पौष्टिक फसल खाने से मरे हाथी
प्रमोद भार्गव
मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के राष्ट्रीय उद्यानों से हाथियों की असामयिक मौत की खबरें आना कोई नई बात नहीं है। नई बात इन हाथियों के मौत के कारण से जुड़ी है। इस बार एक सप्ताह के अंतराल में दस हाथियों की मौत हुई है। बताया जा रहा है कि इन हाथियों की मौत संक्रमित कोदो-कुटकी की खेतों में खड़ी फसल खाने से हुई है। कोदो-कुटकी पोष्टिक चावल की ये किस्म हैं। जिसे मोटा अनाज कहा जाता है। भारत सरकार बीमारियों से बचे रहने के लिए मोटा अनाज खाने के खूब प्रचार-प्रसार में लगी है। भारत में उपवास में फलहार के रूप में भी कुटकी के चावल खाए जाते हैं। यह भोजन हमारी प्राचीन ज्ञान-परंपरा से जुड़ा हुआ है। यहां हैरानी की बात यह है कि इस फसल को खाने से दस हाथी तो मर गए, लेकिन इसी फसल को रोजाना गाय और भैंसें खाती रहती हैं, उनके मरने की खबर कभी नहीं आती है। आखिरकार वैज्ञानिक जांच को ही मौत की सच्चाई का प्रामाणिक तथ्य मानने की मजबूरी जो है ?
14 सदस्यीय चिकित्सकों के एक दल ने हाथियों के शव-विच्छेदन में पाया कि हाथियों के पेट में संक्रमित कोदो-कुटकी पाया गया है। इसे हाथियों ने जंगल से सटे खेतों में खड़ी कोदो-कुटकी की फसल को खाया था। यह कोदो-कुटकी मैक्रोटोक्सिन (कवक विश) बन गया था। बारिश के बाद प्रतिकूल मौसम के चलते कोदो-कुटकी सहित कवक विश उत्पन्न हो जाता है । अतएव संक्रमित फसल के सेवन से पशुओं में संक्रमण हो जाता है। इस संक्रमण का समय रहते इलाज न हो पाए और यह बढ़ता जाए तो प्राणी की मौत हो जाती है। यह मनुष्यों के लिए भी हानिकारक है। अब वन-विभाग ने उद्यान की सीमा से सटे खेतों की फसल नष्ट करा दी है। लेकिन सवाल उठता है कि जब ऐसी आशंका थी तो हाथियों को इन खेतों की फसल को चरने ही क्यों दिया ? जबकि वर्तमान में प्रत्येक बड़े हाथी, बाघ एवं चीता के आरक्षित आवासीय वनों में कई-कई पशु-चिकित्सक तैनात हैं। इस मामले में एक और महत्वपूर्ण बात है कि इस घटना के पहले कोदो खाने से हाथियों की मौतें हुई हों, ऐसी खबर नहीं आई ? क्या हाथियों ने पहली बार यह फसल खाई थी ? हालांकि संक्रमित भोजन के नमूने देश की अन्य प्रयोगशालाओं में भेजने के साथ सेंटर फोर सेलुलर एंड मालिक्यूलर बायोलाजी, प्रयोगशाला हैदराबाद से भी परामर्श लिया जा रहा है। एसआईटी और एसटीएसएफ के दल भी सभी संभावित पहलुओं पर जांच करेंगे।
भारत सरकार ने हाथी को दुर्लभ प्राणी व राष्ट्रीय धरोहर मानते हुए इसे वन्य जीव सरंक्षण अधिनियम 1972 की अनुसूची-1 में सूचीबद्ध करके कानूनी सुरक्षा दी हुई है। इसलिए जंगलों में हाथियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। हालांकि हमारी सनातन संस्कृति में हाथी सह-जीवन का हिस्सा है। इसीलिए हाथी पाले और पूजे जाते हैं। असम के जंगलों में हाथी लकड़ी ढुलाई का काम करते हैं। सर्कस के खिलाड़ी और सड़कों पर तमाशा दिखाने वाले मदारी इन्हें पढ़ा व सिखाकर अजूबे दिखाने का काम भी करते रहे हैं । साधु-संत और सेनाओं ने भी हाथियों का खूब उपयोग किया है। कई उद्यानों में पर्यटकों को हाथी की पीठ पर बिठाकर बाघ के दर्शन कराए जाते हैं। वन सरंक्षण अधिनियम लागू होने के बाद अब ये प्राणी केवल उद्यानों और चिड़ियाघरों में ही सिमट गए हैं। बावजूद इन उद्यानों में इसकी हड्डियों और दातों के लिए खूब शिकार हो रहा है। हाथी के शिकार पर प्रतिबंध है, लेकिन व्यवहार में हाथी का शिकार करने वालों से लेकर आम लोग भी इस तरह के कानूनों की परवाह नहीं करते ? कर्नाटक के जंगलों में कुख्यात तस्कर वीरप्पन ने इसके दांतों की तस्करी के लिए सैंकड़ों हाथियों को मारा था। चीन हाथी दांत का सबसे बड़ा खरीददार है। जिन जंगलों के बीच में रेल पटरियां बिछी हैं, वहां ये रेलों की चपेट में आकर भी बड़ी संख्या में प्राण गंवाते रहते हैं।
