रोहित कौशिक
हाल ही में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जनपद स्थित गांव बेलड़ा में सेमल के 150 वर्ष पुराने पेड़ की रस्म तेरहवीं का आयोजन किया गया। अखबारों में जोरशोर से इस आयोजन की खबरें प्रकाशित हुईं। इस खबर पर मेरा ध्यान इसलिए भी गया क्योंकि बेलड़ा मेरा पैतृक गांव है और मैं पर्यावरण जैसे मुद्दों पर अक्सर लिखता रहता हूं। बेलड़ा गांव में सिंचाई विभाग का निरीक्षण भवन है। कुछ दिनों पहले इस निरीक्षण भवन की दीवार से सटा हुआ सेमल का 150 वर्ष पुराना पेड़ अचानक धराशायी हो गया। काफी पुराना होने के कारण इस पेड़ से ग्राणीणों का आत्मीय जुड़ाव रहा है। इस आयोजन में एक अच्छी बात यह हुई कि सेमल के पेड़ की स्मृति में ग्रामीणों और यहां आए अन्य लोगों ने कई पौधे लगाए। इस प्रयास की सराहना की जानी चाहिए। एक समाजसेविका ने इस पेड़ की कुछ टहनियां मुजफ्फरनगर लाकर प्रतीकात्मक रूप से पेड़ का दाह संस्कार किया। पेड़ के दाह संस्कार की खबरें भी स्थानीय अखबारों में प्रकाशित हुईं। पेड़ के दाह संस्कार से यह समाजसेविका क्या साबित करना चाहती थी, यह समझ से परे है। निश्चित रूप से पेड़ की रस्म तेरहवीं आयोजित करने के पीछे ग्रामीणों का भाव मुख्य रूप से पेड़ को सम्मान और श्रद्धा अर्पित करने का ही रहा होगा। इस सम्मान तथा श्रद्धा पर किसी भी तरह से शक नहीं किया जा सकता है। श्रद्धा तक तो ठीक है लेकिन जब श्रद्धा एक नाटकीय रूप ले लेती है तो उसकी पीछे छिपा भाव भी नाटकीय हो जाता है। ऐसा भाव वास्तविक नहीं रह जाता। श्रद्धा को जब इंवेट बना दिया जाता है तो यह सवाल उठना लाजमी है कि एक पेड़ की रस्म तेरहवीं आयोजित करने से क्या हासिल होगा ? इस दौर में हर बात को धर्म और संस्कृति से जोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, भले ही हम धर्म और संस्कृति के मूल तत्वों के बारे में कुछ भी न जानते हों। ऐसे आयोजनों से एक खास विचारधारा वाले लोगों का स्वार्थ भी सध जाता है।
क्या पेड़ की रस्म तेरहवीं करने से पुरानी और नई पीढ़ी में वृक्षों को बचाने के लिए एक नई चेतना पैदा हो सकेगी ? जब जनसरोकार के किसी मुद्दे को इंवेट बनाने की कोशिश की जाती है तो उसके पीछे छिपा मूल भाव समाप्त हो जाता है और हमारा सारा ध्यान इंवेट के प्रबन्धन पर लग जाता है। इस तरह हम भविष्य में भी इसी रास्ते पर चलने लगते हैं। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार मृतक की आत्मा की शांति के लिए तेरहवीं भोज को जरूरी माना गया है। इसका अर्थ यह है कि बेलड़ा गांव में पेड़ की आत्मा की शांति के लिए रस्म तेरहवीं और यज्ञ का आयोजन किया गया। इंसान की आत्मा का जिक्र तो हमारे ग्रंथोंऔर परिवारिक-सामाजिक वार्तालाप में होता है लेकिन जब इस प्रगतिशील दौर में जानबूझकर पेड़ की आत्मा का निर्माण भी कर दिया जाए तो यह विचार करना जरूरी हो जाता है कि हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं ? क्या किसी भी वृक्ष के सम्बन्ध में ऐसी अवैज्ञानिक बातों को बढ़ावा देना चाहिए ? विज्ञान के इस समय में ऐसी अवैज्ञानिक बातों को बढावा देकर हम नई पीढ़ी को क्या शिक्षा देंगे ? आज युवा वर्ग वनस्पति विज्ञान के अन्तर्गत पादप-क्रिया-विज्ञान (प्लांट फिजियोलॉजी) में प्रकाश संश्लेषण, श्वसन और वाष्पोत्सर्जन जैसी अनेक क्रियाओं का अध्ययन करता है। ऐसे युवाओं को किस मुंह से एक वृक्ष की रस्म तेरहवीं का महत्व समझाया जाएगा ?
