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प्रकृति को पस्त करके विकसित होने की मारामार में लगा कथित आधुनिक समाज अपने को कालजयी मानने की गफलत भी पाले रहता है, हालांकि उसे अक्सर अपनी इस मान्यता की कीमत भी चुकानी पड़ती है। ठीक इसी दौर में दक्षिण, उत्तर और पूर्वोत्तर के राज्यों में जारी तबाही इसी बेशर्म इंसानी गफलत को उजागर कर रही हैं। ऐसे में क्या कुछ छोटे, खुद कर सकने योग्य कदम नहीं उठाए जा सकते? प्रस्तुत है, ऐसी ही कोशिश के बारे में बताता पवन नागर का यह लेख।

पवन नागर

लगातार बढ़ती आबादी के दबाव और येन-केन-प्रकारेण जीडीपी को बढ़ाते जाने की अंधी महत्वाकांक्षा वाले वर्तमान दौर में हर किसी पर औद्योगिक क्रांति का भूत सवार है और इसीलिए जंगलों और पहाड़ों को काटकर बड़े-बड़े कारखाने लगाए जा रहे हैं, बड़े-बड़े बाँध बनाए जा रहे हैं, खनिज निकाले जा रहे हैं, टाऊनशिप बनाई जा रही हैं। बहुत से राज्यों से आए दिन खबरें आती रहती हैं कि किस तरह जंगल माफिया, खनिज माफिया, भू-माफिया तथा रेत माफिया मिलकर जंगल, नदी, पहाड़ और खेतों को तबाह करने में जुटे हुए हैं।
हरे-भरे वृक्षों को बेरहमी से काटने वाले हम मनुष्यों को यह भी होश नहीं है कि यही पेड़-पौधे वातावरण में ऑक्सीजन के एकमात्र उत्पादक हैं, इन्हीं की वजह से बारिश होती है और इन्हीं की वजह से मिट्टी में नमी बरकरार रहती है। हमारी सारी धन-दौलत मिलकर भी वह वातावरण पैदा नहीं कर सकती जो हमारे ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी है और जो केवल और केवल पेड़-पौधे हमारे लिए निर्मित करते हैं- बदले में बिना कुछ मांगे। जो काम ये पेड़-पौधे करते हैं वह आधुनिकतम वैज्ञानिक तकनीक से भी संभव नहीं है।
यदि इसी प्रकार हम अपने जंगलों व पहाड़ों को नष्ट करते रहे और पर्यावरण में प्रदूषण फैलाते रहे, तो दिनों-दिन धरती का तापमान बढ़ता जाएगा और मौसम-चक्र प्रभावित होगा। कहीं ज़रूरत से ज्यादा गर्मी पड़ेगी तो कहीं ज़रूरत से ज्यादा ठंड। कहीं बेलगाम बाढ़ें आएँगी तो कहीं भीषण सूखा पड़ेगा। उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, केरल सरीखे विभिन्न राज्यों की त्रासदियाँ इसी तरह की चेतावनियाँ हैं और इस सबका प्रतिकूल प्रभाव फसलों के उत्पादन पर भी पड़ेगा, फलस्वरूप खाद्य-संकट पैदा होगा। यदि प्रकृति के अंधाधुंध दोहन का हमारा लालच और विकास की अंधी महत्वाकांक्षा इसी तरह बेलगाम बढ़ते रहे तो बहुत जल्द सब कुछ तबाह हो जाएगा।
पहले के समय में किसान अपने खेतों की मेढ़ों पर बबूल, सागौन, नीम, साल इत्यादि के पेड़ लगाया करते थे क्योंकि वे जानते थे ये पेड़ न केवल मिट्टी के कटाव को रोकते हैं बल्कि मिट्टी में नमी का अपेक्षित स्तर भी बनाए रखते हैं। नहरों के किनारे सीताफल, आम, कटहल, जाम, जामुन इत्यादि फलदार वृक्ष लगाए जाते थे, क्योंकि प्रकृति से जुड़ाव रखने वाला पहले का किसान जानता था कि इन वृक्षों पर रहने वाले पक्षी कीड़ों को खाकर मुफ्त में उसकी फसल की रक्षा करते हैं और उसे कीटनाशकों की आवश्यकता नहीं पड़ती।
अब हम भूल रहे हैं कि हमारे आसपास मौजूद हरियाली हमारे लिए एक मज़बूत सुरक्षा-कवच का काम करती है और हमें हर तरह के प्रदूषण तथा उनसे पैदा होने वाली असाध्य बीमारियों से बचाती है। जब तक पेड़ हैं, तब तक हम निश्चिंत हैं। एक पेड़ अपनी पूरी ज़िंदगी में हज़ारों मनुष्यों तथा अन्य जीव-जंतुओं को जीवन देता है, लेकिन हम चंद रुपयों के लालच में उसे काट डालने से बाज़ नहीं आ रहे।
