हिमाचल प्रदेश में कृषि का पारंपरिक स्वरूप
रोहित प्राशर
हिमाचल प्रदेश, अपनी हरी-भरी वादियों, बर्फ से ढकी चोटियों और ऊंचे-नीचे पहाड़ी ढलानों पर फैले खेतों के साथ, इन दिनों एक अभूतपूर्व कृषि क्रांति का साक्षी बन रहा है। यह क्रांति केवल उत्पादन बढ़ाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह राज्य के किसानों के जीवन में एक सकारात्मक बदलाव लाने, उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाने और कृषि को एक टिकाऊ तथा लाभदायक व्यवसाय के रूप में स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
राज्य सरकार द्वारा किसानों के कल्याण के लिए शुरू की गई विभिन्न दूरदर्शी योजनाएं न केवल कृषि क्षेत्र को एक नई दिशा प्रदान कर रही हैं, बल्कि विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों की आर्थिक स्थिति में भी उल्लेखनीय सुधार ला रही हैं। प्रदेश सरकार की प्राथमिकता सूची में किसानों का कल्याण सदैव सबसे ऊपर रहा है, और इसके लिए नीति निर्माताओं ने एक समग्र तथा दूरदर्शी दृष्टिकोण अपनाते हुए कई महत्वपूर्ण पहल की हैं, जो राज्य के कृषि परिदृश्य को स्थायी रूप से बदलने में सहायक सिद्ध हो रही हैं।
हिमाचल प्रदेश में कृषि का पारंपरिक स्वरूप अब आधुनिक तकनीकों और नवोन्मेषी पद्धतियों के साथ सामंजस्य स्थापित कर रहा है। यह एक ऐसा परिवर्तन है जो किसानों को न केवल अपनी उपज बढ़ाने में मदद कर रहा है, बल्कि पर्यावरणीय स्थिरता को भी बढ़ावा दे रहा है। इस परिवर्तन के केंद्र में राज्य सरकार की महत्वाकांक्षी ‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना’ है, जिसने राज्य में कृषि के भविष्य को आकार देना शुरू कर दिया है। यह योजना रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से शुरू की गई थी, और इसकी सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक 2.22 लाख से अधिक किसान इससे जुड़ चुके हैं।

यह आंकड़ा किसानों के बीच बढ़ती जागरूकता और रासायनिक मुक्त खेती की ओर उनके झुकाव को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार करना और किसानों की उत्पादन लागत को कम करना है, जिससे उनकी शुद्ध आय में वृद्धि हो सके। इस पहल से न केवल बेहतर फसल उत्पादन हो रहा है, बल्कि उपभोक्ता को भी स्वस्थ और रसायन-मुक्त भोजन प्राप्त हो रहा है, जो आज के समय की एक बड़ी आवश्यकता है। यह किसानों को सशक्त कर रही है, उन्हें पर्यावरण के प्रति अधिक जागरूक बना रही है, और अंततः एक स्वस्थ तथा टिकाऊ कृषि पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण कर रही है।
हिमाचल प्रदेश का पहाड़ी और संवेदनशील भौगोलिक स्वरूप इसे प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बनाता है। बाढ़, भूस्खलन, ओलावृष्टि और अत्यधिक बर्फबारी जैसी आपदाएं अक्सर कृषि क्षेत्र को भारी नुकसान पहुंचाती हैं, जिससे किसानों की आजीविका पर सीधा असर पड़ता है। इन चुनौतियों का सामना करने और किसानों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए, सरकार ने मुआवजा व्यवस्था में महत्वपूर्ण और दूरगामी सुधार किए हैं।
सरकार ने प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में मुआवजा राशि में कई गुना वृद्धि की है, जिससे किसानों को उनके नुकसान की भरपाई करने में बड़ी राहत मिल रही है। यह वृद्धि न केवल किसानों को तत्काल वित्तीय सहायता प्रदान करती है, बल्कि उन्हें फिर से खेती शुरू करने के लिए प्रोत्साहित भी करती है। इसके अतिरिक्त, मुआवजे की प्रक्रिया को भी सरल और पारदर्शी बनाया गया है, ताकि किसानों को समय पर और बिना किसी परेशानी के सहायता मिल सके।
जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों को देखते हुए, सरकार ने जलवायु-हितैषी कृषि पद्धतियों पर विशेष बल देना शुरू किया है। इन पद्धतियों में ऐसी तकनीकें शामिल हैं जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करती हैं और कृषि को अधिक लचीला बनाती हैं। इसके अलावा, फसल बीमा योजना का दायरा भी बढ़ाया गया है, ताकि प्राकृतिक आपदाओं के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई सुनिश्चित की जा सके। यह योजना किसानों को एक मजबूत सुरक्षा जाल प्रदान करती है, जिससे वे अनिश्चित मौसम की स्थिति से निपटने में सक्षम होते हैं और उन्हें खेती जारी रखने के लिए प्रोत्साहन मिलता है।
ये कदम किसानों को अनिश्चित मौसम की स्थिति से निपटने में मदद करते हैं और उन्हें खेती जारी रखने के लिए प्रोत्साहन प्रदान करते हैं। आधुनिक तकनीकों का समावेश हिमाचल प्रदेश के कृषि क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत कर रहा है, जिससे कृषि उत्पादकता और दक्षता में उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है। सरकार ने इस दिशा में कई महत्वपूर्ण और अभिनव कदम उठाए हैं। सैटेलाइट इमेजरी और भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) मैपिंग तकनीक का उपयोग करके मिट्टी की गुणवत्ता का विस्तृत विश्लेषण किया जा रहा है। यह तकनीक मिट्टी के प्रकार, पोषक तत्वों की उपलब्धता, जल धारण क्षमता और अन्य महत्वपूर्ण मापदंडों के बारे में सटीक जानकारी प्रदान करती है।
इस डेटा के आधार पर, किसानों को यह जानकारी मिल पा रही है कि उनकी जमीन किस प्रकार की फसलों के लिए सबसे उपयुक्त है, और उन्हें किस मात्रा में उर्वरकों या जैविक इनपुट की आवश्यकता है। यह ‘सटीक कृषि’ (Precision Agriculture) को बढ़ावा देता है, जिससे संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग होता है और अनावश्यक खर्चों में कमी आती है। पानी की बचत और ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देने के लिए, सरकार ड्रिप सिंचाई और सोलर पंपों पर 80 प्रतिशत तक की सब्सिडी प्रदान कर रही है। ड्रिप सिंचाई प्रणाली पौधों की जड़ों तक सीधे पानी पहुंचाती है, जिससे पानी की बर्बादी कम होती है और सिंचाई दक्षता बढ़ती है।
पहाड़ी क्षेत्रों में, जहां पानी की उपलब्धता अक्सर एक चुनौती होती है, यह तकनीक विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। सोलर पंप किसानों को बिजली पर निर्भरता से मुक्त करते हैं, उनकी ऊर्जा लागत को कम करते हैं, और उन्हें पर्यावरण के अनुकूल तरीके से सिंचाई करने में सक्षम बनाते हैं। गुणवत्तापूर्ण बीज किसी भी फसल की सफलता की कुंजी होते हैं। सरकार उन्नत बीजों के वितरण पर विशेष जोर दे रही है और किसानों को समय पर उच्च गुणवत्ता वाले बीज उपलब्ध कराने के लिए विशेष अभियान चलाए जा रहे हैं।
इसमें उच्च उपज वाली किस्में, रोग प्रतिरोधी बीज, और स्थानीय जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल बीज शामिल हैं। कृषि विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों के साथ मिलकर नए बीजों की किस्मों पर शोध किया जा रहा है, ताकि हिमाचल की विविधतापूर्ण जलवायु के लिए सर्वोत्तम बीज उपलब्ध हो हिमाचल प्रदेश की विविध भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियां विभिन्न प्रकार के कृषि मॉडलों के सफल कार्यान्वयन को संभव बनाती हैं। राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट फसलों की खेती सफलतापूर्वक की जा रही है, जो स्थानीय परिस्थितियों का लाभ उठाती हैं और किसानों के लिए नए अवसर पैदा करती हैं।
किन्नौर जिले के किसान अपनी उच्च गुणवत्ता वाली राजमा की खेती करके न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाजार तक पहुंच बना रहे हैं। किन्नौर राजमा अपनी अनूठी बनावट, स्वाद और पोषण मूल्य के लिए जाना जाता है। सरकार विपणन चैनलों को मजबूत करके और गुणवत्ता नियंत्रण सुनिश्चित करके इसे एक प्रीमियम उत्पाद के रूप में बढ़ावा दे रही है, जिससे किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य मिल रहा है। लाहौल-स्पीति का ठंडा रेगिस्तानी क्षेत्र, जहां पारंपरिक खेती कठिन है, प्राकृतिक खेती के नए प्रयोगों का केंद्र बन गया है।
यहां किसान प्राकृतिक मटर, सेब और एग्जॉटिक वेजीटेबल (जैसे ब्रोकली, लेट्यूस, शतावरी) जैसी फसलों की खेती कर रहे हैं। इन कठिन परिस्थितियों में भी उच्च मूल्य वाली उपज प्राप्त करने की यह क्षमता किसानों की नवाचार क्षमता और सरकार के समर्थन का प्रमाण है। जैविक प्रमाणीकरण के प्रयासों से इन उत्पादों को प्रीमियम बाजार में और भी बेहतर स्थान मिल रहा है। किसानों को उनके उत्पादों का उचित मूल्य दिलाने और बिचौलियों पर निर्भरता कम करने के लिए सरकार ने विपणन व्यवस्था में भी महत्वपूर्ण सुधार किए हैं।
e-NAM पोर्टल के माध्यम से किसान सीधे राष्ट्रीय स्तर पर खरीदारों से जुड़ पा रहे हैं। यह एक ऑनलाइन ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म है जो किसानों को अपनी उपज को देश के किसी भी हिस्से में बेचने की सुविधा देता है। इससे मूल्य निर्धारण में पारदर्शिता आती है, बिचौलियों की भूमिका कम होती है, और किसानों को अपनी उपज का बेहतर मूल्य मिल पाता है।
पोषण सुरक्षा आज एक वैश्विक चिंता का विषय है, और हिमाचल प्रदेश सरकार ने इस दिशा में मोटे अनाजों (मिलेट्स) की खेती को बढ़ावा देने पर विशेष जोर दिया है। मिलेट्स, जिन्हें अक्सर ‘सुपरफूड’ कहा जाता है, पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं और कम पानी तथा कम उर्वरकों में भी उग सकते हैं, जो उन्हें जलवायु परिवर्तन के दौर में एक आदर्श फसल बनाते हैं। कोदो, कुटकी, चौलाई (अमरनाथ) और सांवा (बार्नयार्ड मिलेट) जैसे पोषक अनाजों की खेती के लिए किसानों को विशेष प्रोत्साहन दिया जा रहा है। ये अनाज फाइबर, प्रोटीन, विटामिन और खनिजों से भरपूर होते हैं, और ग्लूटेन-मुक्त होने के कारण स्वास्थ्य के प्रति जागरूक उपभोक्ताओं के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं।
इन अनाजों के बीज किसानों को निःशुल्क या अत्यधिक सब्सिडी दरों पर उपलब्ध कराए जा रहे हैं, जिससे उनकी खेती को बढ़ावा मिल रहा है। साथ ही, किसानों को मिलेट्स की खेती की वैज्ञानिक पद्धतियों, कटाई और भंडारण के बारे में प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। यह पहल न केवल पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करती है बल्कि किसानों के लिए अतिरिक्त आय के स्रोत भी खोलती है, साथ ही इन पारंपरिक और अत्यधिक पौष्टिक अनाजों को पुनर्जीवित करती है, जो कभी भारतीय आहार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे।
कृषि क्षेत्र के समग्र और सतत विकास के लिए मजबूत अवसंरचना का होना अत्यंत आवश्यक है। फसल कटाई के बाद के नुकसान को कम करने, उत्पादों का मूल्य संवर्धन करने और किसानों को बेहतर बाजार पहुंच प्रदान करने के लिए सरकार ने कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। सरकार ने कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर फंड के तहत अब तक 100 करोड़ रुपये से अधिक की सहायता विभिन्न परियोजनाओं के लिए आवंटित की जा चुकी है। यह फंड कोल्ड स्टोरेज, प्रसंस्करण इकाइयों, पैक हाउस और अन्य आवश्यक बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
कोल्ड स्टोरेज किसानों को अपनी उपज (जैसे फल, सब्जियां) को लंबे समय तक सुरक्षित रखने में मदद करते हैं, जिससे वे बाजार की कीमतों में उतार-चढ़ाव का लाभ उठा सकते हैं और कटाई के बाद होने वाले नुकसान को कम कर सकते हैं। प्रसंस्करण इकाइयां किसानों को अपनी उपज को मूल्य-वर्धित उत्पादों (जैसे जूस, जैम, अचार, आटा) में बदलने में सक्षम बनाती हैं, जिससे उनकी आय में वृद्धि होती है। पैक हाउस उत्पादों की ग्रेडिंग, सॉर्टिंग और पैकेजिंग के लिए आवश्यक सुविधाएं प्रदान करते हैं, जिससे उत्पादों की गुणवत्ता और बाजार में स्वीकार्यता बढ़ती है।
कृषि विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों के साथ मिलकर किसानों के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं, जिससे उन्हें आधुनिक कृषि पद्धतियों, वैज्ञानिक तकनीकों, फसल प्रबंधन और कीट नियंत्रण के बारे में नवीनतम ज्ञान मिल सके। यह ज्ञान किसानों को अपनी खेती को अधिक कुशल और लाभदायक बनाने में मदद करता है। ये प्रयास हिमाचल प्रदेश के कृषि क्षेत्र को एक मजबूत आधार प्रदान कर रहे हैं, जो भविष्य के लिए सतत विकास की नींव रखता है और राज्य को कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू “समृद्ध किसान, समृद्ध हिमाचल” के ध्येय को साकार करने की दिशा में निरंतर प्रयासरत हैं। उनका लक्ष्य स्पष्ट है: प्रदेश के मेहनती किसानों को उनकी उपज का सही दाम मिले और वे आत्मनिर्भर बनें, ताकि उन्हें आजीविका के लिए पलायन न करना पड़े। इसी सोच के साथ, सरकार ने प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों के उत्पादों को प्राथमिकता के आधार पर खरीदने का ऐतिहासिक निर्णय लिया है। यह निर्णय न केवल प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देगा, बल्कि उन किसानों को भी प्रोत्साहित करेगा जो पर्यावरण के अनुकूल पद्धतियों को अपना रहे हैं।
यह एक क्रांतिकारी कदम है, क्योंकि हिमाचल प्रदेश पूरे देश में गेहूं, मक्की और कच्ची हल्दी के लिए सबसे अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) निर्धारित करने वाला राज्य बन गया है। ये मूल्य क्रमशः गेहूं के लिए ₹60 प्रति किलोग्राम, मक्की के लिए ₹40 प्रति किलोग्राम, और कच्ची हल्दी के लिए ₹90 प्रति किलोग्राम हैं। यह कदम सुनिश्चित करता है कि किसानों को उनकी मेहनत का पूरा फल मिले और उन्हें बाजार की अस्थिरता से सुरक्षा प्रदान हो। यह न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल एक संख्या नहीं है, बल्कि यह किसानों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता और उनकी आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के संकल्प को दर्शाता है।
इसके अतिरिक्त, प्रदेश में प्रत्येक प्राकृतिक खेती करने वाले किसान परिवार से 20 क्विंटल तक अनाज की खरीद करने का प्रावधान किया गया है। यह विशेष प्रावधान छोटे व सीमांत किसानों को भी इसका पूरा लाभ सुनिश्चित करता है, जो अक्सर बाजार तक सीधी पहुंच बनाने में संघर्ष करते हैं। इस पहल से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा, क्योंकि किसानों के पास अधिक क्रय शक्ति होगी, जिससे स्थानीय बाजारों में भी तेजी आएगी। यह एक ऐसा चक्र है जो ग्रामीण समृद्धि को बढ़ावा देता है।
प्राकृतिक खेती उत्पादों को बाजार में उचित स्थान देने और उनके विपणन को बढ़ावा देने के लिए, एक महत्वपूर्ण पहल के रूप में ‘हिम प्राकृतिक’ ब्रांड को बाजार में लाया गया है। यह ब्रांड केवल एक नाम नहीं है, बल्कि यह हिमाचल प्रदेश के प्राकृतिक रूप से उगाए गए उत्पादों की शुद्धता, गुणवत्ता और प्रामाणिकता का प्रतीक है। ‘हिम प्राकृतिक’ ब्रांड के माध्यम से, प्राकृतिक खेती से जुड़े किसानों के उत्पादों को एक विशिष्ट पहचान मिलती है, जिससे वे बाजार में अपनी जगह बना पाते हैं। यह ब्रांड उपभोक्ताओं के बीच विश्वास पैदा करता है कि वे उच्च गुणवत्ता वाले, रसायन-मुक्त और स्वास्थ्यवर्धक उत्पाद खरीद रहे हैं।
इस ब्रांडिंग से किसानों को अपने उत्पादों के लिए बेहतर मूल्य प्राप्त करने में मदद मिलती है, क्योंकि उपभोक्ता अक्सर ऐसे प्रीमियम उत्पादों के लिए अधिक भुगतान करने को तैयार रहते हैं। यह पहल प्राकृतिक खेती से जुड़े किसानों की आय बढ़ाने और उन्हें सही मायने में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह सुनिश्चित करता है कि उनकी मेहनत और पर्यावरण-हितैषी पद्धतियों को उचित मान्यता और आर्थिक लाभ मिले।
हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में शुरू की गई इन व्यापक और बहुआयामी योजनाओं का परिणाम यह हो रहा है कि अब किसान पारंपरिक खेती के साथ-साथ नवीन कृषि पद्धतियों को भी उत्साहपूर्वक अपना रहे हैं। यह परिवर्तन केवल खेतों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह राज्य के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने को भी प्रभावित कर रहा है। प्रदेश के कई युवा अब कृषि की ओर आकर्षित हो रहे हैं और इसे एक लाभदायक तथा सम्मानजनक व्यवसाय के रूप में अपना रहे हैं, जो पहले शायद उतना आकर्षक नहीं लगता था। यह रुझान ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन को कम करने और स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा करने में मदद कर रहा है।
सरकार का लक्ष्य स्पष्ट है: हिमाचल के किसान बिना पलायन किए अपने खेतों से ही समृद्धि प्राप्त कर सकें और राज्य की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान और अधिक बढ़े। यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जो न केवल किसानों की व्यक्तिगत आय में वृद्धि करेगा, बल्कि राज्य की खाद्य सुरक्षा को भी मजबूत करेगा और एक टिकाऊ कृषि प्रणाली का निर्माण करेगा। कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि इसी प्रकार की योजनाएं निरंतर चलती रहीं और उन्हें प्रभावी ढंग से लागू किया जाता रहा, तो भविष्य में हिमाचल प्रदेश जैविक खेती और सतत कृषि का एक प्रमुख केंद्र बन सकता है।
यह न केवल भारत के लिए बल्कि वैश्विक स्तर पर भी एक प्रेरणा बनेगा, जो दिखाता है कि कैसे एक पहाड़ी राज्य अपनी अनूठी चुनौतियों के बावजूद कृषि क्षेत्र में नवाचार और स्थिरता के माध्यम से समृद्धि प्राप्त कर सकता है। हिमाचल प्रदेश वास्तव में एक नई कृषि क्रांति की इबारत लिख रहा है, जो समृद्धि, स्थिरता और आत्मनिर्भरता के सिद्धांतों पर आधारित है।