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“डूबते हुए प्यासे शहर”

श्री पंकज चतुर्वेदी जी की पुस्तक

इस पुस्तक के बारे में लेखिका सुश्री भारती पाठक के विचार

जल जीवन है | सिर्फ मनुष्य ही नहीं समस्त जीवजगत, वनस्पति जगत और ब्रह्मांड में इसकी उपस्थिति और उपयोगिता अतुलनीय है | मानव सभ्यता के विकास के साथ ही जब मानव ने समूहों में रहना और भ्रमण करते हुए अपनी बस्तियों की स्थापना और विस्तार करना शुरू किया तब उन्होंने अपने रहने के लिए ऐसे स्थानों का चयन किया जो नदियों से लगा हुआ हो | वजह साफ है कि जीवनदायिनी नदियों ने उन्हे न सिर्फ आश्रय दिया बल्कि धरती को अन्न उपजाने में अपना सहयोग दिया जो हमारे जीवन का प्रमुख आधार बना | क्या ही आश्चर्य है कि जिन नदियों ने हमें शरणस्थली दी, हमारा पालन पोषण किया आज वही अपने कोप से हमें डुबोने और हमारा आस्तित्व मिटाने को आतुर है. पंकज चतुर्वेदी लिखित पुस्तक “डूबते हुए प्यासे शहर ” उन चुनिंदा शहरों के इसी दर्द के पीछे छिपे कारणों की गाथा है जो नदियों के साथ मनुष्य के अनुचित व्यवहार का परिणाम झेलने को मजबूर हैं | सत्य भी है कि हम वही काटेंगे जो बोएंगे पुस्तक में नदियों के किनारे बसे देश के कुछ प्रसिद्ध शहरों में अनावश्यक विकास की भेंट चढ़ते पारंपरिक जल स्रोतों के बारे में साक्ष्य सहित शोधपरक लेख हैं जो भूगर्भ जल के अनुचित दोहन से व्याप्त जल संकट की दशा और दिशा का विस्तृत वर्णन करते हैं | पहला शहर है यमुना किनारे बसी दिल्ली जो विकास की दौड़ में तो सबसे आगे है लेकिन अपने सीने पर उगते कंक्रीट के जंगलों का बोझ लिए जल संकट से लगातार जूझ रही है | तब जब दैनिक जीवन के लिए आवश्यक जल प्राप्त करना दिल्ली सरकार के लिए एक श्रमसाध्य कार्य है, एक दिन की बारिश में सारा शहर जलमग्न हो उठता है और अगले ही दिन फिर वही ढाक के तीन पात हैं अर्थात हम समस्या से फौरी तौर पर प्राप्त निजात को ही समाधान समझ लेते हैं जबकि जड़ें कहीं और ही हैं | लेखक तमाम ऐसे उदाहरण देते हैं कि दिल्ली शहर के बसाव के समय से उसकी पथरीली सतह का ध्यान रखते हुए प्राचीन काल से ही इसके शासकों के प्रयास रहे कि पारंपरिक जलस्रोतों को विकसित किए जाएँ | इतिहास को दरकिनार करते हुए विकास की आंधी में सरकारों द्वारा इन पारंपरिक उपायों की अनदेखी करने का परिणाम है आज की दिल्ली | लापरवाही भले प्रशासन के मत्थे जाती हो लेकिन दोषी हम आप भी कम नहीं हैं | इसी सर्वेक्षण की कड़ी का अगला शहर है दिल्ली से सटा गाँव से शहर में तब्दील हुआ गुरुग्राम | बकौल लेखक “कहने को यह अरावली पर्वतमाला के साए में और साहिबी नदी के तट पर बसा शहर है लेकिन यहाँ अब न तो अरावली के चिन्ह बचे हैं न ही साहिबी नदी का प्रवाह |” औद्योगिक विकास की नजर हुए इस शहर के जलस्रोतों के हालात भी दिल्ली से कुछ अलग नही हैं | गुरुग्राम चूंकि विशेष रूप से विकसित किया गया शहर है तो यहाँ के लोगों की आय उनके जल प्राप्त करने के मार्ग में आज भले बाधक नहीं है लेकिन चिंता है कि जल माफियॉओं की महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ रहे भूगर्भ जल के दूषित होने की दशा में इस शहर ही नहीं भारत के तमाम शहरों पर इसके कैसे और कितने व्यापक दुष्प्रभाव पड़ेंगे | लेखक की जायज चिंता हमें भी चिंतन करने को मजबूर करती है | दिल्ली से ही सटा तीसरा शहर है गाजियाबाद जो यमुना की ही सहायक हिंडन नदी के तट पर अवस्थित है | ‘जैसे दिल्ली का यमुनापार वैसे गाजियाबाद का हिंडन पार ! दोनों सटे हुए हैं और एकदूसरे में घुलमिल गए हैं |’ ये घुलना मिलना भी ऐसा वैसा नहीं है बल्कि दोनों एकसमान समस्याओं से भी जूझने तो अभिशप्त हैं | कारण वही विकसित शहर में बसने की चाह में मकानों के जंगल का उगना और प्रकृति की विनम्रता का अनुचित लाभ लेने का प्रयास | मात्र तीन दशक पहले जहां जिले में करीब 995 तालाब थे आज जाने कितने अपना अस्तित्व समाप्त कर चुके हैं और जो बचे भी हैं वे जल और अपने बचे रहने के संकट से जूझ रहे हैं | लेखक पुस्तक में वे तमाम आँकड़े उपलब्ध कराते हैं जो सरकारी प्रयासों और परिणामों की न सिर्फ सही-सही जानकारी देते हैं बल्कि इन समस्याओं की जड़ तक पहुंचकर इनसे निपटने के उपायों के बारे में भी अपनी स्पष्ट राय रखते हैं |

