सुप्रीम कोर्ट ने पलटा केंद्र का पर्यावरण विरोधी फैसला
पंकज चतुर्वेदी
श्री ईएएम शर्मा , पूर्व सचिव भारत सरकार ने 19 मई 2025 को पर्यावरण और वन मंत्रालय को भेजे गए एक पत्र में सुप्रीम कोर्ट के ताजा दिशा निर्देश के मुताबिक अंडमान निकोबार में कोई तीन हजार हेक्टेयर घने और समृद्ध वन क्षेत्र को बगैर पर्यावरणीय आकलन के ग्रेटर निकोबार द्वीप परियोजन को हस्तांतरित करने के आदेश की फिर से समीक्षा करने का अनुरोध किया हैं ।
विदित हो 16 मई 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने बगैर पर्यावरणीय अनुमोदन प्राप्त परियोजनाओं को जारी रखने पर सख्त रुख अपनाते हुए केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह भविष्य में किसी भी खनन या विकास परियोजना को ‘एक्स-पोस्ट फैक्टो’ पर्यावरण स्वीकृति (Environmental Clearance – EC) न दे, यदि वह परियोजना पूर्व स्वीकृति के बिना शुरू की गई हो।न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भूयान की पीठ ने इस फैसले में वर्ष 2017 की अधिसूचना और 2021 के कार्यालय ज्ञापन (ऑफिस मेमोरेंडम) (OM) को असंवैधानिक घोषित करते हुए रद्द कर दिया।
यह याचिकाएं पर्यावरण संरक्षण संगठन ‘वनशक्ति’ और अन्य ने दाखिल की थीं, जिसमें जुलाई 2021 और जनवरी 2022 को जारी मानक संचालन प्रक्रियाओं (SOPs) की वैधता को चुनौती दी गई थी। इन सरकारी दस्तावेजों में उन परियोजनाओं को पूर्ववर्ती स्वीकृति देने की व्यवस्था थी, जो पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन (EIA) अधिसूचना, 2006 के तहत अनिवार्य पूर्व ईसी EC के बिना शुरू की गई थीं। वनशक्ति ने तर्क दिया कि EIA 2006 में “पूर्व स्वीकृति” शब्द 34 बार आता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह अनिवार्य शर्त है। अतः कोई भी नीति जो एक्स-पोस्ट फैक्टो स्वीकृति देती है, वह कानून सम्मत नहीं हैं ।
पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने जुलाई 2024 में दायर एक हलफनामे में कहा कि 2017 की अधिसूचना ने केवल छह माह की एक विशेष खिड़की खोली थी, जो सितंबर 2017 में बंद हो गई। इसके बाद जुलाई 2021 का कार्यालय ज्ञापन (OM) एक वैकल्पिक प्रक्रिया था, जो बाद में हुईं उल्लंघन की घटनाओं को समाहित करने के लिए करने के लिए जारी किया गया था।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने का अधिकार मौलिक अधिकार का हिस्सा है, क्योंकि इसने मानदंडों का उल्लंघन करने वाली परियोजनाओं को पूर्वव्यापी या पूर्वव्यापी पर्यावरणीय मंजूरी देने वाले केंद्र के कार्यालय ज्ञापन को खारिज कर दिया।
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुयान की खंडपीठ ने वनशक्ति संगठन द्वारा दायर याचिका पर दिए गए फैसले में तीखी टिप्पणी की और कहा, “केंद्र सरकार का, व्यक्तिगत नागरिकों के समान, पर्यावरण की रक्षा करना संवैधानिक दायित्व है।”
अदालत ने 2021 के कार्यालयीन ज्ञापन को चालाकी का दसतवेज निरूपित करे हुए आदेश में लिखा है कि 2021 का कार्यालय ज्ञापन इस अदालत के निर्णयों का उल्लंघन करते हुए जारी किया गया है…” इसलिए, पीठ ने 2021 के कार्यालय ज्ञापन (ओएम) और संबंधित परिपत्रों को “मनमाना, अवैध और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 और पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) अधिसूचना, 2006 के विपरीत” घोषित किया। परिणामस्वरूप, केंद्र को किसी भी रूप या तरीके से पूर्वव्यापी मंजूरी देने या ईआईए अधिसूचना के उल्लंघन कर संचालित कार्यों को नियमित करने के लिए निर्देश जारी करने से रोक दिया गया है ।
उल्लेखनीय है कि भारत में विकास योजनाओं से पहले पर्यावरण स्वीकृति प्राप्त करने की शुरुआत 1994 में हुई। 27 जनवरी 1994 को, पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 के तहत, केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी की, जिसमें कुछ विशिष्ट प्रकार की नई परियोजनाओं या मौजूदा परियोजनाओं के विस्तार या आधुनिकीकरण के लिए पर्यावरण स्वीकृति (EC) अनिवार्य कर दी गई थी ।
हालांकि, हमारे यहाँ पर्यावरण प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assessment – EIA) की प्रक्रिया 1976-77 में शुरू हो गई थी। उस समय, योजना आयोग ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग को नदी घाटी परियोजनाओं का पर्यावरणीय दृष्टिकोण से मूल्यांकन करने का निर्देश दिया था। बाद में, इसे उन सभी परियोजनाओं तक विस्तारित किया गया, जिनके लिए सार्वजनिक निवेश बोर्ड (Public Investment Board) से अनुमोदन की आवश्यकता होती थी।
लेकिन, 1994 से पहले, पर्यावरण स्वीकृति प्राप्त करना एक प्रशासनिक निर्णय था और इसके लिए कोई विधायी समर्थन नहीं था। 1994 की अधिसूचना ने पहली बार इसे कानूनी रूप से अनिवार्य बना दिया।
