Indiaclimatechange

तकनीकी से नहीं आत्म नियंत्रण से थमेगा साँसों का जहर

Photo - Google

तकनीकी से नहीं आत्म नियंत्रण से थमेगा साँसों का जहर

पंकज चतुर्वेदी

जब दिल्ली और उसके आसपास दो सौ किलोमीटर की साँसों पर संकट  छाया और सुप्रीम कोर्ट ने सख्त नजरिया अपनाया  तो सरकार का एक नया शिगूफा  सामने आ गया – कृत्रिम बरसात । वैसे भी दिल्ली  के आसपास जिस तरह  सी एन जी वाहन अधिक है , वहां बरसात नए तरीके का संकट ला सकती हैं . विदित हो सी एन जी दहन से  नायट्रोजन ऑक्साइड और  नाइट्रोजन की ऑक्सीजन के साथ गैसें जिन्हें “आक्साईड आफ नाइट्रोजन “ का उत्सर्जन होता है । चिंता की बात यह है कि “आक्साईड आफ नाइट्रोजन “ गैस वातावरण में मौजूद पानी और ऑक्सीजन के साथ मिल कर तेजाबी बारिश कर सकती है

जिस कृत्रिम बरसात का झांसा दिया जा रहा है, उसकी तकनीक को समझना जरुरी है । इसके लिए हवाई जहाज से सिल्वर-आयोडाइड और कई अन्य रासायनिक  पदार्थो का छिडकाव किया जाता है, जिससे सूखी बर्फ के कण तैयार होते हैं । असल में सूखी बर्फ ठोस कार्बन डाइऑक्साइड ही होती है । सूखी बर्फ की खासियत होती है कि इसके पिघलने से पानी नहीं बनता और यह गैस के रूप में ही लुप्त ओ जाती है । यदि परिवेश के बादलों में थोड़ी भी नमी होती है तो यह  सूखी बर्फ के कानों पर चिपक जाते हैं और इस तरह बादल का वजन बढ़ जाता है, जिससे बरसात हो जाती है ।

Photo – Google

एक तो इस तरह की बरसात के लिए जरुरी है कि वायुमंडल में  कम से कम 40 फ़ीसदी नमी हो, फिर यह थोड़ी सी देर की बरसात ही होती है । इसके साथ यह ख़तरा बना रहता है कि वायुमंडल में कुछ उंचाई तक जमा स्मोग और अन्य छोटे कण  फिर धरती पर  आजायें । साथ ही सिल्वर आयोडाइड, सूखी बर्फ के धरती पर गिरने से उसके संपर्क में आने वाले पेड़-पौधे, पक्षी और जीव ही नहीं, नदी-तालाब पर भी रासायनिक ख़तरा संभावित है ।

हमारे नीति निर्धारक आखिर यह क्यों नहीं समझ रहे कि  बढ़ते प्रदुषण का इलाज तकनीक में तलाशने से ज्यादा जरुरी है प्रदूषण को ही कम करना ।  एक बात समझना होगा  यह मसला केवल दिल्ली टीके ही सीमित नहीं हैं – मुंबई, बंगलुरु  के हालात इससे बेहतर नहीं हैं .  ईर हर राजी की राजधानी भी इसी तरह  हाँफ रही है  और हर जगह  ऐसे ही किसी जादुई  तकनीक के सब्जबाग दिखाये जाते हैं ।

दिल्ली में अभी तक जितने भी तकनीकी  प्रयोग किये गये, वे विज्ञापनों में भले ही उपलब्धी  के रूप में  दर्ज हों लेकिन हकीकत में वे बे असर ही रहे हैं  । यह तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसकी एक टिपण्णी के चलते इस बार दिल्ली में  वाहनों का सम-विषम संचालन थम गया । याद दिलाना चाहेंगे कि तीन साल पहले एम्स के तत्कालीन निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया ने कह दिया था दूषित हवा से सेहत पर पड़ रहे कुप्रभाव का सम विषम स्थायी समाधान नहीं है। क्योंकि ये उपाय उस समय अपनाये जाते हैं जब हालात पहले से ही आपात स्थिति में पहुंच गये हैं। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट भी कह चुकी है कि जिन देशों में ऑड ईवन लागू है वहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट काफ़ी मजबूत और फ्री है। सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड अदालत को बता चुकी है कि ऑड ईवन से वायु-गुणवत्ता में कोई ख़ास फायदा नहीं हुआ। प्रदूषण सिर्फ 4 प्रतिशत कम हुआ है ।

