पानी बचाना है तो कुएं बचाने होंगे
पंकज चतुर्वेदी
अभी गरमी शुरू ही हुई है, अभी एक हफ्ते पहले तक पश्चिमी विक्षोप के कारण जम कर बैमोसाम बरसात भी हो गई, इसके बावजूद बुंदेलखंड के बड़े शहरों में से एक छतरपुर के हर मुहल्ले में पानी की त्राहि-त्राहि शुरू हो गई। तीन लाख से अधिक आबादी वाले इस शह र में सरकार की तरफ से रोपे गए कोई 2100 हैंडपंपों में से अधिकांश या तो हांफ रहे हैं या सूख गए हैं। ग्रामीण अंचलों में भी हर बार की ही तरह हैंडपंप से कम पानी आने की शिकायत आ रही है। पानी की कमी के चलते छुट्टा मवेशियों की समस्या रबी की फसल के लिए खतरा बन गई है।
बुंदेलखंड तो बानगी है। सारे देश में बरसात के बीत जाने के बाद पनि की त्राहि-त्राहि अब सामान्य बात हो गई है। हताश जनता को जमीन की छाती चीर कर पानी निकालने या बड़े बांध के सपने दिखाये तो जाते हैं। लेकिन जमीन पर कहीं पानी दिखता नहीं। आखिर नदियों में भी तो प्रवाह घट ही रहा हैं। आने वाले साल मौसमी बदलाव की मार के कारण और अधिक तपेंगे और ऐसे में पानी की मांग बढ़ेगी। ऐसे में हमारे पारंपरिक कुएं ही
मानव-अस्तित्व को बचा सकते हैं।
हमारे आदि–समाज ने कभी बड़ी नदियों को छेड़ा नहीं, वे बड़ी नदी को अविरल बहने देते थे – साल के किसी बड़े पर्व-त्योहार पर वहाँ एकत्र होते बस । खेत- मवेशी के लिए या तो छोटी नदी या फिर तालाब- झील । घर की जरूरत जैसे पीने और रसोई के लिए या तो आँगन में या फिर बसाहट के बीच का कुआं काम करता था । यदि एक बाल्टी की जरूरत है तो इंसान मेहनत से एक ही खींचता था और उसे किफायत से खर्च करता । अब की तरह नहीं कि बिजली की मोटर से एक गिलास पानी की जरूरत के लिए स्वया दो बाल्टी व्यर्थ कर दिया जाए ।
पंजाब की प्यास भी बड़ी गहरी है। पाँच नदियों के संगम से बना यह समृद्ध राज्य खेती के लिए अंधाधुंध भूजल दोहन के कारण पूरी तरह “डार्क ज़ोन ” में है। यहाँ 150 में से 117 ब्लॉक में भूजल लगभग शून्य हो चुका है। कुछ साल पहले पलट कर देखें तो पाएंगे कि इस राज्य को खुश और हराभरा बनाने वाले दो लाख कुएं थे जो अब बंद पड़े हैं।
गुरु की नगरी अमृतसर में ही 1200 कुएं हुआ करते थे चौथे पातशाही गुरु रामदास जी के निवास पर बना कुआं अमृतसर आबाद होने पर बनाया गया आठ जो सूख गया इस शहर में पाइप से पानी घर तक भेजने का काम सं 1886 में शुरू हुआ था और तब शहर की प्यास बुझाने का जिम्मा 1200 कुओं पर था जो अब या तो लुप्त हो गए या बेपानी है, भारत के लोक जीवन में पुरानी परंपरा रही है कि घर में बच्चे का जन्म हो या फिर नई दुल्हन आए, घर-मुहल्ले के कुंए की पूजा की जाती है– जिस इलाके में जल की कीमत जान से ज्यादा हो वहां अपने घर के इस्तेंमाल का पानी उगाहने वाले कुंए को मान देना तो बनता ही है।
बीते तीन दशकों के दौरान भले ही प्यास बढ़ी हो, लेकिन सरकारी व्यवस्था ने घर में नल या नलकूप का ऐसा प्रकोप बरपाया कि पुरखों की परंपरा के निशान कुएं गुम होने लगे। अब कुओं की जगह हैंडपंप पूज कर ही परंपरा
पूरी कर ली जाती है। वास्तव में यह हर नए जीवन को सीख होता था कि आँगन का कुआं ही जीवन का सार है ।
समझना होगा कि असली समस्या काम बरसात या तीखी गर्मी नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढ़ियों से होता रहा है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों और नैसर्गिक जल साधनों के अधिक से अधिक शोषण की नीतियों ने ले ली। बड़े करीने से यहां के आदि-समाज ने बूंदों को बचाना सीखा था। दो तरह के तालाब- एक केवल पीने के लिए , दूसरे केवल मवेशी व सिंचाई के। पहाड़ की गोदी में बस्ती और पहाड़ की तलहटी में तालाब। तालाब के इर्द गिर्द कुएं ताकि समाज को जितनी जरूरत हो, उतना पानी खींच कर इस्तेमाल
