सुनील कुमार महला
हाल ही में यूएनसीसीडी यानी कि यूनाइटेड नेशन कन्वेंशन टू कंबैट डेजर्टिफिकेशन और यूरोपियन कमीशन ज्वाइंट रिसर्च सेंटर द्वारा वर्ल्ड डेजर्ट एटलस जारी किया है। इसमें यह कहा गया है कि साल 2050 तक यानी कि आने वाले 25 सालों में दुनिया की करीब 75% आबादी सूखे से प्रभावित होगी। उल्लेखनीय है कि इस एटलस को इटली की सीआईएमए रिसर्च फाउंडेशन, नीदरलैंड्स की एक यूनिवर्सिटी और यूएन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरमेंट एंड ह्यूमन सिक्योरिटी ने तैयार किया है और इसमें सूखे की वजह से एनर्जी(ऊर्जा), कृषि और व्यापार पर पड़ रहे असर को डिटेल में बताया गया है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज विश्व में विभिन्न मानवीय कारणों और पानी का सही इस्तेमाल और इसका प्रबंधन सही नहीं होने के कारण संपूर्ण विश्व आज शनै:शनै: सूखे की ओर अग्रसर होता चला जा रहा है। आज जमीन का मैनेजमेंट ठीक नहीं है। जल स्त्रोतों का ठीक से आकलन नहीं किया जाना भी सूखे का एक प्रमुख कारण बनकर सामने आया है। कहना चाहूंगा कि आज भारत में लगातार शहरीकरण हो रहा है। आज बेतरतीब शहरी विकास और जल प्रबंधन की विफलता के कारण सूखे की समस्या जन्म ले रही है।
विभिन्न जल स्त्रोतों का प्रबंधन सही नहीं है और यही कारण है कि आज भारत में जल संकट पैदा हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार भारत में कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक यानी कि 25 करोड़ से भी अधिक लोग काम करते हैं और यहां सूखे से सोयाबीन उत्पादन में भारी नुकसान का अनुमान लगाया गया है। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि सूखा हमेशा एक प्राकृतिक घटना नहीं होती है। जल संसाधन सीमित है और मनुष्य को यह चाहिए कि वह इन संसाधनों का सीमित और बेहतरीन उपयोग करना सुनिश्चित करे। हाल ही में सऊदी अरब के रियाद में यूएनसीसीडी के लगभग 200 दलों के 16वें सम्मेलन कांफ्रेंस आफ पार्टीज-16(काप-16) में जो ‘भूमि शुष्कता का वैश्विक खतरा: क्षेत्रीय और वैश्विक शुष्कता के रुझान और भविष्य’ के अनुमान पर जो रिपोर्ट जारी की गई है, वह वास्तव में मरुस्थलीकरण के बढ़ते खतरे से निपटने के लिए वैश्विक सहयोग और जलवायु कार्रवाई की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है। रिपोर्ट बताती है कि पिछले तीन दशकों (वर्ष 2020 तक) में पृथ्वी के 77% से अधिक भूभाग ने, पिछले 30 वर्षों की अवधि की तुलना में, शुष्क जलवायु का अनुभव किया है और इन 30 वर्षों में शुष्क भूमि का विस्तार लगभग 4.3 मिलियन वर्ग किलोमीटर (भारत से लगभग एक तिहाई अधिक) हुआ है। यह बहुत ही गंभीर और संवेदनशील है कि वर्तमान में पृथ्वी की 40% से अधिक भूमि शुष्क हो चुकी है , जो एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय बदलाव को दर्शाता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि मरुस्थलीकरण में वृद्धि से और जलवायु शुष्कता से मनुष्य जीवन के साथ ही उसकी आजीविका पर भी खतरा बढ़ रहा है और यह खतरा विशेष रूप से कैलिफोर्निया, मिस्र, पाकिस्तान, भारत और पूर्वोत्तर चीन जैसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में बढ़ा है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विश्व के शुष्क भूमि निवासियों में से आधे एशिया और अफ्रीका में रहते हैं, जबकि कैलिफोर्निया, मिस्र, उत्तरी पाकिस्तान, भारत के कुछ हिस्सों और पूर्वोत्तर चीन में घनी आबादी वाले क्षेत्र हैं। बहरहाल, यह अनुमान लगाया गया है कि यदि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर अंकुश नहीं लगाया गया तो सदी के अंत तक दुनिया के 3% आर्द्र क्षेत्र शुष्क भूमि में बदल जाएंगे, जिससे विश्व के विशाल क्षेत्र प्रभावित होंगे तथा अरबों लोगों की आजीविका के लिए खतरा उत्पन्न हो जाएगा। अतः आज जरूरत इस बात की है कि विश्व के सभी देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करें, क्यों कि ग्लोबल वार्मिंग से कहीं न कहीं शुष्कता की समस्या जन्म लेती है। ग्रीन हाउस गैसों में कमी लाकर शुष्कता पर काफ़ी हद तक नियंत्रण किया जा सकता है। वास्तव में, दुनिया से सूखे के प्रभावों को कम करने में मदद करने के लिए हम जो सबसे आसान कदम उठा सकते हैं, वह है जल संरक्षण। सच तो यह है कि पानी को रिसाइक्लिंग (जल पुनर्चक्रण) किया जाना आज संपूर्ण विश्व की आवश्यकता बन गई है। इसके साथ ही पारिस्थितिकी संतुलन को बहाल करने की ओर भी ध्यान देने की जरूरत है। मरूस्थलीकरण रोकथाम कार्यक्रमों को चलाने की जरूरत बहुत महत्ती है। इतना ही नहीं शुष्कता दूर करने के लिए वनीकरण कार्यक्रम, हरित मिशन पर जोर देना होगा। तभी हम संपूर्ण विश्व को सूखे और शुष्कता के ख़तरों से बचा सकते हैं ।
फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड ।