पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली की आबादी में इतने अधिक पूर्वांचली न होते और छठ पर्व की इतनी धूम न होती तो शायद लोगों को यमुना की दुर्गति का ख्याल भी न होता । अकेले दिल्ली ही नहीं , सारे देश की जल निधियों की बेबसी पर चिंता और रखरखाव की बात दीपावली के बाद ही शुरू होती है । कारण – बिहार व पूर्वी राज्यों में मनाया जाने वाला छठ पर्व अब प्रवासी बिहारियों के साथ-साथ सारे देश में फैल गया है। गोवा से लेकर मुंबई और भोपाल से ले कर बंगलूरू तक, जहां भी पूर्वांचल के लोग बसे हैं, कठिन तप के पर्व छठ को हरसंभव उपलब्ध जल-निधि के तट पर मनाना नहीं भूलते है। वास्तविकता यह भी है कि छठ को भले ही प्रकृति पूजा और पर्यावरण का पर्व बताया जा रहा हो, लेकिन इसकी हकीकत से दो चार होना तब पड़ता है जब उगते सूर्य को अर्ध्य दे कर पर्व का समापन होता है और श्रद्धालु घर लौट जाते हैं। पटना की गंगा हो या दिल्ली की यमुना या भोपाल का षाहपुरा तालाब या दूरस्थ अंचल की कोई भी जल-निधि, सभी जगह एक जैसा दृष्य होता है- पूरे तट पर गंदगी, बिखरी पॉलीथीन , उपेक्षित-गंदला रह जाता है वह तट जिसका एक किनारा पाने के लिए अभी कुछ देर पहले तक मारा-मार मची थी।
छठ पर्व लोक आस्था का प्रमुख सोपान है- प्रकृति ने अन्न दिया, जल दिया, दिवाकर का ताप दिया, सभी को धन्यवाद और ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ का भाव। असल में यह दो ऋतुओं के संक्रमण-काल में शरीर को पित्त-कफ और वात की व्याधियों से निरापद रखने के लिए गढ़ा गया अवसर था। कार्तिक मास के प्रवेश के साथ छठ की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। भोजन में प्याज-लहसुन का प्रयोग पूरी तरह बंद हो जाता है। छठ के दौरान छह दिनों तक दिनचर्या पूरी तरह बदल जाती है। दीवाली के सुबह से ही छठ व्रतियों के घर में खान-पान में बहुत सारी चीजें वर्जित हो जाती है, यहां तक कि सेंधा नमक का प्रयोग होने लगता है।
सनातन धर्म में छठ एक ऐसा पर्व है जिसमें किसी मूर्ति-प्रतिमा या मंदिर की नहीं, बल्कि प्रकृति यानि सूर्य, धरती और जल की पूजा होती है। धरती पर जीवन के लिए, पृथ्वीवासियों के स्वास्थ्य की कामना और भास्कर के प्रताप से धरतीवासियों की समृद्धि के लिए भक्तगण सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। बदलते मौसम में जल्दी सुबह उठना और सूर्य की पहली किरण को जलाषय से टकरा कर अपने षरीर पर लेना, वास्तव में एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। वृत करने वाली महिलाओं के भेजन में कैल्ष्यिम की प्रचुर मात्रा होती है, जोकि महिलाओं की हड्डियों की सुदृढता के लिए अनिवाय भी है। वहीं सूर्य की किरणों से महिलओं को साल भर के लिए जरूरी विटामिन डी मिल जाता है। यह विटामिन डी कैल्ष्यिम को पचाने में भी मदद करता है। तप-वृत से रक्तचाप नियंत्रित होता है और सतत ध्यान से नकारात्मक विचार मन-मस्तिश्क से दूर रहते हैं।
वास्तव में यह बरसात के बाद नदी-तालाब व अन्य जल निधियों के तटों पर बह कर आए कूड़े को साफ करने, अपने प्रयोग में आने वाले पानी को इतना स्वच्छ करने कि घर की महिलाएं भी उसमें घंटों खड़ी हो सके, दीपावली पर मनमाफिक खाने के बाद पेट को नैसर्गिक उत्पादों से पोशित करने और विटामिन के स्त्रोत सूर्य के समक्ष खड़े होने का वैज्ञानिक पर्व है। पर्व में इस्तेमाल प्रत्येक वस्तु पर्यावरण को पपित्र रखने का उपक्रम होती है- बांस का बना सूप, दौरा, टोकरी, मउनी व सूपती तथा मिट्टी से बना दीप, चौमुख व पंचमुखी दीया, हाथी और कंद-मूल व फल जैसे ईख, सेव, केला, संतरा, नींबू, नारियल, अदरक, हल्दी, सूथनी, पानी फल सिंघाड़ा, चना, चावल (अक्षत), ठेकुआ, खाजा इत्यादि।
