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लोक कवि घाघः  घाघ कहें सुन भड्डरी लोगों के कंठ में आज भी जिंदा हैं 

फोटो - विकिपीडिया

लोक कवि घाघ की लोकोक्तियां अमर हैं

शिवचरण चौहान

लोक कवि घाघ आज भी  लोगों के कंठ में जिंदा हैं। आज भी लोग घाघ की कहावतें बात बात में सुनाते  और समझाते हैं। घाघ लोक ज्योतिषी थे उन्होंने लोक/ जन मानस की समस्यायों  का पर्याप्त ज्ञान था। उनकी बातें आज भी प्रासंगिक साबित होती है। उनकी नीति ,मौसम, कृषि  विषयक  कहावतें आज भी मशहूर हैं। घाघ के जन्म स्थान और  जन्म समय के बारे में अभी भी शोध/ खोज की आवश्यकता  है।
विद्वानों ने ज्यादातर बातों में अनुमान को ही आधार बनाया है। हिन्दी शब्द सागर के सम्पादकों का कथन है-“घाघ गोंडा जिले के रहने वाले थे। वह अनुभवी व्यक्ति  थे। उनकी कही गई बहुत सी कहावतें उत्तर भारत में प्रसिद्ध हैं, खेती-बाड़ी, वस्तु , काल तथा लग्न-मुहूर्त आदि के सम्बन्ध में इनकी विलक्षण लोकोक्तियों को किसान व ग्रामीण, साधारण लोग बहुत सुनाते हैं।  जी. एन. मेहता, आई. सी. एस. अपनी -संयुक्त प्रान्त की कृषि सम्बन्धी कहावतें” में लिखते हैं- “घाघ नामक एक अहीर की उपहासात्मक कहावतें भी स्त्रियों पर आक्षेप के रूप में हैं।”
रायबहादुर बाबू मुकुन्दलाल गुप्त ‘विशारद’ अपनी “कृषि रत्नावली” में लिखते हैं- “कानपुर जनपद के बिल्हौर के आसपास किसी गांव में सन 1696 (संवत 1753 ) में घाघ का जन्म हुआ था। घाघ जाति के ग्वाला अहीर थे। संवत 1780 में इन्होंने कविता में नीति बड़ी जोरदार भाषा में कही।”  शिवसिंह सरोज ने ‘कविता कौमुदी (प्रथम भाग) में लिखा है, “घाघ ,कन्नौज निवासी थे। इनका जन्मकाल संवत 1753 कहा जाता है। ये कब तक जीवित रहे, न तो इसका ठीक-ठीक पता है और न इनके कुटुंब के विषय में मालूम है।”
पीर मुहम्मद मूनिस का मत है-“घाघ के पद्यों की शब्दावली को देखते हुए अनुमान करना पड़ता है कि घाघ चम्पारन और मुजफ्फरपुर जिले के उत्तरी सरहद पर, औरैया मठ या बैर गनिया और कुंडवा चैनपुर के समीप किसी गांव के थे।”  रामनरेश त्रिपाठी मानते हैं कि घाघ उत्तर प्रदेश के कन्नौज के निवासी थे।  उनका यह भी कहना है कि घाघ का प्रौढ़ समय दिल्ली दरबार में अकबर के पास बीता और वह दुबे ब्राह्मण थे। घाघ  अनुभवी और ज्ञानी व्यक्ति को कहा जाता है। इस प्रकार घाघ कृषि कर्म में पारंगत किसान ही हो सकता है। कुछ विद्वानों ने घाघ को अहीर  ग्वाला कहा है,  अहीर में चार जातियां प्रसिद्ध हैं। अहीर, ग्वाला, घोसी, कमरिया आदि। घाघ ब्राह्मण थे अथवा अहीर इस विवाद से हट कर लोग घाघ को जन कवि मानते हैं। कुछ लोग उन्हें विक्रमादित्य अथवा राजा भोज का समकालीन मानते हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि घाघ ने ज्योतिष का ज्ञान उज्जैनी में जाकर प्राप्त किया था।

