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ध्वनि प्रदूषण के खिलाफ निर्णायक जंग अभी बाकी

पंकज चतुर्वेदी

 

मध्य प्रदेश की नई सरकार ने विभिन्न धार्मिक स्थलों से अभी तक कोई 28 हजार ध्वनि विस्तारक यंत्र उतारे जा चुके हैं, हजारों की आवाज इतनी कम करवा दी गई है । यह कदम महज बेवजह उन्मादी शोर  के खिलाफ ही नहीं है, यह धर्म-सम्मत भी है और पर्यावरण संरक्षण के लिए अनिवार्य भी। हालांकि समय-समय पर कई अदालतें इस बारे में निर्दे देती रही हैं लेकिन पहले उप्र और अब मप्र सरकार की प्रबल इच्छा शक्ति  ने उस कारक को समझा और पाबंद किया ।

हालांकि यह ध्वनि प्रदूषण के बढ़ते खतरे के बीच कोई निर्णायक जंग नहीं है । नए साल की रात में ही देश के छोटे से कस्बे से ले कर महानगर तक डीजे , कार में  संगीत और आतिशबाजी ने कोई एक घंटे शोर के विरुद्ध कानूनों को बुरी तरह कुचला । अभी भी सड़कों पर धार्मिक जुलूस के नाम पर या फिर विवाह या अन्य समाजिक कार्यों की आड़ में कानफोडू डीजे बजाने पर कोई पाबंदी है नहीं

एक बात समझना होगा कि ध्वनि से उत्पन्न  पर्यावरण- संकट किसी भी स्तर पर वायु प्रदूषण से होने वाले नुकसान से कमतर नहीं हैं । यह शारीरिक और मानसिक दोनों किस्म के विकार का जनक है । इंसान के कानों की संरचना कुछ इस तरह है कि वह एक निश्चित सीमा के बाद ध्वनि की तीव्रता को सह नहीं सकते। जानवर और पशु-पक्षी तो इस मामले में और अधिक संवेदनशील हैं।

अववाज़ की तीव्रता को मापने की ईकाई “डेसीबल” , मूल रूप से अनुभव किए गए ध्वनि दवाब ( साउन्ड प्रेशर) और मानक दाब ( रेफरेंस प्रेशर) के अनुपात का लघुगणकीय मान है । डेसीबल ईकाई भी बहुत संवेदनशील होती है , इसमें मामूली से बदलाव के दुष्परिणाम कई गुण खतरनाक होते हैं । 80 डेसीआब के दाब की तुलना में 120 डेसीबल का दाब सौ गुण  अधिक होता है। वैसे हमारे कानों के लिए  45 डेसीबल से अधिक की आवाज खतरनाक है ।

एक फुसफुसाहट लगभग 30 डीबी है, सामान्य बातचीत लगभग 60 डीबी है, और एक मोटरसाइकिल इंजन का चलना लगभग 95 डीबी है। लंबे समय तक 70 डीबी से ऊपर का शोर आपकी सुनने की क्षमता को नुकसान पहुंचाना शुरू कर सकता है। 120 डीबी से ऊपर का तेज़ शोर आपके कानों को तत्काल नुकसान पहुंचा सकता है।

 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था-आप किसी शोर का सुनना चाहते हैं या नहीं, यह तय करने का आपको पूरा अधिकार लेकिन सड़क पर जोर जोर से बात करते लोग या साझा तिपहिया में  बजते कानफोडू स्टीरियो आदि  को इस आदेश की कतई  परवाह नहीं ।

ध्वनि प्रदूषण से हमारे  सुनने का तंत्र तो क्षतिग्रस्त होता ही है , हमारी धमनियों के सिकुड़ने का भी खतरा होता है । अनिद्रा , एसिडिटी , अवसाद , उच्च रक्तचाप, चिड़चिड़ापन तो होता ही है । जर्मनी के ड्रेस्डन यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के आंद्रियास सिडलर ने शोध में बताया कि यातायात के शोरगुल से हृदयाघात का खतरा बढ़ जाता है

 

 
 

