इस समय देश के कई हिस्से बारिश और बाढ़ से जूझ रहे हैं।
रोहित कौशिक
इस समय देश के कई हिस्से बारिश और बाढ़ से जूझ रहे हैं। हालांकि देश के अनेक हिस्सों में अभी भी अच्छी बारिश नहीं हुई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही हम मानसून के दौरान बारिश के पानी को बचाने का कोई प्रयास नहीं करते हैं। इसलिए बारिश में बड़ी मात्रा में जल बेकार बह जाता है। इस बारिश में हम जल संरक्षण के माध्यम से बारिश के पानी का सदुपयोग कर सकते हैं। इससे एक तरफ जल संकट कम होगा तो दूसरी तरफ हम जल को बेकार बहा देने के पाप से भी बच जाएंगे। इस दौर में जबकि जल संकट लगातार गहराता जा रहा है, हम जागरूक रहकर काफी मात्रा में पानी बचा सकते हैं। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी विश्व जल रिपोर्ट में जल संकट को लेकर चिन्ता व्यक्त की गई थी।
इस रिपोर्ट में कहा गया था कि कृषि की बढ़ती जरूरतों ,खाद्यान उत्पादन ,ऊर्जा उपभोग ,प्रदूषण और जल प्रबन्धन की कमजोरियों की वजह से स्वच्छ जल पर दबाव बढ़ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार विश्व के कई देश गंभीर जल संकट से जूझ रहे हैं। ऐसी स्थिति में यदि पानी की बर्बादी नहीं रोकी गई तो यह समस्या विकराल रूप ले सकती है। हमारे देश में भी वैज्ञानिकों ने घोषणा की है कि भूजल स्तर घटने के कारण जल्दी ही देश को गम्भीर जल संकट का सामना करना पडे़गा। कहा जा रहा है कि अगला महायुद्ध पानी को लेकर ही होगा इसलिए पिछले कुछ समय से बुद्धिजीवियों द्वारा पानी को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है। यह चिंता वाजिब है क्योंकि उत्तर प्रदेश ,मध्य प्रदेश ,हरियाणा ,पंजाब ,गुजरात और तमिलनाडु समेत देश के अनेक भागों में भूजल स्तर बहुत नीचे चला गया है।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज जल संकट को लेकर चिंता तो व्यक्त की जा रही है लेकिन इस संकट से निपटने हेतु गंभीरता से प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। हालांकि आज जल संकट से देश का आम आदमी ही अधिक जूझ रहा है लेकिन उसमें इस संकट से उबरने को लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई देती है। जल संकट जब तक आम आदमी की चिंता नहीं बनेगा तब तक इस संकट से उबरने की सोचना शायद दिवास्वप्न ही होगा। इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि जल संकट की चिंता बुद्धिजीवियों की गोष्ठियों से निकलकर आम आदमी तक भी पहुंचे। यह तभी सम्भव हो पाएगा जबकि आम जनता के बीच इस विषय को लेकर युद्ध स्तर पर जागरूकता अभियान चलाया जाएगा।
बुद्धिजीवियों द्वारा जब भी जल संकट की चर्चा की जाती है तो इस चर्चा में वर्षा जल के संग्रहण की सलाह दी जाती है। सरकार जन-जागरण अभियान के तहत सरकारी औपचारिकताओं को निभाने के लिए पत्र-पत्रिकाओं में भी वर्षा जल संग्रहण के विज्ञापन प्रकाशित कराती है। लेकिन इस मामले में अभी तक नतीजा ढाक के तीन पात ही है। गौरतलब है कि भारत में मात्र पन्द्रह प्रतिशत जल का ही उपयोग होता है शेष जल बेकार बहकर समुद्र में चला जाता है। इस मामले में इजराइल जैसे देश ने ,जहां वर्षा का औसत 25 सेमी से भी कम है ,एक अनोखा उदाहरण पेश किया है। वहां जल की एक बूंद भी खराब नहीं जाती है। अतिविकसित जल प्रबन्धन तकनीक के कारण वहां जल की कमी नहीं होती है।
जल संकट से निपटने के लिए हमें भी अपने देश में ऐसा ही उदाहरण पेश करना होगा। वर्षा के जल को जितना हम जमीन के अन्दर जाने देंगे उतना ही हम जल संकट को दूर रखेंगे। इस विधि से मिटटी का कटाव भी रुकेगा और हमारे देश को सूखे और अकाल का सामना भी नहीं करना पडेगा। एक आंकडे के अनुसार यदि हम देश के जमीनी क्षेत्रफल में से सिर्फ पांच फीसदी क्षेत्र में होने वाली वर्षा के जल का संग्रहण कर सके तो एक बिलियन लोगों को प्रतिव्यक्ति सौ लीटर पानी प्रतिदिन मिल सकता है। आज हालात यह हैं कि वर्षा का 85 फीसदी जल बरसाती नदियों के माध्यम से समुद्र में बेकार बह जाता है। फलस्वरूप निचले इलाको में बाढ़ आ जाती है। यदि इस जल को जमीन के भीतर पहुंचा दिया जाए तो इससे एक ओर बाढ़ की समस्या काफी हद तक समाप्त हो जाएगी वहीं दूसरी ओर भूजल स्तर भी बढ़ेगा।
जनसंख्या में हुई तीव्र वद्धि से हमारे देश में जल की खपत लगातार बढ़ती जा रही है। हालांकि सतही एवं भूमिगत दोनो ही स्रोतों से जल का उपयोग किया जा रहा है लेकिन भूमिगत जल पर हमारी निर्भरता कुछ अधिक ही है। भूमिगत जल की अत्यधिक निकासी से इसका जल स्तर लगातार नीचे खिसकता जा रहा है। गौरतलब है कि दुनिया के क्षेत्रफल का लगभग सत्तर फीसदी भाग जल से भरा हुआ है लेकिन पीने लायक मीठा जल सिर्फ तीन फीसदी ही है। शेष खारा जल है। इसमे से भी हम सिर्फ एक फीसदी मीठे जल का ही उपयोग करते हैं। धरती पर उपलब्ध सम्पूर्ण जल ,जल चक्र मे चक्कर लगाता रहता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि औद्योगीकरण एवं जनसंख्या विस्फोट के कारण जहां एक ओर जल प्रदूषण बढ़ रहा है तो वहीं दूसरी ओर जल चक्र भी बिगड़ता जा रहा है।
हालांकि विश्व में उपलब्ध कुल जल की मात्रा आज भी उतनी ही है जितनी कि दो हजार साल पहले थी। अन्तर है तो बस इतना कि उस समय पृथ्वी की जनसंख्या आज की तुलना में सिर्फ तीन फीसद ही थी। हमारे देश में समस्त उपलब्ध जल के 90 प्रतिशत का उपयोग कृषि उत्पादन में किया जाता है ,जिसमें खाद्य उत्पादन का अनुपात 35 प्रतिशत है। यदि कृषि उत्पादन में समुचित जल निकासी एवं जल उपयोग के वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल किया जाए तो बीस फीसद तक जल की बचत हो सकती है। इसी प्रकार दुनिया का लगभग 22 फीसद जल उद्योगों में उपयोग किया जाता है। यदि औद्योगिक क्षेत्र पानी की बचत करना शुरू करें और पानी का दोबारा उपयोग सुनिश्चित करे तो इस संकट से काफी हद तक बचा जा सकता है।
हालांकि जल संकट से निपटने हेतु जल संग्रहण के प्रति आम जनता जागरूक नहीं है लेकिन कुछ स्थानो पर स्थानीय लोगों ने जल संग्रहण के सराहनीय प्रयास किए है जो अनुकरणीय है। जल संरक्षण के क्षेत्र में सुन्दर लाल बहुगुणा और जलपुरुष राजेन्द्र सिंह जैसे व्यक्तित्व भी हमें प्रेरणा दे सकते हैं। आज हमने भले ही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे कितनी भी तरक्की क्यों न कर ली हो लेकिन मौजूदा जल संकट से निपटने हेतु आज भी हमें अपनी पुरानी तकनीक को ही अपनाना होगा। हम स्वयं भी अपने मकान की छत पर वर्षा जल को एकत्रित करके मकान के नीचे भूमिगत अथवा भूमि के ऊपर टैंक में जमा कर सकते है।
प्रत्येक बारिश के मौसम मे सौ वर्ग मीटर आकार की छत पर 65000 लीटर वर्षा जल एकत्रित किया जा सकता है जिससे चार सदस्यों वाले एक परिवार की पेयजल और घरेलू जल आवश्यकताएं 160 दिनों तक पूरी हो सकती है। भारत जैसे देश में जहां पानी का प्रमुख स्रोत बरसात ही है वहां पर रेन वॉटर हार्वेस्टिंग या पानी को जमा करना बेहतर उपाय है।
जल को जीवन कहा गया है । प्राचीन काल में भी जल संरक्षण को महत्व दिया जाता था। बलूचिस्तान में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में तथा सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों में जल संरक्षण के प्रमाण मिलते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी वर्षा जल से सिचाई की तकनीक विकसित होने के प्रमाण मिले हैं। अथर्ववेद में जल को दवा कहा गया है जबकि श्रीस्कंदपुराण में जलाशय निर्माण करने वाले व्यक्ति को स्वर्ग में स्थान मिलने की बात कही गई है। बहरहाल इस समय तो हमें अपने इस जीवन को नरक न बनने देने के प्रति प्रतिबद्ध होना पडेगा। यह तभी सम्भव हो सकता है जबकि हम अभी से युद्धस्तर पर जल संरक्षण के सामूहिक प्रयास करेंगे।