पंकज चतुर्वेदी
वैसे तो मानसून के दौरान नदियों से रेत उत्खनन पर रोक के अदालती आदेश की किसी को परवाह थी नहीं लेकिन उसके बाद देशभर में नदियों के रास्ते रोक कर बालू खनन निर्ममता से हॉप रहा है । देश के लगभग सभी राज्यों में हर छोटी-बड़ी नदी के आसपास रेत – बालू के विशाल पहाड़ देखे जा सकते हैं । नदी से बालू निकालने के दौरान यदि खून बह जाए तो अब कोई इसकी परवाह नहीं करता । आखिर करे भी क्यों ? न सरकार को पता है, न विकास के प्रतिमान गढ़ रहे ठेकेदार को कि हमारे पास कितनी रेत–बालू उपलब्ध है और हमारी मांग क्या है ? ठेकेदार को समय पर काम पूरा कर अपना बिल पास करवाना है , सरकार को ऐसे निर्माण पर श्रेय लेने हैं , ऐसे में कराहती हैं वे नदियां और जल-निधियाँ जिनके प्राण हर कर रेत उत्खनन किया जाता है ।
देश में पानी के बाद रेत-बालू ही ऐसी नैसर्गिक संपदा है जिसका सर्वाधिक शोषण हुआ , हालांकि बारीकी से देखें तो दोनों की जान एक ही नाभी से जुड़ी है। हाल ही में केंद्र सरकार ने घोषणा कर दी कि अगले पाँच सालों में तीन करोड़ प्रधानमंत्री आवास बनाए जाएंगे । निश्चित ही इस अवधि में इतने ही पक्के मकान निजी स्तर पर आम लोग बनाएंगे , फिर व्यावसायिक निर्माण, सीमेंट वाली सड़के, बांध जैसी विशाल संरचनाए अलग । सभी समय बद्ध कार्यक्रम होंगे और सभी के लिए अनिवार्य तत्व है बालू –रेत । वैसे यह हिसाब लगाया जाना जरूरी है कि हर साल कितनी रेत स्वभाविक रूप से नदी अपने किनारों पर छोड़ जाती है , जिसे उत्खनित करना किसी तरह की पर्यावरणीय हानि पैदा नहीं करेगा और इस रेत से कितने निर्माण किए जा सकते हैं ? एक मोटा अनुमान है कि हमें 1.4 बिलियन टन बालू की सालाना जरूरत है और यह मांग हर साल सात फीसदी की दर से बढ़ रही है । बालू के बगैर अब किसी भी प्रदेश में राजनीति नहीं हो सकती आहूर हर जिले का सबसे बड़ा माफिया रेत-बालू खनन का काम जरूर करता है । मध्य प्रदेह में तो कई वरिष्ठ पुलिस और खनन अफसर ऐसे माफिया के हाथों मारे जा चुके हैं ।
नदियों का उथला होना और थोड़ी सी बरसात में उफन जाना, तटों के कटाव के कारण बाढ् आना, नदियों में जीव जंतु कम होने के कारण पानी में आक्सीजन की मात्रा कम होने से पानी में बदबू आना; ऐसे ही कई कारण है जो मनमाने रेत उत्खनन से जल निधियों के अस्तित्व पर संकट की तरह मंडरा रहे हैं। रेत खनन से नदियों का तंत्र प्रभावित होता है तथा इससे नदियों की खाद्य-श्रृंखला नष्ट होती है। रेत के खनन में इस्तेमाल होने वाले सैंड-पंपों के कारण नदी की जैव-विविधता पर भी असर पड़ता है।
लाखों साल की अवधि में चट्टानें स्वाभाविक रीति से अपक्षरित होती रहती हैं और उनका यही अपक्षरण नदियों में रेत के रूप में इकट्ठा होता है. नदी की पेटी से इस रेत का उत्खनन किया जाता है. नदी का रेत अब एक दुर्लभ वस्तु बनाता जा रहा है. निर्माण के लिए उपयोग की जाने वाली किसी भी अन्य रेत की तुलना में नदी (ताजे पानी) का रेत निर्माण-कार्य के उद्देश्य से बहुत बेहतर होता है और पानी के बाद दुनिया में दूसरा सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला संसाधन है: परिमाण के लिहाज से देखें तो धरती के नीचे से खनन करके निकाली जाने वाली तमाम चीजों में रेत का हिस्सा दो तिहाई से कुछ ज्यादा है और ध्यान देने की एक बात ये भी है कि रेत एक संसाधन के रुप में असीमित मात्रा में उपलब्ध नहीं है।
