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लोकवादी गांधी की पर्यावरणीय दृष्टि

शिवम सिंह

गांधी ‘सरनेम’ गुजराती में खुदरा-व्यापार करने वालों के लिए प्रयुक्त होता था। किंतु, बीसवीं सदी के इस कर्मठ नायक-मोहनदास करमचंद गांधी ने 21 वीं सदी और बीसवीं सदी में भी इस ‘सरनेम’ को अपने आचरण और उच्चारण के अद्वैत से विशेषण बना दिया। गांधी ने अपने समय में ही प्रकृति पर घिर चुके संकट को पहचाना और बिना अतिरिक्त घोष के ‘लोक-वार्ता’ करते हुए अपने जीवन, कर्म और सिद्धांतों के जरिये इसके समाधान का मार्ग भी सुझाया। यह सुझाव ही आगे के पर्यावरण हितैषी अभियानों/कार्यक्रमों का पाथेय बन रहा है।
गांधी की पर्यावरणीय दृष्टि, पर्यावरण की लोक-संरक्षण परंपरा से संबद्ध या प्रभावित है। आख़िर, भौतिकता निरपेक्ष सादगीपूर्ण उनका जीवन भी किसी अंतिम जन के रहन-सहन का ही अनुकरण था। जब वह अपने रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से लोक की सामाजिक- आर्थिक समानता की बात करते हैं तो बड़े आर्थिक ढाँचे के सहारे नहीं, जहां कामगारों और प्रकृति का शोषण साथ-साथ चलता है, बल्कि कुटीर उद्योग के मार्फ़त पारिस्थितिकी सम्मत समानता उनको अभीष्ट थी। इसी कारण वह औद्योगिक इकाइयों को संचालित करने वाली मशीनों को महापाप की संज्ञा देते हैं।  
‘मंगल प्रभात’ पुस्तिका में उल्लिखित उनके एकादश व्रत जिसमें अहिंसा के साथ स्वदेशी, अपरिग्रह और आस्वाद आदि हैं, ये सब भी लोक की पर्यावरणीय दृष्टि से प्रेरित जान पड़ते हैं। अहिंसा जैसा व्रत जिसमें मानव व मानवेतर जगत के प्रति प्रेम, करुणा और कल्याण की भावना निहित है। स्वदेशी अर्थात् लोक से स्थानीय स्तर पर उद्भूत वस्तुओं का प्रयोग और विनिमय इस प्रकार की प्राकृतिक संसाधनों की न्यूनतम खपत हो और देश के बाहर-भीतर कहीं भी उपनिवेश बनाने की जरूरत न पड़े। लोभ व लालच से परे असंग्रह का व्रत, जैसे लोक जीवन-यापन हेतु जरूरत भर का संग्रह करता है, गैर ज़रूरी संग्रह तो पूंजीवाद की वृत्ति है। इसीलिए वह इस वृत्तिधारी सभ्यता को ‘चांडाल सभ्यता’ संबोधित करते हैं।
शिवम सिंह (हिंदी विषय के असिस्टेंट प्रोफेसर)

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3 thought on “लोकवादी गांधी की पर्यावरणीय दृष्टि”
  1. समृद्ध और युगीन दृष्टि से परिपूर्ण आलेख।

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