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क्यों कामयाब नहीं है नमामि गंगे परियोजना

क्यों कामयाब नहीं है नमामि गंगे परियोजना

क्यों कामयाब नहीं है नमामि गंगे परियोजना

गंगा की  निर्मलता को नारों नहीं संकल्प की जरूरत

पंकज चतुर्वेदी

आस्था के केंद्र बनारस में गंगा और उससे मिलने वाली  सहायक धाराओं – वरुणा  और असि में  पारंपरिक देशी मछलियों  का मरना, उनकी संख्या कम होना  और इस इलाके में यदा कदा  ऐसी विदेशी अंछलियों का मिलना जो कि स्थानीय पर्यावरण को खतरा है , दर्शाता है कि नमामि गंगे परियोजना को अभी कागजों से ऊपर उठा कर बहुत  कुछ करना है । मछली और जल-चर  किसी भी जल धार का प्राण और मानक होती है । काशी हिन्दू विश्व विद्यालय के  प्राणी विभाग के एक ताजा शोध में बताया गया कि कि जानलेवा रसायनों के कारण गंगा, वरुणा और असि नदी में सिंघी और मांगुर समेत कई देसी प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं। यह बात  बहुत गंभीर है कि मछलियों की प्रजनन क्षमता 80 प्रतिशत तक घट गई है। शोध बताता है कि वैसे तो जो मछली जितनी अधिक वजन की होती है, उसके अंडे उतने ही अधिक होते हैं । एक मछली औसतन तीन से पांच लाख तक अंडे देती है, लेकिन गंगा में अब यह संख्या घाट कर 50 से 70 हजार हो आगी है ।

अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण पत्रिका “स्प्रिंगर” और पुणे से प्रकाशित होने वाली भारतीय शोध पत्रिका “डायमेंशन आफ लाइफ साइंस एंड सस्टेनेबल डेवलेपमेंट” में हाल ही में प्रकाशित शोध पत्र बतात है कि रसायन दवाओं, माइक्रो
प्लास्टिक, डिटर्जेंट, कास्मेटिक उत्पाद, पेंट,प्लास्टिक कचरा और रासायनिक खादों में मिलने वाले कि एल्काइल फिनोल और टर्ट-ब्यूटाइल फिनोल समेत कई विषाक्त रसायनों की वजह से गंगा और उसकी सहायक नदियों की मछलियों के अंडे देने की दर में भयानक गिरावट आई है । बीएचयू के प्राणी विज्ञान विभाग के प्रोफेसर राधा चौबे, सहायक प्रोफेसर डा. गीता गौतम का शोध बतात है कि रसायनों के कारण मछलियों की भ्रूण में मौत हो रही है । यही नहीं , मछलियों में विभिन्न तरीके के रोग भी लग रहे हैं जिनमें कशेरुक विकृति,पेट और दुम के क्षेत्र में रीढ़ की विकृति, अविकसित सिर के साथ और लिवर में भी समस्या पाई गई है । मछलियों की पूंछ  छोटी होना और पीछे की  तरफ मुड़  जाना  जैसे विकार व्यापक हैं । बढ़ते प्रदूषण के चलते अंडों का समय से पहले नष्ट हो जाने से मछलियों की आबादी तेजी से घट रही है । चिंता की बात यह भी है कि जानलेवा रक्षयनों सवे ग्रस्त मछलियाँ न नदी के लिए लाभदायक हैं और न ही उनका सेवन करने वाले इंसान के लिए ।

भारत की सबसे बड़ी नदी और दुनिया की पांचवीं सबसे लंबी नदी गंगा भारत के अस्तित्व, आस्था और जैव विविधता की पहचान है। नदी केवल जल की धारा नहीं होती, उसका अपना तंत्र होता है जिसमें उसके जलचर सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। गंगा-जल की पवित्रता को बरकरार रखने में उसके जल में लाखो साल से पाई जाने वाली मछलियों-कछुओं की अहम भूमिका है। जहां सरकार इसकी जल-धारा को  स्वच्छ बनाए रखने के लिए हजारों करोड़ की परियोजना का क्रियान्वयन कर रही है वहीं यह बहुत गंभीर  चेतावनी है कि गंगा में मछली की विविधता को खतरा पैदा हो रहा है और 29 से अधिक प्रजातियों को खतरे की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है। जान लें इसमें 143 किस्म की मछलियां पाई जाती हैं।

