कुछ ही दिनों में बारिश के बादल अपने घरों को लौटने वाले हैं। सुबह सूरज कुछ देर से दिखेगा और जल्दी अंधेरा छाने लगेगा। असल में मौसम का यह बदलता मिजाज उमंगों- खुशहाली के स्वागत की तैयारी है । सनातन मान्यताओं की तरह प्रत्येक शुभ कार्य के पहले गजानन गणपति की आराधना अनिवार्य है और इसी लिए उत्सवों का प्रारंभ गणेश चतुर्थी से ही होता है।
कुछ साल पहले प्रधानमंत्री ‘मन की बात’ में अपील कर चुके हैं कि देव प्रतिमाएं प्लास्टर आफ पेरिस यानि पीओपी की नहीं बनाएं, मिट्टी की ही बनाएं । तेलंगाना, महाराष्ट्र , राजस्थान की सरकारें भी ऐसे आदेश जारी कर चुकी हैं। लेकिन राजधानी दिल्ली में नोएडा से अक्षरधाम आने वाले रास्ते सहित कई जगह धड़ल्ले से पीओपी की प्रतिमाएं बन रही हैं और बिक भी रही हैं। ऐसा ही दृश्य देश के हर बड़े-छोटे कस्बों में देखा जा सकता है।
यह तो प्रारंभ है, इसके बाद दुर्गा पूजा या नवरात्रि, विश्वकर्मा पूजा , दीपावली से ले कर होली तक एक के बाद एक के आने वाले त्योहार असल में किसी जाति- पंथ के नहीं, बल्कि भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं की मजबूत कड़ियाँ हैं ।
विडंबना है कि जिन पर्व-त्योहारों के रीति रिवाज, खानपान कभी समाज और प्रकृति के अनुरूप हुआ करते थे, आज पर्व के मायने हैं पर्यावरण, समाज और संस्कृति सभी का क्षरण। निर्देश, आदेश ,अदालतों के फरमान के बावजूद गणपति – पर्व का मिजाज बदलता नहीं दिख रहा है। महाराष्ट्र, उससे सटे गोवा, आंधप्रदेश व तेलगांना, छत्तीसगढ़, गुजरात व मप्र के मालवा-निमाड़ अंचल में पारंपरिक रूप से मनाया जाने वाला गणेशोत्सव अब देश में हर गांव-कस्बे तक फैल गया है।
दिल्ली में ही हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी मूर्तियां स्थापित हो रही हैं। यही नहीं मुंबई के प्रसिद्ध लाल बाग के राजा की ही तरह विशाल प्रतिमा, उसी नाम से यहां देखी जा सकती है। पारंपरिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी, जिसे प्राकृतिक रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था। आज प्रतिमाएं प्लास्टर आफ पेरिस से बन रही हैॅ, जिन्हें रासायनिक रंगों से पोता जाता है।
कुछ राज्य सरकारों ने प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियों को जब्त करने की चेतावनी भी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और पूरा बाजार घटिया रासायनिक रंगों से पुती प्लास्टर आफ पेरिस की प्रतिमाओं से पटा हुआ है। इंदौर के पत्रकार सुबोध खंडेलवाल ने गोबर व कुछ अन्य जड़ी बूटियों को मिला कर ऐसी गणेश प्रतिमाएं बनवाई जो पानी में एक घंटे में घर में ही घुल जाती है, लेकिन बड़े गणेश मंडलों ने ऐसे पर्यावरण-मित्र प्रयोगों को स्वीकार नहीं किया। बंबई मे भी गमले में बीज के साथ गणपति प्रतिमा के प्रयोग हुए लेकिन लोगों को तो चटक रंग वाली विशाल, पीओपी की जहरीली प्रतिमा में ही भगवान का तेज दिख रहा है।
गणेशात्सव का समापन होगा ही कि नवरात्रि में दुर्गा पूजा शुरू हो जाएगी। यह भी लगभग पूरे भारत में मनाया जाने लगा है। हर गांव-कस्बे में एक से अधिक स्थानों पर सार्वजनिक पूजा पंडाल बन रहे हैं। बीच में विश्वकर्मा पूजा भी आ गई और अब इसी की प्रतिमाएं बनाने की रिवाज शुरू हो गई है। कहना ना होगा कि प्रतिमा स्थापना कई हजार करोड़ की चंदा वसूली का जरिया है।
