नदी, सरिता, तरंगिनि, तटिनी और न जाने क्या क्या नामों से हम प्रकृति के इस जलप्रवाह रूप को जानते है। दिल्ली का निवासी होने के नाते रोज कार्यालय आने-जाने के लिए यमुना नदी को पर करना पड़ता है। जिस दिन मैंने सर्वप्रथम यमुना नदी को देखा उस दिन इस निबंध को लिखने की एक तीव्र उत्कंठा ने मुझे जकड़ लिया। मैंने इसे लिखने का कोई समय या दिन तो निर्धारित नहीं किया किन्तु तब से आज तक रोज ऐसे लगता था जैसे कोई काम अधूरा है।
अभिषेक कुमार सिंह
नदियां अपने आप में चिंतन का विषय हैं। उनके किनारे भी लोग चिंतन करने ही जाते है। हृषिकेश अपने आप में एक चिंतन का केंद्र है। काशी के क्या कहने। लेकिन मेरे मन में यमुना जी को देख कर सबसे पहले जो बात आयी थी वो चिंतन के विषय में नहीं थी। वह था नदी का विराट स्वरुप।
मैंने जन्म शहर में लिया था और क्यूंकि दुर्भाग्यवश कभी नदी देखने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ मुझे नदी को देखकर ऐसे लगा की इसपर विजय पाना काफी कठिन है। आदिकाल में जब मानव अपनी विचरणी प्रवृति के कारण अलग अलग जलवायुओं में रहने का प्रयोग कर चुका होगा तब उसने नदी की और अपना रथ बढ़ाया होगा। नदी को पार करने में प्रयुक्त संसाधन जुटाने और उस पार पहुंचने पर भी उसे विजय की अनुभूति नहीं हुई होगी क्यूंकि धरती सब जगह एक सामान है। इसके अलावा पर्वत को काटा जा सकता है किन्तु नदी को नहीं। जिसको कटा न जा सके किनारा कर लो।
पर्वत को काटने से विजय अनुभूति होती है विजयचिन्ह के रूप में कटे पर्वत को देखा जा सकता है। नदी को न तो काटा जा सकता ना ही पार करने पर विजय स्मृति के लिए कोई चिन्ह मिलता है। हारकर उसने किनारे पर रहना ठीक समझा। सम्भवतः नदी के किनारे बस जाने की परंपरा वही से विकसित हुई होगी। मजेदार बात तो ये है की सभ्यता चाहे गंगा जी के किनारे हो या दजला और फरात के किनारे नदी से सबने किनारा ही किया है।
एक कारण तो ऊपर लिखा है जिसके कारण सभी लोग नदी किनारे घर बनाने को आतुर और विवश हैं। नदियाँ माँ भी हैं। जीवन दायिनी हैं। जैसे माँ सब देती है वैसे नदिया सभी संसाधन प्रदान करती है। नदियों में बाढ़ आना तपश्चात उपजाऊ मिटटी आना बिलकुल वैसे है जैसे कोई माँ अपने बेटे को डांटे और उसके बात उसके व्यहार में सकारात्मक परिवर्तन आ जाना।
कलियुग में माँ और नदियों दोनों की दशा एक सी हो गई है। कई नदियों की पवित्रता बिल्कुल उसी तरह क्षीण हो रही है जैसे माताओं का मातृत्व। किसी काम से कानपुर जाना हुआ तो एक सज्जन से भेंट हुई। क्योंकि आयु में वह मेरे पिता तुल्य थे, तो किसी नादान बालक की तरह मैंने अभिवादन किया और पूछा, “चाचा, गंगा घाट जाना है, दिल्ली से पेपर देने आया हूं, सोच रहा हूँ गंगा नहा लूँ।” वह भद्रपुरुष मुझे ऊपर से नीचे निहारने के पश्चात बोले, “सीधे निकल जाओ, दक्षिण की दिशा में।”
मुझे यह थोड़ा सा उपहासपूर्ण लगा, बाबा आनंदेश्वर पहुँचकर और पानी छूकर पता चले कि वह मुझे गंगा नहाकर दक्षिण (यमराज की दिशा) पहुँचने का आशीष क्यों दे रहे थे। कानपुर, क्योंकि अपने चमड़े उद्योग के लिए जाना जाता है और चमड़े के काम के बाद का पानी नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है, तो आप पानी की दशा का अनुमान लगा ही सकते हैं। पानी में वसा की मात्रा अधिकता और वाणी में मीठास, ऐसा अनूठा संगम आपको कहीं और नहीं मिल सकता।
माता को सबसे ज्यादा दुःख केवल उनका अपना पुत्र ही दे सकता है। भले यह गौरव की बात ना हो, लेकिन चिंतन का विषय जरूर है। और तो और, जिस बेटे को माँ सबसे ज्यादा मानती है, अधिकांशतः वही सबसे ज्यादा नालायक निकलता है। जो बेटा विदेश से आएगा, वो माँ की शायद ज्यादा इज्जत करेगा, साथ में रहने वाला जाने-अनजाने दुःख जरूर देगा। किसी बुढ़िया के तीन बेटे थे, दो की मृत्यु अल्पायु में हो गई, बचे हुए बेटे ने सब किया, किन्तु माँ के लिए सबसे ज्यादा प्रेम उन्ही के प्रति है, जो जा चुके हैं। ऐसा ही माँ के साथ भी है। माँ यदि दूर हो तो प्रेम स्वाभाविक है, लोग दूर-दूर से गंगा नहाने जाते हैं, जो गंगा किनारे रहते हैं उतनी महत्ता नहीं करते।
भारत को ऋषि-मुनियों की धरती कहने वाला मैं अकेला नहीं हूँ, सब कहते हैं। एक महान संत हुए, नीम करोली बाबा, शिप्रा किनारे आश्रम बनाया, आज उनके शिष्य वहाँ गंदगी करते हैं, श्रद्धालु सिर झुकाते हैं।
हो सकता है, नदियों के जाने पर ही हमें उनका महत्व समझ आए, ईश्वर कभी ऐसा न करें, या करें, पता नहीं।