बेलड़ा गांव हरिद्वार से निकलने वाली गंग नहर के किनारे स्थित है। गंग नहर की एक पटरी काफी वर्षों पहले कांवड़ मार्ग घोषित कर दी गई थी। अब गंग नहर की दूसरी पटरी पर भी कावंड़ मार्ग का निमार्ण हो रहा है। इस परियोजना के लिए गाजियाबाद के मुरादनगर से मुजफ्फरनगर के पुरकाजी तक लगभग 111 किलोमीटर पटरी पर पेड़ काटे जा रहे हैं। पहले यह खबर आई थी कि इस परियोजना के लिए एक लाख से ज्यादा पेड़ काटे जाने की उम्मीद है लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) को सूचित किया कि गाजियाबाद, मेरठ और मुजफ्फरनगर तक फैली इस पटरी पर 33,000 से ज्यादा पूर्ण विकसित पेड़ों को काटना पड़ेगा। आरोप है कि इस पटरी पर अवैध रूप से भी पेड़ों का कटान किया गया। इस मुद्दे पर अभी जांच चल रही है। पर्यावरणविदों ने इस मुद्दे पर चिंता जाहिर की। सवाल यह है कि क्या आम जनता या ग्रामीण कावंड़ पर अवैध रूप से कट रहे पेड़ों को बचाने के लिए आगे आए ? क्या उन्होनें अवैध रूप से कट रहे पेड़ों को बचाने की कोई पहल की ? एक तरफ इसी कांवड़ मार्ग पर स्थित बेलड़ा गांव में 150 वर्ष पुराने सेमल के पेड़ को श्रद्धांजलि देने के लिए रस्म तेरहवीं का आयोजन होता है तो दूसरी तरफ इसी कांवड़ पर अवैध रूप से कटने वाले पेड़ों को लेकर कोई हलचल नहीं होती है। यह खोखला आदर्शवाद नहीं तो और क्या है ? यह सुखद है कि सरधना के विधायक अतुल प्रधान और कुछ पर्यावरणविदों ने इस मुद्दे पर आवाज उठाई तब जाकर प्रशासन हरकत में आया।
हमारी संस्कृति में प्रारम्भ से ही वृक्षों की पूजा करने की परम्परा रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि एक तरफ यह समाज वृक्षों को पूजता रहा तो दूसरी तरफ बड़ी ही बेरहमी से वृक्षों को काटता भी रहा। इस तरह वृक्षों की पूजा सिर्फ अपनी स्वार्थसिद्धि तक ही सीमित रह गई। यही कारण है कि भौतिक रूप से विकसित होती इस दुनिया में प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन ने स्थिति को भयावह बना दिया। इसलिए पेड़ की रस्म तेरहवीं जैसे आयोजन से जो खोखला वातावरण निर्मित होता है वह पेड़ों को बचाने में कोई कारगर भूमिका नहीं निभा पाता। अवैज्ञानिकता को बढ़ावा देकर किसी भी कीमत पर वृक्षों को नहीं बचाया जा सकता। इस अवैज्ञानिकता की आड़ में हम वृक्षों का नुकसान ही ज्यादा करेंगे। इस दौर में वृक्षों को देवता बनाने की नहीं बल्कि मित्र बनाने की जरूरत है। ढकोसलों से दूर रहकर वृक्ष रूपी इन सच्चे मित्रों को बचाने का प्रयास किया जाएगा तो ये मित्र भी हमें और हमारी दुनिया को बचाने के लिए आगे आएंगे।