फfloodrain and disaster

जहां सूखा ,वहीं बाढ़

रोहित कौशिक

     बारिश और बाढ़ के कारण भारत के कई राज्यों में भारी तबाही हुई है। एक तरफ नदियां उफान पर है तो दूसरी तरफ पहाड़ टूट रहे हैं। गुजरात में पिछले कई दिनों से बारिश का कहर जारी है। मूसलाधार बारिश के बाद आई बाढ़ के कारण जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। गुजरात में बाढ़ के कारण कई लोगों की मौत हो चुकी है। राजस्थान में कई जगहों पर भारी बारिश के कारण स्थिति खराब हो गई है। बिहार में भी कई जगहों पर गंगा का जलस्तर खतरे के निशान से पार पहुंचने के कारण हालात खराब हैं। हिमाचल प्रदेश में भारी बारिश से भूस्खलन होने के कारण कई सड़कें बंद हैं। त्रिपुरा में भी बाढ़ ने भारी तबाही मचाई है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और नगालैंड में भी यही हाल हैं। भारी बारिश की वजह से देश के कई हिस्सों में बाढ़ के हालात बन गए हैं। विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए जिस तरह से जंगलों को नष्ट किया गया और पेड़ों की कटाई की गई, उसने स्थिति को और भयावह बना दिया। इस भयावह स्थिति के कारण मानसून तो प्रभावित हुआ ही, भू-क्षरण एवं नदियों द्वारा कटाव किए जाने की प्रवृति भी बढ़ी।

     बाढ़ और सूखा पुराने जमाने से ही हमारे जीवन को परेशानी में डालते रहे हैं। बाढ़ और सूखा केवल प्राकृतिक आपदाएं भर नहीं हैं बल्कि ये एक तरह से प्रकृति की चेतावनियां भी हैं। सवाल यह है कि क्या हम पढ़-लिख लेने के बावजूद प्रकृति की इन चेतावनियों को समझ पाते हैं। यह विडम्बना ही है कि पहले से अधिक पढ़े-लिखे समाज में प्रकृति के साथ सामन्जस्य बैठाकर जीवन जीने की समझदारी अभी भी विकसित नहीं हो पाई है। बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं पहले भी आती थीं लेकिन उनका अपना एक अलग शास्त्र और तंत्र था। इस दौर में मौसम विभाग की भविष्यवाणियों के बावजूद हम बाढ़ का पूर्वानुमान नहीं लगा पाते हैं। दरअसल प्रकृति के साथ जिस तरह का सौतेला व्यवहार हम कर रहे हैं उसी तरह का सौतेला व्यवहार प्रकृति भी हमारे साथ कर रही है। पिछले कुछ समय से भारत को जिस तरह से सूखे और बाढ़ का सामना करना पडा है वह आईपीसीसी की जलवायु परिवर्तन पर आधारित उस रिपोर्ट का ध्यान दिलाती है जिसमें जलवायु परिवर्तन के कारण देश को बाढ़ और सूखे जैसी आपदाएं झेलने की चेतावनी दी गई थी। आज ग्लोबल वार्मिंग जैसा शब्द इतना प्रचलित हो गया है कि इस मुद्दे पर हम एक बनी-बनाई लीक पर ही चलना चाहते हैं। यही कारण है कि कभी हम आईपीसीसी की रिपोर्ट को सन्देह की नजर से देखने लगते हैं तो कभी ग्लोबल वार्मिंग को अनावश्यक हौव्वा मानने लगते है। यह विडम्बना ही है कि इस मुद्दे पर हम बार-बार सच से मुंह मोड़ना चाहते हैं। दरअसल प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा जलवायु परिवर्तन के किस रूप में हमारे सामने होगा ,यह नहीं कहा जा सकता है। जलवायु परिवर्तन का एक ही जगह पर अलग-अलग असर हो सकता है। यही कारण है कि हम बार-बार बाढ़ और सूखे का ऐसा पूर्वानुमान नहीं लगा पाते हैं जिससे कि लोगों के जान-माल की समय रहते पर्याप्त सुरक्षा हो सके। शहरों और कस्बों में होने वाले जल भराव के लिए काफी हद तक हम भी जिम्मेदार हैं। पिछले कुछ वर्षों में कस्बों और शहरों में जो विकास और विस्तार हुआ है, उसमें पानी की समुचित निकासी की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। गन्दे नालों की पर्याप्त सफाई न हाने से उनकी पानी बहाकर ले जाने की क्षमता लगातार कम हो रही है। यही कारण है कि देश के अधिकतर कस्बों और शहरों में थोड़ी बारिश होने पर ही सड़कों पानी भर जाता है। 

     गौरतलब है कि 1950 में हमारे यहां लगभग ढाई करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी थी जहां पर बाढ़ आती थी लेकिन अब लगभग सात करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी है जिस पर बाढ़ आती है। इसकी निकासी का कोई समुचित तरीका भी नहीं है। हमारे देश में केवल चार महीनों के भीतर ही लगभग अस्सी फीसद पानी गिरता है। उसका वितरण इतना असमान है कि कुछ इलाके बाढ़ और बाकी इलाके सूखा झेलने को अभिशप्त हैं। इस तरह की भौगोलिक असमानताएं हमें बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हैं। पानी का सवाल हमारे देश की जैविक आवश्यकता से भी जुड़ा है। दरअसल पानी के समान वितरण की व्यवस्था किए बगैर हम विकास के किसी भी आयाम के बारे में नहीं सोच सकते हैं। हमें यह सोचना होगा कि बाढ़ के पानी का सदुपयोग कैसे किया जाए। बाढ़ के सम्बन्ध में विशेषज्ञ यह चेतावनी देते रहते हैं कि भविष्य में बाढ़ की प्रवृत्ति और प्रकृति लगातार बदलती रहेगी। इसलिए हमें एक तरफ अपने आपदा प्रबन्ध तंत्र को जागरूक और सक्रिय बनाना होगा तो दूसरी तरफ अपने पारम्परिक जल स्रोतों पर भी गम्भीरता से ध्यान देना होगा। गौरतलब है कि पूरे देश में बाढ़ से होने वाले नुकसान का लगभग साठ फीसद नुकसान उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, आसाम और आन्ध्र प्रदेश में आई बाढ़ के माध्यम से होता है। बाढ़ पर राष्टीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में बाढ़ के कारण हर साल करोड़ों रुपए का नुकसान होता है। यह नुकसान लगातार बढ़ता ही जा रहा है। बाढ़ केवल हमारे देश में कहर नहीं ढा रही है बल्कि चीन ,बांग्लादेश पाकिस्तान और नेपाल जैसे देश भी इसी तरह की समस्या से जूझ रहे हैं। हालांकि हमारे देश में सूखे और बाढ़ से पीडित लोगों के लिए अनेक घोषणाएं की जाती हैं लेकिन मात्र घोषणाओं के सहारे ही  पीडितो का दर्द कम नहीं होता है। सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि इन घोषणाओं का लाभ वास्तव में पीडितो तक भी पहुंचे।

Rohit Kaushik  , A well-known Journalist and writer . He is a partt of Indiaclimatechange.com team