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छोटी नदियों की सेहत सुधारे बगैर नहीं बचेगी गंगा-यमुना

फोटो - गूगल

छोटी नदियों की सेहत सुधारे बगैर नहीं बचेगी गंगा-यमुना

पंकज चतुर्वेदी

 

गंगा देश की संस्कृति की पहचान और मानव विकास की सहयात्री है। इसके संरक्षण के अभी तक किये गए सभी प्रयास अमूर्त ही रहे हैं। 2014 में सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने गंगा को निर्मल और अविरल बनाने को खासा महत्व दिया था और इसके लिए नमामि गंगे योजना की घोषणा की थी। योजना पर काम अक्टूबर 2016 में आए आदेश के बाद से शुरु हो सका था।

वित्त वर्ष 2014-15 से लेकर 2020-2021 तक इस नमामि गंगे योजना के तहत पहले 20 हजार करोड़ रुपए खर्च करने का रोडमैप तैयार किया गया था जो कि बाद में बढ़ाकर 30 हजार करोड़ रुपए कर दिया गया। वहीं 2022-23 में योजना मद में 2047 करोड़ आवंटित किए गए थे। वित्त वर्ष 2023-24 में 4000 करोड़ रूपए का बजट अनुमान रखा गया हालांकि आवंटन केवल 2400 करोड़ रूपए का ही किया गया.

वहीं वित्तीय वर्ष 2024-25 में नमामि गंगे प्रोजेक्ट के फेज दो के लिए 3500 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है। यदि यमुना को लें तो उसमें भी बीते चार दशकों में इतने हजार करोड़ बह गए कि नई यमुना खोद दी  जाती। यह हमारा तंत्र समझ नहीं रहा कि हर बड़ी नदी की शिराएं उनसे जुड़ी छोटी नदियां होती हैं और बढ़ते शहरीकरण ने इन नदियों को समेटना और शून्य करना शुरू आकर दिया है। हम नदियों को सुंदर बनाने का विचार करते हैं लेकिन स्वस्थ बनाने के लिए अनिवार्य उनकी सखा-सहेलियों को गप्प कर रहे हैं।

वैसे तो हर दिन समाज, देश और धरती के लिए बहुत जरुरी है, लेकिन छोटी  नदियों  पर ध्यान देना अधिक  जरुरी है। गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने पर तो बहुत काम हो रहा है, पर ये नदियाँ बड़ी इसी लिए बनती है  क्योंकि इनमें बहुत सी छोटी नदियाँ आ कर मिलती हैं, यदि छोटी नदियों में पानी कम होगा तो बड़ी नदी भी सूखी रहेंगी, यदि छोटी नदी में गंदगी या प्रदूषण होगा तो वह बड़ी नदी को प्रभावित करेगा।

छोटी नदियां अक्सर गाँव, कस्बों में बहुत कम दूरी में बहती हैं।  कई बार एक ही नदी के अलग अलग गाँव
में अलग-अलग नाम होते हैं। बहुत नदियों का तो रिकार्ड भी नहीं है। हमारे लोक समाज  और प्राचीन मान्यता नदियों और जल को ले कर बहुत अलग थी, बड़ी नदियों से दूर घर-बस्ती हो। बड़ी नदी को अविरल बहने दिया जाए।

कोई बड़ा पर्व या त्यौहार हो तो बड़ी नदी के किनारे एकत्र हों, स्नान करें और पूजा करें। छोटी नदी, या तालाब या झील के आसपास बस्ती। यह जल संरचना दैनिक कार्य के लिए जैसे स्नान, कपडे धोने, मवेशी आदि के लिए। पीने की पानी के लिए घर- आँगन, मोहल्ले में कुआँ, जितना जल चाहिए, श्रम  करिए, उतना ही रस्सी से खिंच कर निकालिए। अब यदि बड़ी नदी बहती रहेगी तो छोटी नदी या तालाब में जल बना रहेगा,
यदि तालाब और छोटी नदी में  पर्याप्त जल है तो घर के कुएं में कभी जल की कमी नहीं होगी।

एक मोटा अनुमान है कि आज भी देश में कोई 12 हज़ार छोटी ऐसी नदियाँ हैं, जो उपेक्षित है, उनके अस्तित्व पर खतरा है। उन्नीसवीं सदी तक बिहार(आज के झारखंड को मिला कर ) कोई छः हज़ार  नदियाँ हिमालय से उतर कर आती थी, आज  इनमें से महज 400  से 600 का ही अस्तित्व बचा है।

मधुबनी, सुपौल  में बहने वाली  तिलयुगा नदी कभी  कौसी से भी विशाल हुआ करती  थी, आज उसकी जल धरा सिमट कर  कोसी की सहायक नदी के रूप में रह गई है। सीतामढ़ी की लखनदेई  नदी को तो सरकारी इमारतें ही चाट गई. नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ और सुखाड के दर्द साथ –साथ चलने की कहानी  देश के हर जिले और कसबे की है। लोग पानी के लिए पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है, उन्हें यह समझने में दिक्कत हो रही हैं कि धरती की कोख में जल भण्डार  तभी लबा-लब रहता है, जब पास बहने वाली नदिया
हंसती खेलती हो।