एक अनुमान है कि हर साल देश में इन तीन महीनों के दौरान 10 लाख से ज्यादा प्रतिमाएं बनती हैं और इनमें से 90 फीसदी प्लास्टर आफ पेरिस की होती है। इस तरह देश के ताल-तलैया, नदियों-समुद्र में नब्बे दिनों में कई सौ टन प्लास्टर आफ पेरिस, रासायनिक रंग, पूजा सामग्री मिल जाती है। पीओपी ऐसा पदार्थ है जो कभी समाप्त नहीं होता है। इससे वातावरण में प्रदूषण का मात्रा के बढ़ने की संभावना बहुत अधिक है।
प्लास्टर आफ पेरिस, कैल्शियम सल्फेट हेमी हाइड्रेट होता है जो कि जिप्सम (कैल्शियम सल्फेट डीहाइड्रेट) से बनता है चूंकि ज्यादातर मूर्तियां पानी में न घुलने वाले प्लास्टर आफ पेरिस से बनी होती है, उन्हें विषैले एवं पानी में न घुलने वाले नॉन बायोडिग्रेडेबेल रंगों में रंगा जाता है, इसलिए हर साल इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी की बॉयोलॉजिकल आक्सीजन डिमांड तेजी से घट जाती है जो जलजन्य जीवों के लिए कहर बनता है।
हर साल देश के विभिन्न नदी और तालाब तट से ऐसी खबरें आती हैं कि मूर्तियों के विसर्जन के बाद लाखों की तादाद में मछलियां मर जाती हैं।वैसे बहुत से राज्य ऐसी प्रतिमाओं को नदी-तालाब के स्थान पर कृत्रिम बनाए गए तालाबों में विसर्जन की व्यवस्था कर रहे हैं लेकिन इस तरह विसर्जित प्रतिमाओं का जहर भी अंततः प्रकृति में ही घुलता है ।
मानसून में नदियों के साथ ढेर सारी मिट्टी बह कर आती है। चिकनी मिट्टी, पीली, काली या लाल मिट्टी । परंपरा तो ही थी कि कुम्हार नदी-सरिताओं के तट से यह चिकनी महीन मिट्टी ले कर आता था और उससे प्रतिमा गढ़ता था। पूजा होती थी और -‘‘तेरा तुझको अर्पण’ की सनातन परंपरा के अनुसार उस मिट्टी को फिर से जल में ही प्रवाहित कर दिया जाता था। प्रतिमा के साथ अन्न, फल विसर्जित होता था जो कि जल-चरों के लिए भोजन होता था।
सभी जानते हैं कि अगस्त के बाद मछलियों के अंडों से बच्चे निकलते हैं और उन्हें ढेर सारे भोजन की जरूरत होती है । नदी में रहने वाले मछली-कछुए आदि ही तो जल को शुद्ध रखने में भूमिका निभाते हैं। उन्हें भी प्रसाद मिलना चाहिए। लेकिन आज तो हम नदी में जहर बहा रहे हैं जो जल चरों का काल बना है। सवाल खड़ा होता है कि तो क्या पर्व-त्योहारों का विस्तार गलत है?
इन्हें मनाना बंद कर देना चाहिए? एक तो हमें प्रत्येक त्योहर की मूल आत्मा को समझना होगा, जरूरी तो नहीं कि बड़ी प्रतिमा बनाने से ही भगवान ज्यादा खुश होंगे ! क्या छोटी प्रतिमा बना कर उसका विसर्जन जल-निधियों की जगह अन्य किसी तरीके से करके, प्रतिमाओं को बनाने में पर्यावरण मित्र सामग्री का इस्तेमाल करने जैसे प्रयोग तो किए जा सकते हैं!
पूजा सामग्री में प्लास्टिक या पोलीथीन का प्रयोग वर्जित करना, फूल- ज्वारे आदि को स्थानीय बगीचे में जमीन में दबा कर उसका कंपोस्ट बनाना, चढ़ावे के फल , अन्य सामग्री को जरूरतमंदों को बांटना, बिजली की जगह मिट्टी के दीयों का प्रयोग ज्यादा करना, तेज ध्वनि बजाने से बचना जैसे साघारण से प्रयोग हैंं ; जो पर्वो से उत्पन्न प्रदूषण व उससे उपजने वाली बीमारियां पर काफी हद तक रोक लगा सकते हैं। पर्व आपसी सौहार्द बढ़ाने, स्नेह व उमंग का संचार करने के और बदलते मौसम में स्फूर्ति के संचार के वाहक होते हैं। इन्हें अपने मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी भी समाज की है।
भारतीय पर्व असल में प्रकृति को उसकी देन- आशीर्वाद के लिए धन्यवाद देने के लिए होते हैं, लेकिन इस पर बाजारवाद जो रंग चढ़ा है, उससे वे प्रकृति-हंता बन कर उभरे है। प्रशासन के लिए भी प्रधानमंत्री की अपील काफी है कि वह बलात पीओपी की प्रतिमाओं के निर्माण पर पाबंदी लगाए। समाज को भी गणपति या देवी प्रतिमाओं को पानी में विसर्जित करने के बजाए जमींदोज करने के विकल्प पर विचार करना चाहिए।