केंद्र सरकार ने सन 2017 में एक अधिसूचना जारी कर उन परियोजनाओं को छह महीने की छूट दी थी जिन्होंने बिना पूर्व पर्यावरण मंजूरी के काम करना शुरू कर दिया था। इसके तहत, ऐसी परियोजनाओं को पिछली तारीख से मंजूरी प्राप्त करने का अवसर दिया गया था। उसे बाद 2021 में एक कार्यालय ज्ञापन (OM) के माध्यम से ऐसे उल्लंघन के मामलों को संभालने के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (Standard Operating Procedure – SOP) बनाया गया जिसके तहत, जो परियोजनाएं पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) अधिसूचना, 2006 का उल्लंघन कर चुकी थीं, वे जुर्माना भरकर और उपचारात्मक योजनाएं चलाकर पिछली तारीख से मंजूरी प्राप्त कर सकती थीं। मार्च -2020 में जब कोविड के समय देश में सब कुछ अस्त-व्यस्त और लॉक डाउन के कारण बंद था ।
तब 31 विकास परियोजनाओं के लिए 185 एकड़ घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति देने का काम जरूर होता रहा। सात अप्रैल 2020 को राश्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (एनबीडब्लूएल ) की स्थाई समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेस पर आयोजित की गई ढेर सारी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति दे दी थी । समिति ने पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील 2933 एकड़ के भू-उपयोग परिवर्तन के साथ-साथ 10 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र की जमीन को भी कथित विकास के लिए सौंपने पर सहमति दी थी ।
इस श्रेणी में प्रमुख प्रस्ताव उत्तराखंड के देहरादून और टिहरीगढवाल जिलों में लखवार बहुउद्देशीय परियोजना (300 मेगावाट) का निर्माण भी था । बाद में एन जी टी ने पर्यावरणीय मंजूरी को निरस्त किया तो केंद्र सरकार के आदेश से सब कुछ जायज हो गया था ।
इसमें कोई शक नहीं कि परीवरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर सरकार के ये आदेश कतिपय संस्थानों को निजी लाभ देने के इरादे से थे लेकिन सरकार यह भूल गई कि भारत सरकार ने पेरिस समझोते पर दस्तखत किया है और उसके अंतर्गत पूर्वव्यापी मंजूरी देना एसडीजी 13 (जलवायु कार्रवाई) और एसडीजी 15 (भूमि पर जीवन) के विरुद्ध है।जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और पिछले साल कोर्ट ने इस तरह की छूट पर पाबंदी लगाई, तब तक केंद्र सरकार कोई 100 परियोजनाओं को पर्यावरणीय नियमों से खिलवाड़ करने की छूट दे कर मंजूरी दे चुकी थी ।
ये कार्य मूल रूप से खनन और रियल एस्टेट से जुड़े थे जिनमें कोयला, लौह अयस्क और बॉक्साइट खदानें थीं तो बहुत से शराब बनाने के कारखाने । कुछ लोहा उद्योग और बहुत सी सीमेंट और चूने की इकाईयाँ । एक हवाई अड्डा और बहुत सी कालोनियाँ । समझा जा सकता है कि इनमें से कोई भी इतना अनिवार्य नहीं था कि नियमानुसार पर्यावरणीय मंजूरी के लिए कुछ दिन रुक नहीं सकता था । असल में इनमें से अधिकांश ऐसे नियमों को धता बताया कर ही स्थापित हो रहे थे ।
फिलहाल धन कमाने के लोभ में आम लोगों की साँसों और साफ पानी से वंचित रखने पर उतारू इन घरानों के नाम सामने आए हैं – सिंगरेनी कोलियरीज कंपनी लिमिटेड, महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड, जेपी सीमेंट, अल्ट्राटेक सीमेंट, रामको सीमेंट, भूषण स्टील लिमिटेड (टाटा स्टील), स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया, गोदरेज एग्रोवेट लिमिटेड, हिंदुस्तान कॉपर, लॉयड्स मेटल्स एंड एनर्जी लिमिटेड, हिंदुस्तान मार्बल, आर्टेमिस हॉस्पिटल, पुष्पावती सिंघानिया हॉस्पिटल, स्पेज टावर्स, होटल लीला वेंचर लिमिटेड, स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप आदि शामिल हैं।
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय भारत के पर्यावरण संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। यह पर्यावरण कानूनों के सख्त कार्यान्वयन को सुनिश्चित करता है, पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रक्रिया की विश्वसनीयता को बनाए रखता है, और विकास परियोजनाओं के कारण होने वाले संभावित पर्यावरणीय नुकसान को कम करने में मदद करता है। साथ ही केंद्र सरकार की पर्यावरण जैसे गंभीर मुद्दे पर लापरवाही या आम लोगों से धोखेबाजों को भी उजागर करता हैं ।
कांग्रेस के प्रवक्ता और पूर्व वन तथा परीवरण मंत्री जयराम रमेश शने इस फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “सतत विकास के सिद्धांतों और प्रथाओं की पुष्टि करते हुए एक ऐतिहासिक फैसले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 16 मई, 2025 को मोदी सरकार के उन उपायों को खारिज कर दिया, जो पूर्वव्यापी पर्यावरणीय मंजूरी देने में सक्षम थे।
इसने ऐसी मंजूरी को अतार्किक और अवैध घोषित किया।”उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि मोदी सरकार द्वारा जारी 2017 की अधिसूचना का एकमात्र उद्देश्य उल्लंघनकर्ताओं को बचाना था, जिन्होंने जानबूझकर पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत पूर्व पर्यावरणीय मंजूरी की अनिवार्य आवश्यकता हासिल नहीं की।