गंगा देश की संस्कृति की पहचान और मानव विकास की सहयात्री है । इसके संरक्षण के अभी तक किये गए सभी प्रयास अमूर्त ही रहे हैं । वित्त वर्ष 2014-15 से लेकर 2020-2021 तक इस नमामि गंगे योजना के तहत पहले 20 हजार करोड़ रुपए खर्च करने का रोडमैप तैयार किया गया था जो कि बाद में बढ़ाकर 30 हजार करोड़ रुपए कर दिया गया. वहीं 2022-23 में योजना मद में 2047 करोड़ आवंटित किए गए थे. वित्त वर्ष 2023-24 में 4000 करोड़ रूपए का बजट अनुमान रखा गया हालांकि आवंटन केवल 2400 करोड़ रूपए का ही किया गया. वहीं वित्तीय वर्ष 2024-25 में नमामि गंगे प्रोजेक्ट के फेज दो के लिए 3500 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है। कुल मिलाकर विभिन्न नामों गंगे परियोजनाओं के तहत लगभग 37,550 करोड़ रुपये मंजूर किए गए, लेकिन रिकॉर्ड के अनुसार जून 2024 तक केवल 18,033 करोड़ ही खर्च किए गए। अकेले सीवेज इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की लागत 15,039 करोड़ रुपये है।
परियोजनाओं की समीक्षा के लिए आयोजित बैठक के रिकॉर्ड में कहा गया है की एनएमसीजी के महानिदेशक ने पाया कि अब तक व्यय की गति बेहद धीमी है। उन्होंने उत्तर प्रदेश के अधिकारियों (जहाँ अधिकांश परियोजनाएँ हैं) से पूछा कि क्या कम क्यों हैं? जवाब में प्रतिक्रिया ने कहा कि जौनपुर, कासगंज, वाराणसी, बरौली, सलौरी और आगरा में छह परियोजनाओं पर 15.16 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। उन्होंने कहा कि अप्रैल या मई महीने की शुरुआत में जो धनराशि आई है, वह जून के मध्य में प्राप्त हुई है। अधिकारियों ने कहा कि 25 करोड़ रुपये का भुगतान प्रक्रिया बाधा है।

यदि गंभीरता से काम किया जाए तो तंत्र की पहली भूमिका होती कि नदी में  कम से काम अपशिष्ठ जाए । फिर नदी के किनारे के शहर-कस्बों को नदी एक साथ बेहतर व्यवहार करने की सीख और प्रक्रिया समझआई जाती। दुर्भाग्य है किस समूचा तंत्र अधिक  से अधिक एसटीपी लगाने में  व्यस्त है । यह बात सरकारी आँकड़े कहते हैं कि इस परियोजना के अंतर्गत गंगा के किनारे स्थित शहरों में सीवर व्यवस्था का दुरस्त करने, उद्योगों द्वारा बहाये जा रहे अपशिष्ट पदार्थों के निस्तारण के लिये शोधन संयंत्र लगाने, गंगा घाटों पर शौचालय, जैव विविधता को बचाने, गंगा बचाने की सभी पहलुओं काम नहीं बहुत हुआ।