कुछ साल पहले जबलपुर हाईकोर्ट ने जीवन में शोर के दखल पर गंभीर फैसला सुनाया था , जिसके तहत अब त्योहारों में सार्वजनिक मार्ग पर लाउडस्पीकरों को प्रतिबंधित कर दिया था । यही नहीं कोर्ट ने अब ट्रैफिक बाधित करने वाले पंडालों पर भी अंकुश लगाने के आदेश दिए थे । मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अजय माणिकराव खानविलकर व जस्टिस शांतनु केमकर की डिवीजन बेंच ने समाजसेवी राजेंद्र कुमार वर्मा की जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद आदेश किया था  कि त्योहार या सामाजिक कार्यक्रम के नाम पर अत्याधिक शोर मचाकर आम जनजीवन को प्रभावित करना अनुचित है।

 


हाईकोर्ट मध्यप्रदेश कोलाहल निवारण अधिनियम-
1985 की धारा-13 को असंवैधानिक करार दिया । अभी इस धारा के प्रावधानों का दुरुपयोग करते हुए लोग डीजे आदि बजाने की अनुमति ले लेते हैं। हाईकोर्ट ने अपने  आदे में कहा कि .किसी के मकान या सड़क किनारे लाउडस्पीकर-डीजे आदि के शोर से न केवल मौलिक मानव अधिकार की क्षति होती है बल्कि आसपास रहने वालों को बेहद परेशानी होती है। लिहाजा, अधिनियम की जिस धारा में दिए गए प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए लाउड स्पीकर आदि बजाए जाने की अनुमति हासिल कर ली जाती थी, उसे असंवैधानिक करार दिया जाता है। लेकिन उस आदे पर सटीक अनुपालन हुआ नहीं।

 

एक बात और कोई भी धर्म का दर्शन  कोलाहल या अपने संदे को जबरिया अवांछित लोगों तक पहुंचाने  के विरूद्ध है और इस तरह से धार्मिक अनुष्ठान  में भारीभरकम ध्वनिविस्तारक यंत्र की अनिवार्यता की बात करना धर्म-संगत भी नहीं है। कुरान शरीफ में लिखा है – ‘‘लकुम दीनोकुम, वलीया दीन!’ यानि तुम्हारा धर्म तुम्हारे लिए और हमारा धर्म हमारे लिए। यानी यदि कोई शख्स दूसरे धर्म में यकीन करता है, तो उसे जबरन अपने धर्म के
बारे में न बताएं।

लेकिन जब हम लाउडस्पीकर पर अजान देते हैं या तरावी पढ़ते हैं तो क्या दूसरे धर्मावलंबियों को जबरन अपनी बातें नहीं सुनाते? इसी तरह गीता रहस्य के अठारहवें अध्याय के 67-68 वें श्लोक में कहा गया है- इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन। न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां याभ्यसूयति।। अर्थात गीता के रहस्य को ऐसे व्यक्ति के समक्ष प्रस्तुत नहीं करना चाहिए जिसके पास इसे सुनने का या तो धैर्य ना हो या जो किसी स्वार्थ-विषेश के चलते इसके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट कर रहा है या जो इसे सुनने को तैयार नहीं है। जाहिर है कि लाउड स्पीकर से हम ये स्वर उन तक भी बलात पहुंचाते है। जो इसके प्रति अनुराग नहीं रखते।

ऐसा नहीं है कि इस बवाली ध्वनि प्रदूषण पर कानून नहीं है, लेकिन कमी है कि उन कानूनों का पालन कौन करवाए। अस्सी डेसीमल से जयादा आवाज ना करने, रात दस बजे से सुबह छह बजे तक ध्वनि विस्तारक यंत्र का इस्तेमाल किसी भी हालत में ना करने, धार्मिक सथ्लों पर आइ फुट से ज्यादा ऊंचाई पर भोंपू ना लगाने, अस्पताल-षैक्षिक संस्थाओं, अदालत व पूजा स्थल के 100 मीटर के आसपास दिन हो या रात, लाउडस्पीकर का इस्तेमाल ना करने, बगैर पूर्वानुमति के पीए सिस्टम का इस्तेमाल ना करने जैसे ढेर सारे नियम, उच्च अदालतों के आदेष सरकारी
किताबों में दर्ज हैं
, लेकिन राजनीतिक दवाब में ये सब बेमानी हैं ।

धार्मिक स्थलों से भोंपू उतरवाना या उनकी आवाज काम करना एक शुरुआत तो है लेकिन जब तक सड़क पर हो रहे आए दिन के जलसे- जुलूस- सामाजिक-धार्मिक  आयोजनों में शोर के खिलाफ सशक्त  शोर नहीं मचाया जाता, शोर का शोर इंसान ही नहीं प्रकृति को भी डँसता रहेगा।