घाघ कहते हैं

“विप ,टहलुआ चिक्कधन औ बेटी कर बाढ़।
एहु से धन जो ना घटे ,टोकरे जड़न से रार।।”
अर्थात् ब्राह्मण को नौकर रखने (चूंकि ब्राह्मण शारीरिक परिश्रम नहीं करते।) कसाई के यहाँ नौकरी करने से और लड़कियों के ज्यादा पैदा होने से भी यदि धन घटता नहीं तो अपने से धनवान से झगड़ा कर लेना चाहिए।

गिरिधर कविरार् की तरह घाघ में भी जो गम्भीर बात को सहज ढंग से कहने का तरीका है, वह कबीर की परम्परा को ही आगे बढ़ाता है-

“ना अति बरखा, ना अति धूप।
न अति वक्ता, ना अति चूप।।”
नहीं अधिक बरसात ठीक है नहीं अभी धूप का निकलना ना अधिक बोलना ठीक है और ना अधिक चुप रहना।

 स्वास्थ

प्रात समै खटिया से उठिके, पीवै ठंडा पानी। ता घर वैद कबो नहिं आवे, बात घाघ की मानी।। जो आदमी सुबह उठकर ठंडे पानी का सेवन करता है, उसे कभी भी अपने घर वैद्य (डाक्टर) को बुलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती अर्थात वह स्वस्थ रहता है।
चैते गुड़, बैसाखे तेल, जेठे पन्थ असाढ़े  बेल।
सावन साग न भादो दही, कुआर करेला न कातिक मही।।
अगहन जीरा पूसे धना, माघे मिश्री फागुन चना।
ई बारह जो देय बचाय, वहि घर बैद कबौं न जाय।।
जो आदमी चैत महीने में गुड़, बैसाख मास में तेल, जेठ में यात्रा , आसाढ़ माह में बेल, सावन में सुक्सा साग, भादौ में दही, अश्विन में करेला, कार्तिक में मट्ठा (छाछ), मार्गसिर  में जीरा, पौष पूष में धनिया, माघ में मिश्री और फागुन में चना अर्थात बारह महीनों में इन बारहों चीजों से बचाव रखता है, वह स्वस्थ्य रहता है, और उसके घर में वैद्य कभी नहीं जाता।
सावन हरै  ह रर भादों चीत। क्वार मास गुड़ खायउ मीत ।।
कातिक मूली अगहन तेल। पूस में करै दूध से मेल।।
माघ मास घिउ खींचरि खाय । फागुन उठि के प्रात नहाय।।
चैत मास में नीम बेसहनी। वैसाखे में खाय जड़हनी।।
जेठ मास जो दिन में सोवै। ओकर जर असाढ़ में रोवै।।
घाघ कहते हैं कि मित्र सावन के महीने में  हर र, भादों के महीने में चिरायता, क्वार के महीने में गुड़ का सेवन करो। कार्तिक के महीने में मूली, अगहन में तेल,  पूस में दूध का इस्तेमाल करो। माघ के महीने में खिचड़ी में घी मिलाकर खाओ, सुबह नहाओ, चैत महीने में नीम और बैसाख में जड़हन के भात का सेवन करना चाहिए। ये सब चीजें अच्छे स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम हैं।

इसी प्रकार  जेठ के महीने में दिन में सोने वाले आदमी को आसाढ़ में बुखार नहीं होता।