और फिर एसटीपी पर हुए खर्च से क्या गंगा की सेहत सुधरी ? बीते एक महीनों के दौरान राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ( एन जी टी ) में  हुई कार्यवाही से इसका काला चिट्ठा उजागर हो चुका है ।  कितना दुर्भाग्य है कि गंगा अपने  उद्गम से ही दयनीय हो जाती है । अभी 05 नवंबर 2024 को एन जी टी, उत्तराखंड  में  प्रस्तुत आँकड़े बताते हैं कि गंगोत्री में एक मिलियन लीटर हर दिन की क्षमता वाले सीवर ट्रीटमेंट प्लांट से लिए गए नमूने में  100 एमएल पानी में फेकल कॉलीफॉर्म की मात्रा 540 पाई गई । सनद रहे फेकल कॉलीफॉर्म मनुष्यों और जानवरों के मल मूत्र से निकलने वाले सूक्ष्म जीवाणु से उपजे प्रदूषण को दर्शाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानक के मुताबिक नहाने और आचमन करने लायक पानी की गुणवत्ता  का मानक 500 से कम फेकल कॉलीफॉर्म प्रति 100 एमएल होता है। जाहिर है कि गंगोत्री  में  ही गंगा जल इंसान के इस्तेमाल के लायक नहीं हैं । फिलहाल एन जी टी ने उत्तराखंड के मुख्य सचिव को 13 फरवरी 2025 को विस्तार से रिपोर्ट देने को कहा गए है। एन जी टी के सामने यह भी उजागर हुआ कि कई हजार करोड़ खर्च कर उत्तराखंड में देहरादून‚ उत्तरकाशी‚ पौड़ी‚ चमोली‚ हरिद्वार‚ टिहरी में लगाए गए लगभग 53 सीवर ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) बेहद काम क्षमता के हैं और यह शहरी गंदगी को साफ करने में  असफल हैं ।

उत्तर प्रदेश के हालात तो और भी भयावह हैं । एन जी टी के सामने 22 अक्टूबर 2024 को यह स्वीकार करने में  किसी को शर्म नहीं आई कि राज्य के लक्षित 326 में  से 247 नायलॉन पर गंदे पानी को शुद्ध बनाने की व्यवस्था हो नहीं सकी है और लगभग 3513.16 एमएलडी सीवेज गंगा और सहायक नदियों में निरंतर गिर रहा है। उत्तर प्रदेश एनजीटी के अध्यक्ष जस्टिस प्रकाश श्रीवास्तव की पीठ के सामने 06 नवंबर 2024 को  तथ्य सामने आए कि गंगा और यमुना के संगम प्रयागराज में   निकलने वाले गंदे जल और स्थापित किए गए एस टी पी क्षमता में सीवेज शोधन क्षमता  में 128 एमएलडी का फरक है । यह भी सच है कि कोई भी एस टी पी कभी अपनी पूर्ण क्षमता  से तो काम करता नहीं । अर्थात प्रयागराज के कई नाले सीधे गंगा को गंदा कर रहे हैं । यहां 25 नाले बगैर शोधन के गंगा में और 15 यमुना में  गिर रहे हैं । जिस अपरियोजन को ले कर इतना प्रचार और खर्च किया गया हो, उसकी जमीनी हकीकत प्रयागराज में  दिखती है, जहां महाकुंभ की तैयारी चल रही है और करोड़ों लोग इसी नदी में  डुबकी लगाएंगे । इससे नदी में  प्रदूषण और बढ़ेगा ही।

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नमामि गंगे परियोजना के मुख्य स्तंभ

गंगा का दर्द उस बनारस में  असीम है जहां से प्रधानमंत्री खुद सांसद है और खुद को गंगा के आमंत्रण पर काशी जाने का उद्घोष करते रहे हैं । काशी को एक  व्यावसायिक माल बनाने के लिए बाद स्तर पर तोड़फोड़ और पूंजी लगाने वाली सरकार, इस नगर के आदिकाल से अस्तित्व के मूल कारण गंगा को आंकड़ों और कागजों पर ही निर्मल कर रही है । 18 नवंबर 2024 को एन जी टी के न्यायमूर्ति ने बनारस के जिलाधीश से सवाल किया कि क्या आप खुद गंगा जल को पी सकते हैं ? एनजीटी ने वाराणसी के डीएम से पूछा क्या आप गंगा का पानी पी सकते हैं? काशी का प्राण कहे जाने वाली असि और वरुणा नदी की दुर्दशा पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये दो याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई करते हुए एनजीटी की दो सदस्यीय पीठ ने वाराणसी के जिलाधिकारी से पूछा कि क्या आप गंगा का पानी पी सकते हैं? आप अपने आपको असहाय मत महसूस करिए। जिलाधिकारी हैं आप, अपनी शक्तियों का उपयोग करिए और एनजीटी के आदेश का अनुपालन सुनिश्चित करिए। नदी किनारे बोर्ड लगवा दीजिए कि गंगा जल नहाने और पीने योग्य नहीं है। न्यायमूर्ति अरुण कुमार त्यागी व विशेषज्ञ सदस्य डॉ. ए. सेंथिल ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि “गंगा का पानी नहाने व पीने योग्य नहीं है” इस बाबत सार्वजनिक सूचना क्यों नहीं लगवा देते ?