यदि हर मनुष्य, हर किसान और हर परिवार यह निश्चय कर ले कि वह अपने जीवनकाल में कम-से-कम एक पेड़ अवश्य लगाएगा और उसका पालन-पोषण करेगा, तो कुछ ही वर्षों में यह पूरी भारत भूमि पुनः हरी-भरी और समृद्ध हो सकती है। सोचिए, यदि एक किसान परिवार अपने खेत में चार पेड़ (परिवार के प्रत्येक सदस्य के हिसाब से) भी लगा ले और उसके गाँव में यदि कुल 200 परिवार हों, तो उस क्षेत्र में कम-से-कम 800 पेड़ लहलहाते नज़र आएँगे। कितना हरा-भरा और सुरम्य हो उठेगा, वहाँ का वातावरण! प्रकृति हर वर्ष वर्षा ऋतु में हमें एक अवसर देती है कि हम अपने आसपास उपलब्ध जगह में पेड़-पौधे लगाकर वातावरण को अनुकूल बनाने में योगदान कर सकें। हमें इस मौके को अवश्य भुनाना चाहिए और अपने घर या आस-पड़ौस में कोई उपयुक्त स्थान देखकर वृक्षारोपण अवश्य करना चाहिए। भारत देश में जगह की कमी नहीं है। कमी है केवल अच्छी, सच्ची सोच की और ईमानदारी से प्रयास करने की।
सरकारों के पास किसी भी नियम या अभियान को अमल में लाने के सारे संसाधन उपलब्ध हैं इसलिए केन्द्रीय और राज्य सरकारों के लिए एक सुझाव है कि वे हर राष्ट्रीय और सामुदायिक त्यौहारों पर हर साल पेड लगाने का अभियान चलाएं। यदि इस सुझाव पर सही तरीके से अमल किया जाये तो हिंदुस्तान में इतने पेड़ लग जायेंगे कि कभी सरकार के जिम्मेदारों ने कल्पना भी नहीं की होगी, मसलन अभी 15 अगस्त को हम ‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाने जा रहे हैं जिसे पूरे देश में बड़े ही जोश, उत्साह और धूम-धाम से मनाया जाता है। ऐसे पर्व को यादगार तरीके से मानने का सबका अधिकार है, इस में दो राय नहीं, इस उत्सव को मनाने में सब सरकारें खूब खर्चा करती हैं और करना भी चाहिए, यह उत्सव सभी स्कूलों के साथ-साथ सभी सरकारी दफ्तरों और पूरे देश में जोश से मनाया जाता है। इसमें हर उम्र, वर्ग के लोग शामिल होंगे और बढ़-चढ़कर हिस्सा लेंगे।
‘स्वतंत्रता दिवस’ सावन महीने में आता है और सावन के महीने में वर्षा भी खूब होती है, सरकार को इसी मौके को भुनाना है और एक अभियान “आज़ादी भी और हरियाली भी” छेड़ देना है। आज़ादी के महापर्व को सुबह के समय ‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाने के बाद दिनभर सभी पेड़ लगाएं। इस दिन पूरे देश में वैसे भी अवकाश रहता है और यदि पेड़ लगाने को भी राष्ट्रीयता के साथ जोड़ दिया जाए तो भारत को हरा-भरा होने में समय नहीं लगेगा। पेड़ लगाना भी एक तरह का राष्ट्रवाद ही है जो राष्ट्र की तरक्की से जुडा है।
सोचिये, हर 15 अगस्त को पूरे भारत में “आज़ादी भी हरियाली भी” अभियान से कितने ही पेड़ों की संख्या बढ़ती जाएगी। लगभग हर नागरिक और सरकार की इसमें भागीदारी होगी। इसे अमल में लाना भी बहुत ही आसान होगा। इस प्रकार हम राष्ट्र निर्माण में तो सहयोग देंगे ही साथ-ही-साथ प्रकृति की सुरक्षा में भी योगदान दे पायेंगे। इससे वन क्षेत्र को बढ़ा सकते हैं और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को भी कम कर सकते हैं। अधिक पेड़ होने से तापमान भी कम हो जायेगा और सभी राज्यों में वन क्षेत्र बढे़गा तो कहीं ज्यादा, कहीं कम बारिश की परेशानी भी खत्म हो जाएगी।   

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