भले ही देश के बड़े हिस्से में गर्मी और पानी के संकट के चलते त्राहि-त्राहि हो , उत्तर-पूर्वी भारत में चक्रवात “रेमल” के साथ शुरू हुई बरसात से बाढ़, भू कटाव के तबाही का जो सिलिसिल शुरू हुआ था, वह एक महीने बाद भी न केवल जारी है, बल्कि और गहराता जा रहा है । असम में ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों के किनारे बसे गाँव-कस्बे साल दर साल सिकुड़ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के गहराते संकट के चलते जब बारिश और गर्मी के अतिरेक व हिमनद पर निर्भर नदियों में अनियमित और बेमौसमन तेज प्रवाह के चलते तटों का घुल कर पानी में समय जाना , बेहद गंभीर पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक को उपजा रहा है ।
इंडियन जर्नल ऑफ साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी के हाल ही के वर्ष 2024 , अंक 17 में केवल ‘मोरईगांव’ जिले में नदी से हो रहे कटाव के आंकड़ों का जो विश्लेषण किया गया है उससे साफ जाहीर होता है कि जिले का बड़ा हिस्सा नदी उदरस्थ कर चुकी है और कोई बड़ी बात नहीं कि जल्दी इसका नामों-निशान मिट जाए । सन 1988 से 2022 तक के आँकड़े बताते है कि इस जिले में नदी के बाएं तट पर सालाना भूमि कटाव 81. 54 मीटर है जबकि दायें तट पर हर साल 83.59 मीटर धरती कट कर नदी में समय रही है । यहाँ कटाव के चलते नदी तेजी से अपनी रह बदल रही है और यह खेत- घर – सरकारी इमारतों को तबाह करती जा रही है ।
सदियों-सदियों पहले नदियों के साथ बह कर आई जिस मिट्टी ने कभी असम राज्य का निर्माण किया , अब वही द्रुत – व्यापक जल- धाराएं इस राज्य को बाढ़ व भूमि कटाव के श्रापित कर रही हैं । ब्रह्मपुत्र और बराक व उनकी कोई 50 सहायक नदियों का बेहद तेज बहाव अपने किनारों की बस्तियों-खेत को जिस तरह उजाड़ रहा है उससे राज्य में कई तरह के संकट उपज रहे हैं, जिसमें विस्थापन और भूमिहीन हो जाना बहुत मार्मिक हैं ।
राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के आंकड़े बताते हैं कि असम राज्य छह दशक के दौरान राज्य की 4.27 लाख हैक्टर जमीन कट कर पानी में बह चुकी है जो कि राज्य के कुल क्षेत्रफल का 7.40 प्रतिशत है। हर साल औसतन आठ हजार हैक्टर जमीन नदियों के तेज बहाव में कट रही है । वैसे तो बढ़मपुत्र नद की औसत चौड़ाई 5.46 किलोमीटर है लेकिन कटाव के चलते कई जगह ब्रहंपुत्र का पाट 15 किलोमीटर तक चौड़ा हो गया है।
यह बात राज्य सरकार की फ़ाइलों में दर्ज है कि सन 2001 में कटाव की चपेट में 5348 हैक्टर उपजाऊ जमीन आई, जिसमें 227 गांव प्रभावित हुए और 7395 लोगों को विस्थापित होना पड़ा। सन 2004 में यह आंकड़ा 20724 हैक्टर जमीन, 1245 गांव और 62,258 लोगों के विस्थापन पर पहुंच गया। अकेले सन 2010 से 2015 के बीच नदी के बहाव में 880 गांव पूरी तरह बह गए, जबकि 67 गांव आंशिक रूप से प्रभावित हुए। इस साल बरसात की शुरुआत में ही बक्सा , बारपेटा , सोनितपुर, धुबरी, कामरूप, कोकराझाड,नलबाड़ी , उदालगुड़ी आदि जिलों में कटाव गंभीर हो गया है ।
डिब्रूगढ़ जिले में ऐथन के पास तिनखानग , माटिकाता में जमीन नदी में समय गई। यहाँ एथन से बोगिवईल तक बना तटबंध अधिकांश चटक गया है । लखीमपुर जिले के टेनही पंचाहीत में ना-आली और बालीगांव पूरी तरह नदी मेंक हले गए। करीमगंज जिले के बराईगांव का अस्तित्व भी संकट में है । वैज्ञानिकों ने इन जिलों में नदी किनारे कटावग्रस्त गांवों का भविष्य अधिकतम दस साल आंका है।
वैसे असम की लगभग 25 लाख आबादी ऐसे गांवो में रहती है जहां हर साल नदी उनके घर के करीब आ रही है। ऐसे इलाकों को यहां ‘चार’ कहते हैं। चार अर्थात कछार यानि जहां तक नदी का अधिकतम विस्तार होता है । इनमें से कई नदियों के बीच के द्वीप भी हैं। हर बार ‘चार’ के संकट, जमीन का कटाव रोकना, मुआवजा , पुनर्वास चुनावी मुद्दा भी होते हैं लेकिन यहां बसने वाले किस तरह उपेक्षित हैं इसकी बानगी यहां का साक्षरता आंकड़ा है जो कि महज 19 फीसदी है।
यहां की आबादी का 67 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे हैं। तिनसुखिया से धुबरी तक नदी के किनारे जमीन कटाव, घर-खेत की बर्बादी, विस्थापन, गरीबी और अनिश्तता की बेहद दयनीय तस्वीर है। कहीं लगोंके पास जमीन के कागजात है तो जमीन नहीं तो कहीं बाढ़-कटाव में उनके दस्तावेज बह गए और वे नागरिकता रजिस्टर में ‘डी’ श्रेणी में आ गए। इसके चलते आपसी विवाद, सामाजिक टकराव भी गहरे तक दर्द दे रहा है।
सन 2019 में संसद में एक प्रश्न के उत्तर में जल संसाधन राज्य मंत्री रतनलाल कटारिया ने जानकारी दी थी कि अभी तक राज्य में 86536 लोग कटाव के चलते भूमिहीन हो गए। सोनितपुर जिले में 27,11 लोगों की जमीन नदी में समा गई तो मोरीगांव में 18,425, माजुली में 10500, कामरूप में 9337 लोग अपनी भूमि से हाथ धो बैठे हैं।
दुनिया के सबसे बड़ा नदी-द्वीप माजुली का अस्तित्व ब्रह्मपुत्र व उसके सखा-सहेली नदियों की बढ़ती लहरों से मिट्टी क्षरण या तट कटाव की गंभीर समस्या के चलते ही खतरे में हैं । माजुली का क्षेत्रफल पिछले पांच दशक में 1250 वर्गकिमी ये सिमट कर 800 वर्गकिमी हो गया हैं । हाल ही में रिमोट सेंसिंग से किए गए एक सर्वेक्षण में ब्रह्मपुत्र के अपने ही किनारों को निगलने की भयावह तस्वीर सामने आई हैं । पिछले 50 सालों के दौरान नदी के पश्चिमी तट की 758.42 वर्ग किलोमीटर भूमि बह गई । इसी अवधि में नदी के दक्षिण किनारों का कटाव 758.42 वर्ग किमी रहा ।
बेशक असम की भौगोलिक स्थिति जटिल है और वहाँ आने वाली तेज बढ़ का असली कारण उसके पड़ोसी राज्य पहाड़ों से आने वाला तेज बहाव हैं। असम की उपरी अपवाह में कई बांध बनाए गए। चीन ने भी अपने कब्जे वाले ब्रह्मपुत्र के उद्गम पर कई विशाल बांध बनाए हैं और जैसे ही वहाँ क्षमता के अनुरूप पानी एकत्र हो जाता है, पानी को अनियमित तरीके से छोड़ दिया जाता है। एक तो नदियों का अपना बहाव और फिर साथ में बांध से छोड़ा गया जल, इनकी गति बहुत तेज होती है और इससे जमीन का कटाव होना ही है।
भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि असम में नदी के कटाव को रोकने के लिए बनाए गए अधिकांश तटबंध जर्जर हैं और कई जगह पूरी तरह नश्ट हो गए हैं। एक मोटा अनुमान हैकि राज्य में कोई 4448 किलोमीटर नदी तटों पर पक्के तटबंध बनाए गए थे ताकि कटाव को रेका जा सके लेकिन आज इनमें से आधे भी बचे नहीं हैं। बरसों से इनकी मरम्मत नहीं हुई , वहीं नदियों ने अपना रास्ता भी खूब बदला।
भूमि कटाव का बड़ा कारण राज्य के जंगलों व आर्द्र भूमि पर हुए अतिक्रमण भी हैं। सभी जानते हैं कि पेड़ मिट्टी का क्षरण रोकते हैं और बरसात को भी सीधे धरती पर गिरने से बचाते हैं। आर्द्र भूमि पानी की मात्रा को बड़े स्तर पर नदी के जल-विस्तार को सोखते थे। राज्य की हजारों पुखरी-धुबरी नदी से छलके जल को साल भर सहेजते थे। दुर्भाग्य है कि ऐसे स्थानों पर अतिक्रमण का रोग ग्रामीण स्तर पर संक्रमित हो गया और तभी नदी को अपने ही किनारे काटने के अलावा कोई रास्ता नही दिखा।
आज जरूरत है कि असम की नदियों में ड्रेजिग के जरिये गहराई को बढ़ाया जाए। इसके किनारे से रेत उत्खान पर रोक लगे। सघन वन भी कटाव रोकने में मददगार होंगे। अमेरिका की मिसीसिपी नदी भी कभी ऐसे ही भूमि कटाव करती थी। वहां 1989 में तटबंध को अलग तरीके से बनाया गया और उसके साथ खेती के प्रयोग किए गए। आज वहां नदी-कटाव पूरी तरह नियंत्रित हैं। आने वाले दिनों में कम समय में अत्यधिक और तेज बरसात होना ही है , गर्मी के चलते ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों में बैमौसम तेज बहाव भी , ऐसे में असम के अस्तित्व को बचाने के लिए उसके तटों की सुरक्षा के लिए दूरगामी योजना अनिवार्य है , जो यहाँ के जल और जन दोनों को बचा सके ।