मनुष्य के जंगली व्यवहार के विपरीत हाथियों का भी मनुष्य के प्रति क्रूर आचरण देखने में आता रहा है। बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य-प्रदेश और कर्नाटक के जंगली हाथी अक्सर जंगल से भटककर ग्रामीण इलाकों में उत्पात मचाते रहते हैं। कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ में हाथियों ने इतना भयानक उत्पात मचाया था कि यहां 22 निर्दोष आदिवासियों की जान ले ली थी। कर्नाटक और बिहार में इन हाथियों द्वारा मारे गए लोगों की संख्या जोड़ लें तो ये हाथी दस-बारह साल के भीतर करीब सवा-सौ लोगों की जान ले चुके हैं। बिहार के सिंहभूमी इलाके के पोरहाट वन से भटके हाथी रायगढ़ और सरगुजा जिलों के ग्रामीण अंचलों में अकसर कहर बरपाते रहते हैं। इनके आतंक क्षेत्र का विस्तार बिहार में रांची व गुमला जिलों तक और मध्य-प्रदेश-छत्तीसगढ़ से कर्नाटक है। एक समय अपने मूल निवास से भटककर ढाई सौ हाथी नए आवास और आहार की तलाश में लगातार छह साल तक ग्रामों में कहर ढहाते रहे थे। इन हाथियों में से कुछ ओड़ीसा और पश्चिम बंगाल में घुस गए थे और 18 हाथी मध्य-प्रदेश की सीमा में आ गए थे। बिहार से ही अंबिकापुर के जंगलों में प्रवेश कर भटके हुए हाथियों के झुंड कुछ साल पहले शहडोल जिले के ग्रामीण इलाकों में आतंक और दहशत का पर्याय बन गया था। इन हाथियों में एक नर, तीन मादा और दो बच्चे थे। वन अधिकारी बताते हैं कि शहडोल, रायगढ़, सरगुजा जिलों के दूर-दराज के गांवों में रहने वाले आदिवासियों के घरों में उतारी जाने वाली शराब को पीने की तड़प में ये हाथी गंध के सहारे आदिवासियों की झोंपड़ियों को तोड़ते हुए घुसते चले जाते हैं और जो भी सामने आता है उसे सूंड से पकड़ कर पटका और पेट पर भारी-भरकम पैर रख उसकी जीवन लीला खत्म कर देते हैं। इस तरह से इन मदांध हाथियों द्वारा हत्या का सिलसिला हर साल अनेक गांवों में देखने में आता रहता है।
पालतू हाथी भी कई बार गुस्से में आ जाते हैं। ये गुस्से में क्यों आते हैं, इसे समझने के लिए इनके आचार, व्यवहार और प्रजनन संबंधी क्रियाओं व भावनाओं को समझना जरूरी है। हाथी मद की अवस्था में आने के बाद ही मदांध होकर अपना आपा खोता है। हाथियों की इस मनस्थिति के सिलसिले में प्रसिद्ध वन्य प्राणी विशेषज्ञ रमेश बेदी ने लिखा है कि जब हाथी प्रजनन की अवस्था में आता है तो वह समागम के लिए मादा को ढूंढता है। ऐसी अवस्था में पालतू नर हाथियों को लोगों के बीच नहीं ले जाना चाहिए। मद में आने से पूर्व हाथी संकेत भी देते हैं। हाथियों की आंखों से तेल जैसे तरल पदार्थ का रिसाव होने लगता है और उनके पैर पेशाब से गीले रहने लगते हैं। ऐसी स्थिति में महावतों को चाहिए कि वे हाथियों को भीड़ वाले इलाके से दूर बंदी अवस्था में ही रखें, क्योंकि अन्य मादा प्राणियों की तरह रजस्वला स्त्रियों से एस्ट्रोजन हार्मोन्स की महक उठती है और हाथी ऐसे में बेकाबू होकर उन्मादित हो उठते हैं। त्रिचूर, मैसूर और वाराणसी में ऐसे हालातों के चलते अनेक घटनाएं, घट चुकी हैं। ये प्राणी मनोविज्ञान की ऐसी ही मनस्थितियों से उपजी घटनाएं हैं। वैसे हाथियों के ऐसे व्यवहार को लेकर काफी नासमझी की स्थिति है, मगर समझदारी इसी में है कि धन के लालच में मद में आए हाथी को किसी उत्सव या समारोह में न ले जाया जाए।
उत्पाती हाथियों को पकड़कर बीस साल पहले मध्य-प्रदेश में ‘आपरेशन खेदा’ चलाया गया था। हालांकि पूर्ण वयस्क हो चुके हाथियों को पालतू बनाना एक चुनौती व जोखिम भरा काम है। हाथियों को बाल्यावस्था में ही आसानी से पालतू बनाया जा सकता है। हाथी देखने में भले ही सीधा और भोला लगे पर आदमी की जान के लिए जो सबसे ज्यादा खतरनाक प्राणी हैं, उनमें एक हाथी है और दूसरा है भालू है। हाथी उत्तेजित हो जाए तो उसे संभालना मुश्किल होता है। फिलहाल इस तरह हाथी को पालतू बनाए जाने के उपाय बंद हैं। आखिर, जिस वन अमले पर अरबों रुपए का बजट सालभर में खर्च होता है, उसके पास इस समस्या से निपटने के लिए कोई कारगर उपाय क्यों नहीं है ? अतएव हाथियों की मौत हो या वे उत्पात मचाएं, मरना ग्रामीणों का ही होता है। इस मामले में भी सीधे-सीधे गरीब ग्रामीणों की फसलें उजाड़ दी गईं। जबकि सावधानी नहीं बरतने के लिए किसी पशु-चिकित्सक, वनाधिकारी या वन रक्षक को दोशी नहीं ठहराया गया ?
लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार ।