भुला दी गई नदियों ने भयावह बना दिया वायनाड़ का दर्द
पंकज चतुर्वेदी
वायनाड – नीलगिरी पर्वतमाला के इन ऊंचे पहाड़ों से कभी एक नदी बहती थी । तेज गति वाली नदी जो गर्मी में भले उदास सी दिखती लेकिन बरसात के छह महीने तेज वेग में नीचे की तरफ जाती और पश्चिमी घाट की नदियों के संजाल में मिल जाती । सन 1876 के आसपास इंग्लिश कॉर्पेरेटिव सोसायटी और स्कॉटिश कॉर्पेरेटिव सोसायटी ने यहाँ के पहाड़ों पर सीढ़ीनुमा क्यारियाँ बना कर असम और चीन की चाय की संकर नस्ल की खेती शुरू की ।
अंग्रेज मालिक के मजदूर भी दूर-दूर से आए । वहाँ कई छोटी छोटी जल- सरिताएं थीं जो नदी को सम्पन्न बनाती थीं ।अंग्रेज बागान मालिक ने उन सरिताओं पर मिट्टी दलवा दी और उस पर मजदूरों के लिए बस्ती बसा ली गई । फिर और लोग आते रहे, छोटा सा गाँव, कस्बे में बदल गया । वायनाड में आई भयावह तबाही में सबसे ज़्यादा नुकसान वेल्लारीमाला पर्वतमाला के नीचे मुंदक्कई और चूरलमाला में हुआ है। असल में इन दोनों जगह पर घर और इमारतें भुला दी गई नदी के ऊपर बने हुए थे।वेल्लारमाला स्कूल की विशाल इमारत भी उस नदी के बहाव मार्ग पर बनी थी जो कुछ साल पहले अपना रास्ता तो बदल चुकी थी लेकिन शायद उसे भूली नहीं थी । विदित हो वेल्लारीमाला पर्वतमाला कोझीकोड जिले में थिरुवंबाडी पंचायत से वायनाड जिले में मेप्पाडी पंचायत तक फैली हुई है।
वायनाड के ऊंचे पहाड़ से नीचे उतार कर जब मालापुरम जिले की तरफ आते हैं तो शायद दुनिया का एकमात्र टीक अर्थात सागवान की लकड़ी का संग्रहालय नीलांबुर में मिलता हैं। इस छोटे से कस्बे की सुंदरता और जैव विविधता जिस चलियार नदी के कारण है , वह इन दिनों इंसानों की लाशों के टुकड़ों से पटी हुई है । अब तक कोई 140 क्षतवीक्षत शरीर चलियार में मिल चुके हैं । यह नदी वायनाड जिले में इलमपिलेरी पहाड़ियों से निकलती है। वायनाड से लगभग 90 किलोमीटर दूर इंसानों के शव के टुकड़े मिलना बताते हैं कि वायनाड भूस्खलन से हुई तबाही में सबसे बड़ी भूमिका उन नदीयों और सरिताओं की है जिनको गैजरूरी मान कर कभी इंसान ने समाप्त करने का प्रयास किया था । विकास के नक्शे बनाने वाले यह भूल गए कि सभी नदियां जीवित जीव की तरह होती हैं और उनकी याददाश्त 200 साल की होती है ।
यह सच है कि इस तबाही के मूल में वेल्लारीमाला पर्वतमाला का भूस्खलन है और इसके लिए जलवायु परिवर्तन के साथ साथ मानवीय दखल जिम्मेदार है लेकिन आए मलवे के बहुत तेजी से बहने के पीछे लुप्त नदी के अचानक जीवंत होना भी बड़ा कारण है ।
धरती के बढ़ते तापमान के चलते अरब सागर के पानी के अधिक गरम होने से उत्पन्न सघन बादलों का कारण सामने आ रहा है । हालांकि दुर्भाग्यपूर्ण है कि सन 2020 में वायनाड और केरल में घटित जलवायु परिवर्तन, खासकर तापमान में तेज की घटनाओं को समूचे तंत्र ने नजरंदाज किया। याद करें उस साल केरल में आए भयंकर जल-प्लावन के बाद अपनी जैव विविधता के लिए जगजाहिर वायनाड जिले में अचानक ही केंचूए और कई प्रकृति’प्रेमी कीट गायब हो गए थे ।