इसकी जगह ले ली- आधुनिक और कहीं-कहीं अपसंसकृति वाले गीतों ने , आतिषबाजी,घाटों की दिखावटी सफाई, नेतागिरी, गंदगी, प्लास्टिक-पॉलीथीन जैसी प्रकृति-हंता वस्तुओं और बाजारवाद ने। अस्थाई जल-कुंड या सोसायटी के स्वीमिग पुल में छठ पूजा की औपचारिकता पूरा करना असल में इस पर्व का मर्म नहीं है। लोग नैसर्गिक जल-संसाधनों तक जाएं, वहां घाट व तटों की सफाई करें और फिर पूजा करें , इसके बनिस्पत अपने घर के पास एक गड्ढे में पानी भर कर पूजा के बाद उसके गंदा, बदबूदार छोड़ देना तो इसकी आत्मा को मारना ही है। यही नहीं जिस जल में वृत करने वाली महिलाएं खड़ी रहती हैं, वह भी इतना दूषित होता है कि उनके पैरों और यहां तक कि गुप्तांगों में संक्रमण की संभावना बनी रहती है। गंदी-जहरीली पोलीथीन में खाद्य सामग्री ले जाने से उसकी पवित्रता प्रभावित होती है। यही नहीं जो काल शांत तप-आत्ममंथन और ध्यान का होता है, उसमें भौंडे गीत और फिल्मी पैरोडी पर भजनों का सांस्कृतिक व ध्वनि प्रदूषण अलग से होता है। जबकि पारंपरिक रूप से ढोलक या मंजीरा बजा कर गीत गाने से महिलाओं के संपूर्ण षरीर का व्यायाम , अपने पारंपरिक गीतों या मौखिक ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का उपक्रम होता था। उसका स्थान बाजार ने ले लिया । पर्व समाप्त होते ही चारों तरफ फैली पूजा सामग्री में मुंह मारते मवेशी और उसमें से कुछ अपने लिए कीमती तलाशते गरीब बच्चे, आस्था की औपचारिकता को उजागर करते हैं।
काश , छठ पर्व की वैज्ञानिकता, मूल-मंत्र और आस्था के पीछे तर्क को भलीभांति समाज तक प्रचारित-प्रसारित किया जाए। जल-निधियों की पवित्रता, सव्च्छता के संदेष को आस्था के साथ व्याहवारिक पक्षों के साथ लोक-रंग में पिरोया जाए, लोक को अपनी जड़ो की ओर लौटने को प्रेरित किया जाए तो यह पर्व अपने आधुनिक रंग में धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है। हर साल छठ पर्व पर यदि देशभर में हजार तालाब खोदने और उन्हें संरक्षित करने का संकल्प हो, दस हजार पुराने तालाबों में गंदगी जाने से रोकने का उपक्रम हो , नदियों के घाट पर साबुन, प्लास्टिक और अन्य गंदगी ना ले जाने की शपथ हो तो छठ के असली प्रताप और प्रभाव को देखा जा सकेगा।
यदि छठ के तीन दिनों को जल-संरक्षण दिवस, स्वच्छता दिवस जैसे नए रंग के साथ प्रस्तुत किया जाए और आस्था के नाम पर एकत्र हुई विशाल भीड़ को भौंडे गीतों के बनिस्पत इन्हीं संदेशों से जुड़े सांस्कृतिक आयोजनों से शिक्षित किया जाए, छठ के संकल्प को साल में दो या तीन बार उन्ही जल-घाटों पर आ कर दुहराने का प्रकल्प किया जाए तो वास्तव में सूर्य का ताप, जल की पवित्रता और खेतों से आई नई फसल की पौश्टिकता समाज को निरापद कर सकेगी।
छठ पूजा के दौरान जो भी प्रसाद होता है उससे सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और फिर सबकुछ लेकर व्रत करने वाले वापस आ जाते हैं। सामान अगर नदीं में छूटता है तो वह फूल-पत्ती होती है, जो पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाती। इस तरह देखा जाए तो प्रकृति की पूजा का ये महापर्व पूरी तरह से प्रकृति-पूजा है।
छठ पूजा के अनुष्ठान के दौरान गाए जाने वाले- ‘केरवा जे फरले घवध से ओह पर सुग्गा मंडराय, सुगवा जे मरवो धनुष से सुगा जइहे मुरझाए। सुगनी जे रोवेली वियोग से आदित होख ना सहाय.., जैसे गीत इस बात को दर्शाता हैं कि लोग पशु पक्षियों के संरक्षण की याचना कर उनके अस्तित्व को कायम रखना चाहते हैं। इसी तरह इस अनुष्ठान के क्रम में कोसी भरने के समय मिट्टी के वर्तन पर हाथी की आकृति बनाने की परंपरा भी जैव संरक्षण की प्रेरणा प्रदान करता है।