कड़ी आगे पहुंचकर जुड़ती हैं करीब 30 लाख की आबादी वाले भोपाल शहर से जिसके हर इलाके में ताल तलैया है, आश्चर्य है कि वहीं 5 लाख लोग पीने के पानी के लिए बोतलबंद जल पर निर्भर हैं | वजह है कि जिस तरह भोपाल शहर का विस्तार हुआ उसकी तुलना में उसके मूलभूत ढांचे का विकास नहीं हुआ | परिणाम कभी शुद्ध जल की कमी तो कभी जल प्लावन में तैरता शहर | कभी नालों से बजबजाता तो कभी अवैध कब्जों में कसमसाकर दम तोड़ता शहर | पुस्तक में तमाम ऐसे उद्दरण है जिसे पढ़ते हुए पाठक जल के प्राकृतिक स्रोतों के संरक्षण के प्राचीन वैज्ञानिक उपायों पर कभी चकित होता है तो कभी नए दौर के विकास की प्रक्रिया में उन स्वर्णिम संसाधनों की दुर्दशा पर चिंतित होता है | लाजमी है कि जल हमारे लिए है तो हमें ही जल संरक्षण के लिए प्रस्तुत होना होगा |

बंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद, छतीसगढ़ हो या मुंबई और पटना ये सूची कहीं जाकर ठहरती नहीं है बल्कि चिंतन कहता है कि हम नहीं संभले तो आने वाले समय में शीतकाल में सूखते और वर्षाकाल में जलप्लावित होते शहरों की ये सूची बढ़ती ही जाएगी | पानी अपना रौद्र रूप दिखाएगा किन्तु हमारे उपयोग के लिए स्वच्छ जल शायद न रह जाए और आने वाली पीढ़ियाँ हमारे कर्मों का फल भोगें |

हमें याद रखना चाहिए कि नदियां अपनी राह कभी नहीं भूलतीं | ये सहती हैं, समय का इंतजार करती है फिर दिखाती हैं अपना क्रोध जिसमें कंक्रीट के जंगल भी बह जाते हैं | निःसंदेह विकास आकर्षित करता है लेकिन नैसर्गिक विकास उससे कहीं अधिक आकर्षक होता है | सरल शब्दों में व्यक्त की गई चिंताओं के भी व्यापक अर्थ होते हैं जो देश काल समाज पर अमिट प्रभाव छोड़ते हैं | कुछ ऐसा ही मुझे इस पुस्तक के बारे में लगता है | पुस्तक इस बात के लिए भी महत्वपूर्ण है और युवाओं द्वारा पढ़ी जानी चाहिए कि इसमें सिर्फ भूतकाल की गलतियों पर चिंताएं ही नहीं वर्तमान के लिए चिंतन और भविष्य के लिए समाधान भी मौजूद हैं | एक जरूरी पठनीय पुस्तक के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं |

भारती पाठक

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