फिर एक महीने पहले तक उफन रहीं पंपा, पेरियार, कबानी जैसी कई सदानीरा नदियों का जल-स्तर आश्चर्यजनक ढंग से बहुत कम हो गया। इदुकी, वायनाड जिलों में कई सौ मीटर लंबी दरारें जमीन में आ गईं। बहुत से शोध बताते रहे कि तापमान में बढ़ोतरी के कारण पश्चिमी घाट के आसपास के इलाकों में अचानक बहुत भारी बरसात होगी ही और जब ऐसे में प्रकृति पर मानवीय दखल बढ़ा , जंगल कम होने से मिट्टी की पकड़ ढीली हुई तो भारत के इतिहास के सर्वाधिक भयावह भूस्खलन में से एक वायनाड में घटित हो गया ।
वेल्लारीमाला पर्वतमाला गहने जंगल और छोटी-बड़ी जलनिधियों से सम्पन्न ऊंट की पीठ की आकार के पर्वतमाला है । एक तो इसकी नमी और फिर ठीक इसके नीचे बह रहे विशाल अरब सागर से उठती नम और नमकीन वाष्प से यह पर्वतमाला बहुत संवेदनशील रही है । बार-बार इसए विशेष एको जॉन घोषित कर सभी तरह के निर्माण रोकने की मांग होती रही लेकिन पहाड़ खोद कर कोजिकोंड राजमार्ग को चौड़ा करना जारी रहा । समुद्र का तापमान बढ़ने से अधिक नमी ऊपर आने और फिर पेड़ों की कटाई से कमजोर हुई चट्टानों में दरारें बढ़ीं । वेल्लारीमाला का भूस्खलन एक सैडल (ऊंची जमीन के दो क्षेत्रों के बीच एक निचला बिंदु) से उत्पन्न हुआ है। सैडल दो तरह से बन सकते हैं – या तो फ्रैक्चरिंग अर्थात दरारों द्वारा या फिर कटाव से। आमतौर पर कटाव वाला सैडल चूना पत्थर में होते हैं, जो यहाँ नहीं । स्पष्ट है कि वेल्लारीमाला का भूस्खलन फ्रैक्चरिंग के कारण हुआ था।
जब इस तरह की दरारों में लंबे समय तक पानी जमा होता है और मिट्टी की पकड़ ढीली पड़ती जाती है अति यह अचानक फट पड़ता है और अपने साथ पेड़- पौधे, मिलत्ति, चट्टान ले कर तभी मचा देता है । वायनाड में जिन दो स्थानों – मुंडक्कई और चूरलमाला पर तबाही हुई , वे समुद्र ताल से कोई 950 मीटर ऊंचाई पर हैं जबकि वेल्लारीमाला की ऊंचाई 2000 मीटर है । कोई 100 मीटर सीधी ऊंचाई से ढेर सारा मलवा नीचे आना और फिर उससे लुप्त हो गई नदी -सरिता का भाव जुड़ जाना – कल्पना से पड़े है कि मानव निर्मित कोई संरचना इस वेग में खड़ी रह सकती थी । फिर दो घंटे में 37 सेंटीमीटर बरसात का प्रकोप तो था ही ।
एक बात और जिस स्थान पर सबसे अधिक तबाही हुई उसमें से एक है – चुरालमाला। चूरल अर्थात बांस और माला अर्थात पहाड़ । कभी यहाँ बांस का घना जंगल था और वह यहाँ के जमीन के कटाव को रोके रखता था । यह स्थापित तथ्य है कि नदी से हो रहे भू कटाव और मिट्टी के कमजोर होने से रोकने में बांस की बड़ी भूमिका रही है । वायनाड जिले के कोत्तातारा पंचायत के पास कम्बिनी नदी की सहायक नदी चलीपुडा के किनारे एक इंच भी ऐसे जगह नहीं दिखती जहां ऊँचे- ऊँचे बांस न उगे हों ।
कुछ साल पहले यहाँ लोगों ने अधिक भूमि के लोभ में बांस की झुरमुटों को उजाड़ दिया था, फिर वहाँ बरसात के तेज बहाव में नदी ने न केवल जमीन काटी बल्कि खेतों में बालू भर गई । अब किसान समझ गए कि यदि नदी को अपने खेत में आने से रोकना है तो इसका एकमात्र इलाज बांस लगाना है । दुर्भाग्य से चुरालमल में लगे लगाए बांस को बेपरवाही से उजाड़ा गया ।
आज वायनाड़ में पुनर्वास का काम चल रहा है । कम से कम तीन कस्बे फिर से बसाने होंगे, ऐसे में यह ध्यान रखना जरूरी है कि अब किसी भूली- बिसराई नदी के लुप्त हो गए भाव प बस्ती यानहीन बसाई जाए। इसके साथ नए पर्वास में बांस को प्रचुर मात्रा में लगाया जाए ।