 फागुन भुइयाँ खेड़े हर हो चार, घर हो गिहविन गऊ दुधार।
अरहर दाल, चड़हन क भात, गागल निबुआ और घिउ तात।।
खाँड दही जो घर में होय, बाँके नयन परोसै जोय,
कहें घाघ तब सबही झूठ, उहाँ छोड़ि इहवै बैकुंठ ।।
घाघ कवि कहते हैं कि जिस घर-परिवार के पास गांव के निकट ही बोने की जमीन हो, उसके चार हल चलते हों, घर के काम में सुघड़ औरत हो, दूध देने वाली गाय आंगन में बंधी हो, अरहर की दाल तथा जड़हन का भात हो, रसभरा नींबू और गर्म-गर्म घी हो, घर शक्कर और दही से भरपूर हो तथा बांकी चितवन वाली नारी ये सब खाद-पदार्थ खिलाने वाली पत्नी हो ऐसा घर इस संसार में बैकुंठ के समान है।
जाको मारा चाहिए, बिन लाठी बिन घाव ।
वाको यही बताइए, घुइयाँ पूरी खाव।।
आप जिस आदमी को लाठी या बिना किसी दूसरे हथियार से मारना चाहते हो, उसे केवल घुइयां और पूड़ी खाने की सलाह दे दो, वह आपके सामने टिक ही नहीं पाएगा, ये दोनों चीजें शरीर के लिए नुकसानदायक हैं।
अंतरे खतरे डंडै करै।
ताल नहाय ओस माँ परे।।
दैव न मारै अपुबइ मरै।
जो आदमी अपने शरीर को साधने के लिए प्रतिदिन कसरत नहीं करता और बीच-बीच में दो-दो, चार-चार दिन छोड़कर करता है, और कुएँ के पानी के बजाय तालाब में नहाता है और खुले चौवारे का पानी पीता है, उसे दैव अर्थात भगवान को मारने की जरूरत नहीं पड़ती, अपनी बेवकूफी के कामों से वह खुद ही मर जाता है।
ऊँचे चढ़िके बोला मँडुवा। सब नाजों का मैं हूँ अँडुवा ।।
आठ दिना मुझको जो खाय। भले मर्द से उठा न जाय।।
मंडुआ ऐसा अनाज है, जो स्वास्थ्य को कमजोर करता है, वह ऊँचे चढ़ के बोलता है कि मैं सभी अनाजों में भडुआ ( बेशरम) हूँ और कोई मुझे आठ दिन भी सेवन कर ले तो वह उठकर चलने में भी असमर्थ हो जाएगा।
गाय दुहे, बिन छाने लावै, गरमा, गरम तुरन्त चढ़ावै ।
बाढ़े. बल अउर बुद्धि भाई , घाघ कहे सच्ची बतलाई।
खाइ कै मूतै सूतै बाउँ।
काहै के बैद बसावै गाउँ।
जो आदमी खाना खाने के तुरंत बाद पेशाब करता है और बाएँ करवट सोता है उसे गांव में वैद्य रखने की जरूरत नहीं पड़ती।
चैत सोवै रोगी, बइसाखा सोवै जोगी।
जेठ सोवै राजा, असाढ़ सोवै अभागा।।
चैत माह में सोने वाला आदमी रोगग्रस्त होता है, बैसाख में योगीजन सोते हैं और जेठ के महीने में राजा अर्थात धन सम्पन्न लोग सोते हैं, क्योंकि इस माह में गरम लूएं चलती हैं। लेकिन आसाढ़ में सोने वाला आदमी अभागा होता है, सब जानते हैं कि खेती के काम के लिए यही महीना उपयोगी होता है, यह किसान को चेताने के लिए है।
लरिका ठाकुर, बूढ़ दिवान।
ममिला बिगरै साँझ बिहान।।
अगर ठाकुर (जमींदार) लड़का है और उसका दीवान अर्थात मंत्री वृद्ध हो, उनमें शाम-सवेरे कभी भी खटपट होने की संभावना बनी रहती है, उनकी आपस में पटरी नहीं बैठती।
सांझै से परि रहती खाट, पड़ी भड़ेहरि बारह बाट।
घर आँगन, सब घिन-घिन होय, घग्घा गहिरे देव डुबोय।।
घाव कवि कहते हैं कि ऐसी औरत जो अपने घर की चीजों को संभाल के नहीं रखती और घर को गंदा रखती है और शाम से खटिया पर सो जाती हो, उसे इतने गहरे डुबो देना चाहिए कि पानी से बाहर ही न आ पाए।
सधुवै दासी, चोरवै खाँसी, प्रेम बिनासै हाँसी।
घग्घा उनकी बुद्धि विनासै, खाय जो रोटी बासी।।
साधु-महात्मा को उनकी सेविका, चोर को उसकी खाँसी तथा प्यार को हंसी-मजाक बरबाद कर देते हैं। इसी प्रकार बासी रोटी का सेवन करने वाले की बुद्धि का विनाश होता है, ऐसा घाघ का मानना है।
हरहट नारि बास एकबाह, परुवा बरद सुहुत हरवाह ।
रोगी होइ होइ इकलन्त, कहैं घाघ ई विपत्ति क अन्त ।।
घाघ कवि कहते हैं कि कर्कश आवाज वाली औरत, अकेला घर, दूसरे का बैल, आलसग्रस्त हलवाहा और अकेले रोगी की मुसीबत का कोई अन्त नहीं होता।
हँसुआ ठाकुर बँसुआ चोर।
इन्हें ससुवरन गहिरे बोर।।
बिना बात के हंसने वाला ठाकुर और खांसी की बीमारी वाले चोर इन्हें पानी में बहुत गहरे डुबाना चाहिए।
ना अति बरखा ना अति धूप।
ना अति बकता ना अति चूप ।।
न तो अधिक वर्षा न अधिक धूप, न अधिक बोलना, और न अधिक चुप रहना, अच्छे नहीं माने जाते।
बनिया क सखरज, ठकुर क हीन, वैद क पूत व्याधि नहिं चीन्ह।
पंडित क चुप चुप, बेसवा मइल, कहै घाघ पाँचों घर गइल।।
जनकवि घाघ का कहना है कि अगर बनिया का बेटा मोल-भाव करने में नरमी बरतता हो, ठाकुर का बेटा कमजोर हो, वैद्य के बेटे को रोग का ज्ञान न हो,  ब्राह्मण का बेटा चुपचाप रहता हो और वेश्या गंदी रहती हो, तो ये सभी पांचों के घर बरबाद हो जाते हैं।