इन दिनों काशी में  गंगा घाट को जोड़ने वाली गलियों में भी सीवर जाम है। इसके चलते ओवरफ्लो कर सीवर का गंदा पानी सीधे गंगा में जा रहा है। मणिकर्णिका घाट पर सीवर का मल जल सीढ़ियों से लुढ़कता हुआ सीधे गंगा में जा रहा है। इसी प्रकार शीतला घाट, त्रिपुरा भैरवी घाट पर भी सीवर जाम है।  सेवर के पानी के चलते बहुत से घाटों पर फिसलन वाली काई जम गई है। इसी प्रकार घाट के आसपास के कई मोहल्लों में सीवर जाम होने से गंदा पानी गंगा में मिल रहा है। इससे गंगा भी प्रदूषित हो रही हैं। इस हालात पर जलकल व जल निगम विभाग एक दूसरे पर टालते हैं। राणा महल घाट व मीर घाट पर खुले में पेशाब करने के कारण घाट पर गंदगी व बदबू बनी हुई है। मणिकर्णिका घाट पर कफन व बांस इधर-उधर बिखरा है। नियमित सफाई नहीं हो रही है। जबकि  परियोजना में  इन सभी समस्याओं के निराकरण की बात और बजट भी था ।

 कैथी स्थित मार्कंडेय महादेव धाम क्षेत्र में पर्यटन विकास के लिए चंदौली के पूर्व सांसद डा. महेंद्र नाथ पांडेय की निधि से लगभग 20 करोड़ का खर्च कर गंगा-गोमती नदी किनारे घाट व पाथवे का निर्माण किया गया था। बाढ़ का पानी उतरने के बाद घाट व पाथवे गंगा की रेत से ढक गए हैं। स्थिति यह है कि गंगा नदी का पानी कम होने के बावजूद करोड़ों रुपये खर्च कर बनीं सीढ़ियां रेत से अब भी ढकी पड़ी हैं। इसकी सफाई के लिए जिला प्रशासन की ओर से कोई प्रयास नहीं किया गया। उत्तर प्रदेश के 23  जिलों‚ जो गंगा के किनारे बसे हैं‚ में से 12  जिलों में तो पानी को साफ करने की सुविधा तक मौजूद नहीं है

गंगा की सेहत बिहार में भी बहुत खराब है । अभी कार्तिक पूर्णिमा के दौरान पटना में  गंगा में  ठीक वैसे ही सफेद झाग दिख रहे थे जैसे कि  दिल्ली में  यमुना में  कुख्यात है । यहाँ दीघा नहर के जरिए कारखानों का रासायनिक जहर आ रहा है जिससे दीघा-पाटीपुल  घाट पर झाग होते हैं । बिहार प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक पटना जिले में  ही 507 ऐसे नाले चिन्हित किए गए हैं जिनका पानी बगैर किसी शोधन के गंगा में  जा रहा है ।