संयुक्त राष्ट्रसंघ की पिछले साल आई रिपोर्ट चेतावनी दे चुकी है कि जल्दी ही दुनिया को रेत के अभाव का सामना करना पड़ सकता है। लोग हर साल 40 बिलियन टन से अधिक रेत और बजरी का उपयोग करते हैं। मांग इतनी ज्य़ादा है कि दुनिया भर में नदी-तल और समुद्र तट खाली होते जा रहे हैं।
कहने को दुनिया में मरुस्थल और समुद्र रेत से भरे हुए हैं । समझना होगा कि रेगिस्तानी रेत आम तौर पर निर्माण-कार्य के लिए उपयोगी नहीं; पानी के बजाय हवा की चोट से आकार ग्रहण करने के कारण रेगिस्तानी रेत इतना ज़्यादा गोल होता है कि इसके दो कण आपस में मज़बूती से बंध ही नहीं पाते।
प्रकृति ने हमें नदी तो दी थी जल के लिए लेकिन समाज ने उसे रेत उगाहने का जरिया बना लिया और रेत निकालने के लिए नदी का रास्ता रेकने या प्रवाह को बदलने से भी परहेज नहीं किया। आज हालात यह हैं कि कई नदियों में ना तो जल प्रवाह बच रहा है और ना ही रेत।
सभी जानते हैं कि देश की बड़ी नदियों को विशालता देने का कार्य उनकी सहायक छोटी नदियों करती हैं। बीते एक दशक में देश में कोई तीन हजार छोटी नदियां लुप्त हो गई। इसका असल कारण ऐसी मौसमी छोटी नदियों से बेतहाषा रेत को निकालना था, जिसके चलते उनका अपने उदगम व बड़ी नदियों से मिलन का रास्ता ही बंद हो गया। देखते ही देखते वहां से पानी रूठ गया। इसका ही असर है कि बड़ी नदियों में जल प्रवाह की मात्रा साल दर साल कम हो रही है।
देश की जीडीपी को गति देने के लिए सीमेंट और लोहे की खपत बढ़ाना नीतिगत निर्णय है। अधिक से अधिक लोगों को पक्के मकान देना या नए स्कूल-अस्पताल का निर्माण होना भले ही आंकड़ों व पोस्टरों में बहुत लुभाता हो, लेकिन इसके लिए रेत उगाहना अपने आप में ऐसी पर्यावरणीय त्रासदी का जनक है जिसकी क्षति-पूर्ति संभव नहीं ।
नदियों की भीतरी सतह में रेत की मौजूदगी असल में उसके प्रवाह को नियंत्रित करने का अवरोधक, जल को शुद्ध रखने का छन्ना और नदी में कीचड़ रोकने की दीवार भी होती है। तटों तक रेत का विस्तार नदी को सांस लेने का अंग होता है। नदी केवल एक बहता जल का माध्यम नहीं होती, उसका अपना पारिस्थितिकी तंत्र होता है जिसके तहत उसमें पलने वाले जीव, उसके तट के सुक्ष्म वेक्टेरिया सहित कई तत्व शामिल होते हैं और उनके बीच सामंजस्य का कार्य रेत का होता है। नदियों की कोख अवैध और अवैज्ञानिक तरीके से खोदने के चलते यह पूरा तंत्र अस्त-व्यस्त हो रही है।
कानून तो कहता है कि ना तो नदी को तीन मीटर से ज्यादा गहरा खोदे और ना ही उसके जल के प्रवाह को अवरूद्ध करो ,लेकिन लालच के लिए कोई भी इनकी परवाह करता नहीं । स्वीकृत गहराइयों से दुगनी-तिगुनी गहराइयों तक पहुंच कर रेत खनन किया जाता है। जिन चिन्हित क्षेत्रों के लिए रेत खनन पट्टा होता है उनसे बाहर जाकर भी खनन होता है। बीच नदी में पॉकलैंड जैसी मशीन लंगाना और नदी का रास्ता रोक देना आम बात है।
एक तो इस बात का व्यापक सर्वे जरूरी है कि क्या देश के सभी इलाकों में पक्के मकान जरूरी हैं या स्थानीय जलवायु, परिवेश, सामग्री की उपलब्धता के आधार पर पारंपरिक मकान आधुनिक तकनीक से बनाए आज सकते है। इसके अलावा जिला स्तर पर व्यापक अध्ययन किया जाए कि प्रत्येक छोटी-बड़ी नदी में सालाना रेत आगम की क्षमता कितनी है और इसमें से कितनी को बगैर किसी नुकसान के उत्खनित किया जा सकता है। फिर उसी के अनुसार निर्माण कार्य की नीति बनाई जाए। उसी के अनुरूप राज्य सरकारें उस जिले में रेत के ठेके दें।