कृषि सम्बन्धी

बाढ़े पूत पिता के  धरमा।
खेती उपजै अपने  करमा।।
बेटा पिता के धर्म-कर्म से उन्नति करता है, लेकिन खेती में पैदावार मेहनत करने से अपना रंग दिखाती है।
बिना माघ घिव खिचड़ी खाय, बिन गौने ससुरारी जाय।
बिन बरखा के पहिरे पउवा, कहै घाघ ये तीनों कउवा।।
घाघ का कहना है कि जो माघ के अलावा दूसरे महीने में घी डालकर खिचड़ी खाता है, जो गौना होने से पहले ससुराल जाता है, बरसात आए बिना कठनहीं (काठ की खड़ाऊं, जो हवाई-चप्पल जैसी होती है) पहनता है। ये सब बेवकूफ समझे जाते हैं।
मुये चाम से चाम कटावें, सकरी भुंइ मां सोवै! 
 घाघ  कहें ये तीनो भकुवा, उढ़रि गये पर रोवै ।।
अपने पैर के आकार से छोटे चमड़े के जूते धारण करके पैरों को कटवाने वाला,अपने आकार से संकरी अर्थात कम जगह में सोने वाला और भगाकर लाई गई अर्थात ओढरी औरत के घर छोड़ने पर रोने वाले ये तीनों ही बेवकूफ कहे जाते हैं।
माघ, पूस की बादरी, और कुँवारा घाम ।
ये दोनों जो कोइ सहै, करै पराया काम।।
 माघ पूस  मास की बदली तथा क्वार महीने की कष्टदायी धूप सहने का सामर्थ्य जिसमें है, वही औरों के काम का हो सकता है। यह सर्वविदित है कि माघ और पूस की शीतलता और क्वार की तेज धूप कष्टदायी होती है।
राँड़ मेंहरिया, अन्ना भैंसा।
जब बिचलै तब होवै कैसा।।
रांड (विधवा) औरत तथा बिना मालिक का आवारा भैंसा अगर बहक जाए तो निश्चित है कि अनर्थ होकर ही रहेगा।
बूढ़ा बैल बेसाहै, झीना कपड़ा लेय ।
आपुन करै नसौनी ,देवै दूषन देय।।
जो आदमी  बूढ़ा बैल खरीदता है और दूसरे हल्का (पतला) कपड़ा पहनता है, वह अपना नुकसान खुद करता है, परन्तु इसमें अपने को दोषी न मानकर दैव (ईश्वर) को दोषी ठहराता है।
भेदिहा सेवक ,सुन्दरि नारि,
जीरन पट कुराज दुख चारि।।
अपने मालिक के घर की गुप्त बातों को दूसरों को बताने वाला  नौकर// सेवक,  सुंदर पत्नी, फटा हुआ कपड़ा और दुराचारी राजा, ये चारों दुख देने वाले होते हैं।
बाछा बैल, बहुरिया जोय,
ना घर रहै न खेती होय।
ऐसा किसान, जो अल्हड़ नए बछड़ों को जोतकर खेती करता है और जो नई-नई दुल्हन का स्वामी हो, ऐसे किसान के खेत में न तो फसल ही अच्छी हो पाती है और न घर की व्यवस्था ठीक रह पाती है।
बैल चौंकना जोत में, औ चमकीली नार।
ये बैरी हैं जान के, कुसल करें करतार।।
हल में जोतते समय चौंकने वाले बैल और जरूरत से ज्यादा चमकीली छबीली औरत,दोनों ही जीवन के लिए घातक हैं।  ऐसे घर की रक्षा भगवान ही कर सकता है।
बिन बैलन खेती करै, बिन भैयन के रार।
बिन मेहरारू घर करै, चौदह साख लबार।।
जो मनुष्य बिना बैल के खेती करने और बिना भाइयों के झगड़ा करने और स्त्री के बिना घर-गृहस्थी चलाने की शेखी बघारता है उसे तो चौदह पीढ़ियों का झूठा ही कहा जाएगा।
बैल तरकना टूटी नाव।
ये काहू दिन दैहें दाँव ।।
जो बैल कभी भी भड़क जाता हो और जो नाव जर्जर हो, उनका कोई भरोसा नहीं है।
बैल बगौधा निरघिन जोय।
वा घर ओरहन कबहुँ न होय।।
जिस कृषक के यहाँ घर का पाला हुआ बैल और अच्छी आचरण वाली पत्नी हो, उसे उलाहना नहीं सुनना पड़ता।