यह हमारा तंत्र समझ नहीं रहा कि हर बड़ी नदी की शिराएं उनसे जुड़ी छोटी नदियां होती हैं और बढ़ते शहरीकरण ने इन नदियों को समेटना और शून्य करना शुरू कर दिया है । गंगा को विशाल, समग्र और स्वच्छ स्वरूप देने में  कोई 7000 छोटी नदियां तो नेपाल की ही हैं  और शायद इतनी ही भारत की । गंगा को समृद्ध करती गोमती हो या काली‚ हिंडन‚ रामगंगा‚ तमसा‚ बेतवा‚ आसी‚ वरुणा सभी नाले से बदतर हो चुकी हैं । होता यह है कि हम मुख्य धार पर धन लगाते हैं और उसकी शिराओं को जाम आकर गंदा करते हैं । हम गंगा को सुंदर बनाने का विचार करते हैं लेकिन स्वस्थ बनाने के लिए अनिवार्य उनकी सखा-सहेलियों को गप्प कर रहे हैं ।

गंगा अभियान के नाम पर एक तो सौंदर्यीकरण पर जाम कर पैसा खर्च किया जा रहा है – घाटों को पक्का कर टाइल्स लगा देना, प्रकाश  व्यवस्था, रंगाई-पुताई, आदि  या फिर एस टी पी । अब हमारे यहाँ चार महीन बरसात में  जब नदी अपने यौवन पर होती है और  एस टी पी प्लांट भी लबा-लैब होते हैं, प्लांट बंद कर दिए जाते हैं और गंदगी बगैर शोधन के नदी में  मिलती रहती है । बाकी आठ महीने नदियों में  जैसे ही पानी काम हुआ उसमें प्रदूषण की सघनता बढ़ जाती है और संयंत्र हांफने लगते हैं । इस तरह आधे अधूरे शोधन से निकला दूषित पानी गंगा को जहर बनाता रहता है ।

सवाल यह है कि कि क्या गंगा को साफ किया ही नहीं जा सकता ?  किया तो जा सकता है लेकिन इसके लिए  इच्छा शक्ति को बाजार से मुक्त करना होगा और कुछ भौतिक लोभ की तिलांजलि देना होगा । केवल उत्तराखंड में  विभिन्न बांध, जल-विद्धुत परियोजनाएं ही गंगा की अविरल  धारा की दुश्मन हैं । इन पर सख्ती से रोक, गंगा की धार के किनारे  शहरीकारण पर नियंत्रण करने के लिए बहुत सी लॉबी से जूझना होगा । गंगा  से पोषित होर आहे खेतों में  राशयनिक खाद और कीटनाशक पर सख्ती से पाबंदी  घाटे का सौदा नहीं है । इन्हीं खेतों से बह कर सहायक नदियों , सटहनीय नायलॉन से सर्वाधिक जहर नदी में  जाता है । नदी में  क्रूज और मालवाहक जहाज चलाने जैसे दिखावे के चोंचलों को पड़े रख, नदी के ऊपरी कचरे की नियमित सफाई ही इसे दमका सकती है ।  गंगा को  आस्था का केंद्र रहने देन, उसे पर्यटन और पैसा कमाने के उद्देश्य से बनाई गई योजनाएं और कार्य इसको नुकसान ही पहुंचा रहे हैं ।

गंगा के कछारी क्षेत्र में कृषि में उपयोग में आने वाले उर्वरकों की मात्रा सौ लाख टन है, जिसका पांच लाख टन बहकर गंगा में मिल जाता है । 1500 टन कीटनाशक भी मिलता है । सैकडों टन रसायन, कारखानों, कपडा मिलों, डिस्टलरियों, चमडा उद्योग, बूचडखाने, अस्पताल और सकडों अन्य फैक्टरियों का निकला उपद्रव्य गंगा में मिलता है । 400 करोड लीटर अशोधित अपद्रव्य, 900 करोड अशोधित गंदा पानी गंगा में मिल जाता है । नगरों और मानवीय क्रियाकलापों से निकली गंदगी नहाने-धोने, पूजा-पूजन सामग्री, मूर्ति विसर्जन और दाह संस्कार से निकला प्रदूषण गंगा में समा जाता है । इन सभी पर नियंत्रण करना  कोई कठिन नहीं  लेकिन जटिल जरूर है ।

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