
चौथा उपाय है ग्लेशियरों की वैज्ञानिक निगरानी—ISRO के EOS-4, ICIMOD के Himalayan Cryosphere Initiative और NASA के GRACE सैटेलाइट जैसे प्लेटफॉर्म द्वारा ग्लेशियरों की लंबाई, द्रव्यमान, गति और बर्फ संरचना की निरंतर निगरानी से उनके व्यवहार को समझा जा सकता है और समय रहते चेतावनी दी जा सकती है।
वर्ष 2022 में ISRO ने बताया कि केवल लद्दाख क्षेत्र के ग्लेशियरों में ही औसतन 18% द्रव्यमान हानि हो चुकी है; पाँचवाँ महत्त्वपूर्ण उपाय है “आर्टिफिशियल ग्लेशियर और आइस स्टूपा”जैसी नवाचार तकनीकों का विस्तार—लद्दाख में इंजीनियर सोनम वांगचुक द्वारा विकसित आइस स्टूपा मॉडल से सर्दियों में जल को संरक्षित कर गर्मियों में सिंचाई और पेयजल हेतु उपयोग किया जा सकता है, और यह मॉडल 15°C तक ऊँचे तापमान पर भी टिकाऊ रहता है, जिससे उच्च तापमान क्षेत्रों में जल संकट से निपटने में मदद मिलती है।
छठा समाधान है हिमालयी जलग्रहण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पारंपरिक जल संरक्षण प्रणाली का पुनरुद्धार जैसे stepwells, recharge trenches, soak pits और झील पुनर्जीवन ताकि ग्लेशियर जल का संरक्षण भूजल recharge हेतु किया जा सके—NIH और MoJS के अनुसार यदि गंगोत्री, यमुनोत्री, पिंडारी आदि के जलग्रहण क्षेत्र में प्रति वर्ष 1 BCM पानी संरक्षित किया जाए तो 10 वर्षों में मैदानी क्षेत्रों की जल निर्भरता 15% तक कम की जा सकती है।
सातवाँ समाधान है हिमालयी पारिस्थितिकी के अनुरूप वनीकरण, विशेषकर उन पेड़ों का रोपण जो बर्फीले क्षेत्रों में तापमान संतुलन में मदद करते हैं जैसे बर्च, पाइन, देवदार, और जमीनी वनस्पतियाँ जैसे मॉस और लिचेन—FRA (Forest Research Authority) के अनुसार इन क्षेत्रों में वनावरण 2% से भी कम है जबकि कम से कम 10% कवर तापमान संतुलन हेतु आवश्यक है।
आठवाँ समाधान है “Glacier Buffer Zone Policy” की घोषणा, जिसके तहत ग्लेशियरों के 5–10 किमी के दायरे को विशेष पारिस्थितिकी क्षेत्र घोषित कर वहाँ निर्माण, खनन, चारागाह, प्लास्टिक, वाहन और पर्यटन पर नियंत्रण किया जा सके, जैसा कि उत्तराखंड सरकार ने 2023 में रूपकुंड और बागेश्वर में लागू किया।
नवाँ समाधान है ग्लेशियर क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों को “Climate Warriors”बनाना—लद्दाख, हिमाचल, उत्तराखंड और सिक्किम के स्थानीय युवाओं को ‘ग्लेशियर प्रहरी’प्रशिक्षण दिया जाए जो सतत निगरानी, जैव विविधता संरक्षण, जल संग्रहण और आपदा चेतावनी कार्य में जुट सकें—MoEFCC के अनुसार यह कार्य स्थानीय जल नीति को अधिक प्रभावशाली और सामुदायिक रूप से सशक्त बना सकता है।
दसवाँ समाधान है राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सहयोग—भारत को Nepal, Bhutan, China और पाकिस्तान जैसे देशों के साथ एक “Transboundary Glacier Conservation Framework”पर कार्य करना चाहिए ताकि पूरे हिन्दूकुश हिमालयी क्षेत्र को एकीकृत रूप से संरक्षित किया जा सके; इसके साथ ही ‘Himalayan Glacier Fund’ जैसे विशेष वित्तीय तंत्र बनाया जाए जिसमें CSR, G20 सहयोग, Green Climate Fund और अन्य वैश्विक संसाधनों को ग्लेशियर अनुसंधान, निगरानी और संरक्षण हेतु समर्पित किया जाए।
इसके अलावा स्कूल, कॉलेज, पंचायत स्तर पर “Glacier Literacy Mission” प्रारंभ कर बच्चों और युवाओं को हिम विज्ञान (Cryosphere Science) और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की समझ दी जाए ताकि आने वाली पीढ़ियाँ ग्लेशियरों को केवल भूगोल की किताबों में नहीं, बल्कि जीवित धरोहर के रूप में देख सकें।
अंततः यह समझना होगा कि ग्लेशियरों का संरक्षण किसी एक देश की जिम्मेदारी नहीं बल्कि वैश्विक उत्तरदायित्व है, क्योंकि पृथ्वी की हर बड़ी नदी, महासागर का जलस्तर, और मानव जीवन की हर धारा अंततः इन शीतल शिलाओं से जुड़ी है।
यदि हमने आज वैज्ञानिक, नीतिगत, सामाजिक और नैतिक रूप से इनके संरक्षण के लिए संगठित प्रयास नहीं किए, तो कल हम केवल उनकी स्मृति, चित्र और नक्शों में ग्लेशियर खोजते रह जाएंगे, अतः जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध ग्लेशियरों की रक्षा ही एक ऐसा प्राकृतिक निवेश है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए पृथ्वी को जीने योग्य बनाए रखेगा और जल आत्मनिर्भर भारत 2047 के संकल्प को भी साकार करेगा।