नीति 

अम्बा, नींबू ,बनिया गर दाबे रस देय ।
कायथ ,कौवा, करहटा मुर्दा हू सों लेय ।।
आम, नींबू और बनिया को यदि दबाया न जाए, तो रस नहीं निकलता लेकिन इसके विपरीत, कायस्थ, कौआ, किलहटा (एक पक्षी को कहते हैं) इतने कठोर हैं कि मुर्दे से भी रस खींच लेते हैं। 
घाघ बात अपने मन गुनहीं,
ठाकुर भगत न मूसर धनुहीं।
घाघ कहते हैं कि जैसे मूसल (इससे पहले अनाज कूटा जाता था) झुकाने पर धनुष नहीं हो सकता, इसी प्रकार ठाकुर भी भगत नहीं बन सकता और  मूसल कभी धनुष  नहीं बन सकता।
बाघ, बिया, बेकहल, बनिक, बारी, बेटा, बैल ।
ब्यौहार, बढ़ई, बन बबुर, बात सुनो यह छैल।।
जो बकार बारह बसें, सो पूरन गिरहस्त।
औरन को सुख दे सदा, आप रहै अलमस्त ।।
बाघ, बीज, बेकहल ( सन की छाल) बनिया, बारी, बेटा, बैल, ब्यौहार बढई, बन, बबूल और बात इन सब में पहले न आता है अर्थात बारह बकार का जो स्वामी है, वही पूर्ण गृहस्थ है, ऐसा व्यक्ति खुद को सुखी और बेफिक्र रहने में समर्थ है तथा दूसरों को भी सुख दे सकता है।
घर में नारी आँगन सोवै, रन में चढ़के छत्री रोवै,!!
सतुवा के जो करै बिआरी, घाघ मरै तेहि का महतारी।।
घाघ कवि कहते हैं कि जिसके घर में औरत या पत्नी रात के समय कमरे में सोने की बजाय खुले आंगन में सोती है और जो क्षत्रिय रंगभूमि में अपने दो-दो हाथ दिखाने की बजाय रोता हो और रात में सतुवा का सेवन करता हो इन तीनों की मां मरे समान ही होती है, क्योंकि उसके दूध की लाज सलामत नहीं रहती।
पूत न माने आपन डाँट, भाई लड़े चहै नित बाँट ।
तिरिया कलही, करकस होइ, नियरा बसल दुष्ट सब कोइ।
मलिक नाहिंन करै विचार, घाघ कहै ई विपत्ति अपार ।।
कवि  घाघ कहते हैं कि बात नहीं मानने वाला पुत्र, जमीन-जायदाद में हिस्से के लिए अकसर लड़ता रहने वाला भाई कलिहारी अर्थात् ऊँची-ऊँची आवाज में झगड़ा करनेवाली पत्नी, पास में बसने वाला दुष्ट, अपनी बुद्धि न रखनेवाला स्वामी, ये सभी अपार (अत्यधिक) मुसीबत लाने वाले होते हैं।
फूटे से बहि जातु है, ढोल, गवार, अँगार।
फूटे से बनि जात हैं, फूट, कपास, अनार।।
ढोल, गंवार और अंगार फूटने के बाद अपनी गुणवत्ता खो देते हैं, इसके विपरीत फूट ( खेत में पाई जाने वाली पकी ककड़ी), कपास और अनार फूटने के बाद पहले से भी अधिक कीमती हो जाते हैं।
घर की खनस और ज्वर की भूख, छोट दामाद बराहे ऊख।
पातर खेती भकुवा भाय, घाघ कहें दुख कहाँ समाय।।