अंधाधुंध रेत खनन, जमीन  पर कब्जा, नदी के बाढ़ क्षेत्र में स्थाई निर्माण, ही  छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं – दुर्भाग्य से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं हैं, उनको  शातिर तरीके से  नाला बता दिया जाता है, जिस साहबी  नदी पर  शहर बसाने से हर साल गुरुग्राम डूबता है, उसका बहुत सा रिकार्ड ही नहीं हैं, झारखण्ड- बिहार में बीते चालीस साल के दौरान हज़ार से ज्यादा छोटी नदी गुम हो गई, हम यमुना में पैसा लगाते हैं लेकिन उसमें जहर ला रही हिंडन, काली को और गंदा करते हैं – कुल  मिला कर यह  नल खुला छोड़ कर पोंछा लगाने का श्रम करना जैसा है।

छोटी नदी केवल पानी के आवागमन का साधन नहीं होती। उसके चारों  तरफ समाज भी होता है और पर्यावरण भी। नदी किनारे किसान भी है और कुम्हार भी, मछुआरा भी और धीमर भी – नदी की सेहत बिगड़ी तो तालाब से ले कर कुएं तक में जल का संकट हुआ – सो परोक्ष और अपरोक्ष समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं
है जो इससे प्रभावित नहीं हुआ हो। नदी- तालाब से जुड़ कर पेट पालने वालों का जब जल-निधियों से आसरा ख़त्म हुआ तो  मजबूरन उन्हें पलायन करना पड़ा. इससे एक तरफ  जल निधियां दूषित हुईं तो  दूसरी तरफ बेलगाम शहरीकरण के चलते महा नगर अरबन स्लम में बदल रहे हैं। स्वास्थ्य, परिवहन और शिक्षा के संसाधन महानगरों में केन्द्रित होने के कारण ग्रामीण सामाजिक- आर्थिक संतुलन भी इससे गड़बड़ा रहा है। जाहिर है कि नदी-जीवी लोगों की निराशा ने समूचे समाज को समस्याओं की नई सौगात दी है।

सबसे पहले छोटी नदियों का एक सर्वे और उसके जल तन्त्र  का दस्तावेजीकरण हो, फिर छोटी नदियों कि अविरलता सुनिश्चित हो, फिर उससे रेत उत्खनन और  अतिक्रमण को मानव- द्रोह अर्थात हत्या की तरह गंभीर अपराध माना जाए। नदी के सीधे इस्तेमाल से बचें। नदी में पानी रहेगा तो तालाब, जोहड़, सम्रद्ध रहेंगे और इससे कुएं या भू जल। स्थानीय इस्तेमाल के लिए वर्षा जल को पारम्परिक तरीके जीला कर एक एक बूँद एकत्र किया जाए, नदी के किनारे  कीटनाशक के इस्तेमाल, साबुन  और शौच से परहेज के लिए जन जागरूकता और वैकल्पिक  तंत्र विकसित हो। सबसे बड़ी बात नदी को सहेजने का जिमा स्थानीय समाज, खासकर उससे सीधे जुड़े लोगों को दिया जाए, जैसे कि मद्रास से पुदुचेरी तक ऐरी के रखरखाव के जल-
पंचायत हैं।

बुंदेलखंड तो प्यास, पलायन के लिए बदनाम है। यहाँ के प्रमुख शहर छतरपुर में एक नदी की सेहत बिगड़ने से वेनिस की तरह जल से लबालब रहने वाला शहर भी प्यास हो गया। महाराजा छत्रसाल ने यह शहर बसाया था। यहाँ नदी के उतार चढाव की गुंजाईश कम ही है। तीन बरसाती नाले देखें– गठेवरा नाला, सटई रोड के नाला और चंदरपुरा गांव के बरसाती नाला। इन तीनों का पानी अलग–अलग रास्तों से डेरा पहाड़ी पर आता और यह जल–धारा एक नदी बन जाती।

चूंकि इसमें खूब सिंघाड़े होते तो लोगों ने इसका नाम सिंघाड़ी नदी रख दिया। छतरपुर कभी वेनिस  तरह था– हर तरफ तालाब और उसके किनारे बस्तियां और इन तालाबों से पानी का लेन–देन चलता था -सिंघाड़ी नदी का। बरसात की हर बूंद तीन नालों में आती और फिर एकाकार हो कर सिंघाडी नदी के रूप में प्रवाहित होती। इस नदी से तालाब जुड़े हुए थे, जो एक तो पानी को बहता हुआ निर्मल रखते, दूसरा यदि तालाब भर जाए तो उसका पानी नदी के जरिये से दूसरे तालाबों में बह जाता। सिंघाड़ी नदी से शहर का संकट मोचन तालाब और ग्वाल मगरा तालाब भी भरता था। इन तालाबों से प्रताप सागर और किशोर सागर तथा रानी तलैया भी नालों और ओनों (तालाब में ज्यादा जल होने पर जिस रास्ते से बाहर बहता है, उसे ओना कहते हैं)।से होकर जुड़े थे।