कर ले।
पिछले साल ही संसद में बताया गया कि छठवें लघु सिंचाई गणना के आंकड़ों के मुताबिक देश में अभी भी 82
लाख 78 हजार 425 कुएं बकाया हैं । इनमें सबसे अधिक 27 लाख 49 हजार 88 उस महाराष्ट्र में हैं जहां किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा सर्वाधिक है । उसके बाद उस मध्य प्रदेश में 13 लाख 3 6 हजार 682कुओं की चर्चा अकारण अहोगा जहां प्यास और पलायन के कारण बदनाम बुंदेलखंड है ।
तमिलनाडु में इससे अधिक 15 लाख 77 हजार 198 कुएं है लेकिन आज भी इस राज्य में ऐरी पद्धति के चलते दूरस्थ अञ्चल तक तालाब-कुओं का प्रबंधन बेहतर है । दुर्भाग्य है कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में महज 85224 कुएं का रिकार्ड मिल पाया । जबकि गंगा-
यमुना सहित दर्जन भर बड़ी नदियों की गोद में बीएसई इस राज्य के हर आँगन- गाँव में कुएं होना अभी चार दशक पहले तक आम बात थी । अकेले लखनऊ में 12653 कुआ- तालाब का रिकार्ड तो सरकारी फाइल में ही है।
यदि बुंदेलखंड में ही देखें तो छतरपुर का महोबा रोड हो या फिर बांदा के कुओं के नाम पर पड़े मुहल्ले या फिर झांसी के खंडेराव गेट के शीतलामाता मंदिर की पंचकुईयां, आज भी इनसे सार्वजनिक नल-जल योजनाएं चल रही हैं। एक बात जाने कुओं का रखरखाव कम खरकिल अहै। कुओं के इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन जैसे विषय धरती को गरम करते नहीं। कुओं को स्थानीय स्तर पर थोड़ी सी बरसात होने पर भी हर बूंद को एकत्र करने
का पात्र बनाना बहुत सरल होता है। कुओं की मेंढ़ पर मवेशी और पक्षी भी प्यास बुझाते है और वहाँ लोक और सहअस्तित्व का जीवन तो पुष्पित पल्लवित होता ही है।
प्राचीन जल संरक्षण व स्थापत्य के बेमिसाल नमूने रहे कुओं को ढकने, उनमें मिट्टी डाल पर बंद
करने और उन पर दुकान-मकान बना लेने की रीत सन् 90 के बाद तब शुरू हुई जब लोगों को लगने लगा कि पानी, वह भी घर में मुहैया करवाने की जिम्मेदारी सरकार की है और फिर आबादी के बोझ ने जमीन की कीमत को प्यास से अधिक महंगा बना दिया । तरह तरह की मशीन बेचने वालों ने खुले कुएं की पानी को अशुद्ध और बीमारी का घर बताने के प्रचार किये । सनद रहे जब तक कुएं से बालटी डाल कर पानी निकालना जारी रहता है उसका पानी शुद्ध रहता है, जैसे ही पानी ठहर जाता है, उसकी दुर्गति शुरू हो जाती है।
कई करोड़ की जल- आपूर्ति योजनाएं अब जल-स्त्रोत की कमी के चलते अपने उद्देयों को पूरा नहीं कर पा रही हैं। यह समझना जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन के साल दर साल गहराने के चलते भारत में लघु व स्थानीय परियोजनाएं ही जल संकट से जूझने में समर्थ हैं। चूंकि पर्यावास तथा उसके बीच के कुएं ताल-तलैयों के ईदगिर्द
ही बस्तियां बसती रही हैं, ऐसे में कुएं तालाबों से पानी का लेन-देन कर धरती के जल-स्तर को सहेजने, मिट्टी की नमी बनाए रखने जैसे कार्य भी करते हैं।
अभी भी देश में बचे कुओं को कुछ हजार रूपए खर्च कर जिंदा किया जा सकता हे। ऐसे कुंओं को जिला कर उनकी जिम्मेदारी स्थानीय समाज की जल बिरादरी बना कर सौप दी जाए तो हर कंठ को पर्याप्त जल मुहैया करवाना कोई कठिन कार्य नहीं होगा। यदि देश में हर स्थानीय निकाय को सभी कुओं का अलग से सर्वेक्षण करा कर उन्हें पुनर्जीवित करने की एक योजना शुरू की जाए तो यह बहुत कम कीमत पर जन भागीदारी के साथ हर घर को पर्याप्त पानी देने का सफल प्रयोग हो सकता है। एक बार कुओं में पानी आ गया तो समाज फिर खुद लोक परंपरा और प्यास दोनों के लिए कुओं पर निर्भर हो जाएगा।
यह भी https://indiaclimatechange.com/2024/03/have-to-get-into-the-habit-of-holding-water/पढ़े।