घाघ कहते हैं कि परिवार में रात-दिन झगड़ा रहना, बुखार के बाद जो तेज भूख लगती है, आयु में पुत्री से छोटा जंवाई होना, आम रास्ते में पड़ने वाला ईख, गन्ना का खेत और फसल और बेवकूफ भाई ये सब परेशान करने वाले होते हैं।
जोइगर, बँसगर बुझगर भाय, तिरिया  सतवनती नीक सुभाय।
धनपुत हो मन होइ बिचार, कहैं घाघ ई सुक्ख अपार।।
जो आदमी ताकतवर हो, बड़े परिवार वाला हो, जिसका भाई अक्लमंद हो और पत्नी सतवंती अर्थात् अच्छे चाल-चलन की हो तथा पुत्र धन धान्य से पूर्ण अच्छे विचार रखता हो, घाघ कवि कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति बहुत सुखी होता है।
काँटा बुरा करील का, और बदरी का घाम।
सौत बुरी है चून की, और साझे का काम।।
करील का काँटा, बदली की धूप, आटे की भी सौत और साझे का काम, ये चारों ही कष्ट देने वाले होते हैं।
कोपे दई मेघ ना होई, खेती सूखति नैहर जोई।
पूत बिदेस खाट पर कन्त, कहैं घाघ ई विपत्ति क अन्त।।
भगवान की नजर टेढ़ी हो गई, बादल नहीं बरसे, खेती सूख गई, पत्नी नाराज होकर  मायके चली गई, बेटा दूसरे देश में दूर है, पति ने खाट पकड़ रखी है, घाघ कवि कहते हैं इससे बड़ी मुसीबत कोई नहीं होती।
कुतवा मूतनि मरकनी, सरबलील कुच काट।
घग्घा चारौ परिहरौ, तब तुम पौढ़ौं खाट।।
जिस चारपाई पर कुत्ते पेशाब करते हैं, जो बैठते ही चूं चू बोलती हो, ढीली-ढाली हो और जिसका आकार इतना छोटा हो, कि ठीक से पैर भी नहीं फैलते हों, घाघ कहते हैं कि इस प्रकार की चारपाई के स्थान पर दूसरी चारपाई का इस्तेमाल करना चाहिए।
गया पेड़ जब बकुला बैठा, गया गेह जब मुड़िया पैठा।
गया राज जहँ राजा लोभी। गया खेत जहँ जामी गोभी।।
कवि घाघ अपनी घाघाइन से दुखी होकर कहते हैं कि घर में ज्यादा सन्तान वाला हमेशा गरीब है, क्योंकि वह सबका पालन-पोषण ठीक से नहीं कर पाता।
एक तो बसे सड़क के गाँव। दूजे बड़े बड़ेन माँ नाँव।
तीजे भये वित्त से हीन। घग्घा हम पर विपदा तीन।।
घाघ अपनी मनोव्यथा को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि एक तो गांव रास्ते पर बसा है, दूसरे बड़े-बड़े लोगों में गिनती होती है, तीसरे धन से रहित हो गए हैं । इन तीनों मुसीबतों में हम फंसे हैं।
ओछो मंत्री राजै नासै, ताल बिनासै काई।
सान साहिबी फूट बिनासै, घग्घा पैर बिवाई।।
घाघ कहते हैं कि औछे स्वभाव का मंत्री राजा को नष्ट कर देता है, काई तालाब को नष्ट कर देती है, आपसी फूट (बैर-भाव) मान सम्मान  को ठेस पहुँचाती है और बिवाई पैरों को पीड़ा पहुँचाती है।
आलस नींद किसानै नासै,  चोरै नासै खाँसी।
अँखिया लीबर बेसवै नासै ,बाबै नासै दासी।।
किसान को आलस्य और निद्रा, चोर को खांसी की बीमारी, वेश्या को चिपड़ी आँखें तथा  सेवा को रखी गई दासी ,साधु को नष्ट कर देती है।
अधकचरी विद्या दहे, राजा दहे अचेत।
ओछे कुल तिरिया दहे, दहे कलर का खेत।।
आदमी अगर कम पढ़ा हुआ हो, राजा चारों ओर  से सचेत न हो, पली ओछे कुल से आई हो और खेत ऊखर का हो तो ये सभी कष्ट पहुँचाने वाले होते हैं।
आठ गाँव का चौधरी, बारह गाँव का राव।
अपने काम न आय तो ऐसी-तैसी जाव।।
चाहे आठ गांवों का कोई चौधरी हो और बारह गाँव का कोई राव हो, अगर वक्त पड़ने पर वह काम न आए तो हमें उससे क्या लेना। 
ओछे बैठक ओछे काम, ओछी बातें आठो याम।
घाघ बतायें तीन निकाम, भू लि  न लीजो इनके नाम।।
घाघ कहते हैं कि जो व्यक्ति आठो पहर बुरे लोगों की संगत में रहते हैं, नीच काम करते हैं, छोटी बातें करते हैं वे बिल्कुल बेकार होते हैं। भूल से भी उनका नाम नहीं लेना चाहिए।
खेत न जोतै राड़ी। न भैंस बेसाहै पाड़ी।
न मेहरि मर्द क छाड़ी, क्यों न बिपदा गाढ़ी।।
राढ़ी घास वाले खेत को नहीं जोतना चाहिए, पाड़ी (भैंस का बच्चा) भैंस नहीं खरीदनी चाहिए और चाहे जितना बड़ा संकट हो दूसरे की छोड़ी हुई स्त्री से शादी नहीं करनी चाहिए।
आठ कठौती माठा पीवै, सोरह मकुनी खाइ।
उसके मरे न रोइये, घर के दलिद्दर जाय।।
जो आदमी आठ कठौता (काठ की परात) मट्ठा (छाछ) पीता हो, सोलह मकुनी सत्तू भरी रोटी) खाता हो उसके मरने पर भी रोना नहीं चाहिए क्योंकि उसके मरने से घर की गरीबी चली जाती है।
आपन-आपन सब कोउ होइ, दुख मा नाहिं सँघाती कोइ।
अन बहतर खातिर झगडन्त, कहैं घाघ ई बिपत्ति क अन्त।।
अपने-अपने के लिए हर कोई होता है लेकिन दुःख में कोई किसी का सहायक नहीं होता। हर कोई अन्न वस्त्र धन के लिए झगड़ रहा है, इससे बढ़कर विपत्ति क्या हो सकती है, ऐसा घाघ का कहना है।
माँ ते धी, पिता ते घोड़ा।
बहुत न होय तो थोड़म थोड़ा।
माँ का गुण पुत्री में और पिता का गुण पुत्र में अधिक नहीं तो थोड़ा जरूर होता है। पंडित राम नरेश त्रिपाठी ने गांव-गांव घूमकर महाकवि घाघ की  लोकोक्तियां , कहावतों का संकलन किया था और उसे पुस्तक रूप में प्रकाशित कराया था। घाघ के अलावा बाद में कुछ कुछ कवियों ने अपनी रचनाएं घाघ के नाम से जोड़ दी हैं। घाघ की कहावतों का प्रकाशन कई प्रकाशन संस्थाओं ने किया है। घाघ की कहावतों पर आज के बदलते परिवेश और जलवायु परिवर्तन के हिसाब से शोध करना चाहिए।

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