अभी दो दशक पहले तक संकट मोचन पहाड़िया के पास सिंघाड़ी नदी चोड़े पाट के साथ सालभर बहती थी। उसके किनारे घने जंगल थे, जिनमे हिरन, खरगोश, अजगर, तेंदुआ लोमड़ी जैसे  पर्याप्त जानवर भी थे। नदी किनारे श्मसान  घाट हुआ करता था।  कई खेत इससे सींचे जाते और कुछ लोग  ईंट के भट्टे लगाते थे। 

बीते दो दशक में ही नदी पर तट, पुलिया  और सौन्द्रयीकरण के नाम पर जम कर सीमेंट तो लगाया गया  लेकिन उसमें पानी की आवक की रास्ते  बंद कर दिए गए। आज नदी के नाम पर नाला रह गया है। इसकी धारा पूरी तरह सूख गई है। जहाँ कभी पानी था, अब वहां बालू-रेत उत्खनन वालों ने बहाव मार्ग को उबड़-खाबड़ और  दलदली बना दिया। छतरपुर शहरी सीमा में  एक तो जगह जगह जमीन के लोभ में जो कब्जे हुए
उससे नदी का तालाब से जोड़-घटाव की रास्तों पर विराम लग गया, फिर संकट मोचन पहाड़िया पर अब हरियाली की जगह कच्चे-पक्के मकान दिखने लगे, कभी बरसात की हर बूंद इस पहाड  पर रूकती थी और धीरे-धीरे रिस कर नदी को  पोषित करती थी। आज  यहाँ बन गए हजारों मकानों का अमल-मूत्र और गंदा
पानी सीधे सिंघाड़ी नदी में गिर कर उसे नाला बना रहा है।

जब यह नदी अपने पूरे स्वरूप में थी तो  छतरपुर शहर से निकल कर  कोई 22 किलोमीटर का सफर तय कर हमा, पिड़पा, कलानी गांव होते हुए उर्मिल नदी में मिल जाती थी। उर्मिल भी यमुना तंत्र की नदी है। नदी जिंदा थी तो शहर के सभी तालाब, कुएं भी लबालब रहते थे। दो दशक पहले तक यह नदी 12 महीने कल कल बहती रहती थी। इसमें पानी रहता था। शहर के सभी तालाबों को भरने में कभी सिंघाड़ी नदी की बहुत बड़ी भूमिका होती थी। तालाबों के कारण कुओं में अच्छा पानी रहता था, लेकिन आज वह खुद अपना ही असतित्व से जूझ रही है।

नदी की मुख्य धारा के मार्ग में अतिक्रमण होता जा रहा है। नदी के कछार ही नहीं प्रवाह मार्ग में ही लोगों ने
मकान बना लिए हैं । कई जगह धारा को तोड़ दिया गया है। पूरे नदी में कहीं भी एक बूंद पानी नहीं है। नदी के मार्ग में जो छोटे–छोटे रिपटा ओर बंधान बने थे वे भी खत्म हो गए हैं। पूरी नदी एक पगडंडी और ऊबड़–खाबड़ मैदान के रूप में तब्दील होकर रह गई है।

 जबकि दो दशक पहले तक इस नदी में हर समय पानी रहता था। नदी के घाट पर शहर के कई लोग हर दिन बड़ी संख्या में नहाने जाते थे। यहां पर पहुंचकर लोग योग–व्यायाम करते थे, कुश्ती लडऩे के लिए यहां पर अखाड़ा भी था। भूतेश्वर भगवान का मंदिर भी यहां प्राचीन समय से है। यह पूरा क्षेत्र हरे–भरे पेड़–पौधों और प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित था, लेकिन समय के साथ–साथ यहां का नैसर्गिक सौंदर्य नष्ट होता चला गया।  नदी अब त्रासदी बन गई है। आज नदी के आसपास रहने वाले लोग  मानसून के दिनों में भी एक से दो किलोमीटर दूर से सार्वजानिक हैण्ड पंप  से  पानी लाने को मजबूर है, जब-तब जल संकट का हल्ला होता है तो या तो भूजल उलीचने के लिए पम्प रोप जाते है या फिर मुहल्लों में पाइप बिछाए जाने लगते है, लेकिन इसका जवाब किसी के पास नहीं होता कि जमीन की कोख या पाइप में पानी कहाँ से आएगा ?

जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम अब सामने आ रहे हैं। ऐसे में  छोटी नदियाँ धरती  के तापमान को नियंत्रित रखने, मिटटी की नमी बनाए रखने और हरियाली के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं . नदिउओन के किनारे से
अतिक्रमण हटाने, उसमें से  बालू-रेत उत्खनन को  नियंत्रित करने, नदी की गहराई के लिए उसकी समय समय पर सफाई से इन नदियों को बचाया जा सकता है, सबसे बड़ी बात समाज यदि इन नदियों को अपना मान कर सहेजने लगे तो इससे समाज का ही भविष्य उज्जवल होगा।

 

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