याद करें इससे पहले हम  “स्मोग टावर “ के हसीन सपनों  को तबाह होते देख चुके हैं . दिवाली के पहले जब दिल्ली में  वायु गुणवत्ता दुनिया में सबसे खराब थी तब राजधानी में लगे स्मोग टावर  धूल खा रहे थे .  सनद रहे 15 नवम्बर 2019 को जब दिल्ली हांफ रही थी तब सुप्रीम कोर्ट ने तात्कालिक  राहत के लिए प्रस्तुत किये गये विकल्पों में से  “ स्मोग टॉवर” के निर्देश दिए थे . एक साल बाद दिल्ली-यूपी सीमा पर 20 करोड़ लगा कर आनंद विहार में स्मॉग टावर लगाया . इससे पहले  23 अगस्त को कनॉट प्लेस में पहला स्मॉग टॉवर 23 करोड खर्च कर लगाया गया था ।

इनके विज्ञापन पर व्यय हुआ उसका फ़िलहाल हिसाब नहीं हैं । इसके संचालन और रखरखाव पर शायद इतना अधिक खर्चा था कि वे बंदकर दिए गये । इसी हफ्ते जब फिर सुप्रीम कोर्ट  दिल्ली की हवा के जहर होने पर चिंतित दिखा तो  टावर शुरू कर दिए गये । वैसे यह सरकारी रिपोर्ट में दर्ज है कि इस तरह के टावर  से समग्र रूप  से कोई लाभ हुआ नहीं. महज कुछ वर्ग मीटर में थोड़ी सी हवा साफ़ हुई । असल में स्मॉग टावर बड़े आकार का एयर प्यूरीफायर होता है ,
जिसमें  हवा में मौजूद सूक्ष्म कणों को छानने के लिए कार्बन नैनोफाइबर फिल्टर की कई परतें होती हैं।  इसमें बड़े एक्जास्ट पंखे होते हैं जो आसपास की दूषित हवा को खींचते है, उसके सूक्ष्म कणों को कर  साफ हवा फिर से परिवेश  में  भेज देते हैं।

सन 2020 में एमडीपीआई (मल्टिडिसप्लेनरी डिजिटल पब्लिशिंग इन्स्टीट्यूट) के लिए किए गए शोध- “कैन वी वैक्यूम अवर एयर पॉल्यूशन प्रॉब्लम यूजिंग स्माग टॉवर”  में सरथ गुट्टीकुंडा और पूजा जवाहर ने बताया दिया था कि चूंकि वायु प्रदूषण की न तो कोई सीमा होती है और न ही दिशा, सो दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र- गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, फरीदाबाद, गुरुग्राम और रोहतक के सात हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में कुछ स्मॉग टावर  बेअसर ही रहेंगे।

वैसे, दिल्ली में वायु प्रदूषण के एक अन्य उपाय भी काम चल रहा है। जापान सरकार  अपने एक विश्वविद्यालय के जरिये दिल्ली-एनसीआर में एक शोध-सर्वे करवा चुका है जिसमें उसने आकलन किया है कि आने वाले दस साल में सार्वजनिक परिवहन और निजी वाहनों में हाईड्रोजन और फ्यूल सेल-आधारित तकनीक के इस्तेमाल से उसे कितना व्यापार मिलेगा। हाईड्रोजन का इंर्धन के रूप में प्रयोग करने पर बीते पांच साल के दौरान कई प्रयोग हुए हैं। बताया गया है कि इसमें शून्य कार्बन का उत्सर्जन होता है और केवल पानी निकलता है। इस तरह के वाहन महंगे होंगे ही । फिर टायर घिसने और बेटरी के धुएं से  स्मोग बनाने  की संभावना तो बरकरार ही रहेगी ।

शहरों  में भीड़ कम हो, निजी वाहन कम हों , जाम न लगे, हरियाली बनी रहे – इसी से जहरीला धुंआ कम होगा । मशीने मानवीय भूल का निदान होती नहीं । हमें जरूरत है आत्म नियंत्रित ऐसी प्रक्रिया की जिससे  वायु को जहर बनाने वाले कारक ही जन्म न लें ।

 

Exit mobile version