बदलते पर्यावरण में हमबदलते पर्यावरण में हम

अनुपमा तिवारी

हम जो अभी वरिष्ठ नागरिक होने जा रहे हैं अपने बचपन ( लगभग 50 वर्ष पूर्व के समय ) को देखें तो उस समय का पर्यावरण ( मौसम की आबोहवा ) आज से बहुत अलग थी। इसके निरंतर बदलने का प्रभाव हम अपने जीवन और आस – पास के जीवों पर हर दिन बदलते देख रहे हैं।

वर्तमान में भारी मात्रा में खनन के चलते जंगलों का तेजी से सफाया किया जा रहा है। जिससे आदिवासियों का जीवन भी संकट में पड़ गया है। यह उनके जीवन के बचने का ही नहीं बल्कि हम सबके जीवन को खतरे में जाने का विषय भी है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार विकास गतिविधियों के कारण पिछले 10 वर्षों में देश में लगभग 1,734 वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्र नष्ट हो गया है. वन्‍य विनाश के मामले में ब्राजील के बाद दूसरे नंबर पर भारत का नाम आता है। भारत में शिक्षण संस्थाओं में प्राकृतिक स्थलों, जंगलों का विनाश निरंतर जारी है। जंगलों पर अब औद्योगिक घरानों की नजर है और जंगलों को इन घरानों को सौंप देने में सरकारों का बड़ा हाथ है। पर्यावरण का मुद्दा अब जीवन का नहीं बल्कि राजनीतिक मुद्दा बनता जा रहा है।  

अब शहरों में पेड़ हमें पार्क, बड़ी सोसाइटी के लॉन या सार्वजनिक जगहों पर मिलेंगे। पिछले कुछ वर्षों में  शहर में सुंदरता के नाम पर फुटपाथ पक्के किए जा रहे हैं, नालियों को पाटा जा रहा है। अपने घरों में लोग गेट तक फर्श पक्का करवा रहे हैं जिससे घर में मिट्टी नहीं आए, पेड़ों से पत्ते नहीं गिरें। शहरी संस्कृति में पेड़ों से गिरते पत्ते अब गंदगी का हिस्सा हैं। जबकि इन्हीं पेड़ों की हवा लेने और प्रकृति का आनंद लेने लोग साप्ताहिक अवकाश के दिनों में शहरी लोग जंगलों की तरफ जा रहे हैं। पेड़ों की तेजी से कटाई और शहरों में स्थान की अनुपलब्धता ने कई जीवों के जीवन को संकट में डाल दिया है।

हमने अपने बचपन में बहुत सारे गिद्ध और चील देखे जो कि अब लगभग नहीं के बराबर दिखाई देते हैं। धीरे – धीरे अब ये दुर्लभ पक्षी होते जा रहे हैं। हम सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में पढ़ा करते थे कि चार महीने सर्दी, चार महीने गर्मी और चार महीने बारिश होती है। बारिश चार महीने न भी होती हो तो भी बारिश अपने मौसम में खूब होती थी और कभी – कभी तो इतनी मूसलाधार होती थी कि सैकड़ों की तादाद में तोते पेड़ों और बिजली के तारों पर से गिरकर मर जाते थे। अब तोते, गौरैया और कौए बहुत कम दिखाई देते हैं। अलबत्ता कबूतरों को ज्वार, बाजरा डालकर हमने उनकी संख्या में खूब इजाफ़ा किया है।

बारिश के दिनों में ही खूब सारी बीरबहूटी जिसे हम रामजी की घोड़ी कहते थे। वह सुंदर मखमल के लाल कपड़े से बनी लगती थी, निकलती थीं। गिजाई निकलती, केंचुए निकलते, पानी की टंकियों और पोखरों में मेंढक टर्राते और उनकी अंडों की माला सी – बनी दिखाई देतीं। अब बीरबहूटी, गिजाई, केंचुए, मेंढक गायब होते जा रहे हैं। हमारे स्कूली बच्चे अब उन्हें टेलीविजन और मोबाइल में देख सकते हैं।

घर में जहाँ गायों और बकरियों को पालना हमारे परिवारों के पालन पोषण में सहायक था अब धीरे – धीरे शहरीकरण के चलते कम होता जा रहा है। शहरों में गाय, भैंस पालना और उनके गोबर को गंदगी मानकर इनके पालन पर प्रतिबंध को ले कर शहरों में नगर निगम और पालिकाओं द्वारा कड़े नियम बनाए हैं। जिससे बहुत से पालकों ने भैंसें गाँवों में बेच दी हैं और गायों को खुला लावारिस छोड़ दिया है। ये गायें अब कूड़े में मुँह डालने, प्लास्टिक चबाने के लिए मजबूर हैं। सूखे गौवंश, हड्डियाँ निकली गायें हमारे समाज की दरिद्रता और असंवेदनशीलता की ओर भी इशारा करते हैं।

बढ़ते शहरीकरण, औद्योगीकरण के चलते कूड़े की संख्या बढ़ती जा रही है। आज भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम देशों के सामने कूड़े का निस्तारण एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। हालांकि बहुत छोटे स्तर पर उसे परिष्कृत करके पुनः काम में लेने की कवायद छोटे स्तरों पर प्रयास शुरू किए गए हैं लेकिन वे नाकाफ़ी है। ऐसे में कई बार एक सरल उपाय यह भी दिखाई दिया कि या तो कूड़े के बड़े – बड़े ढेरों को आग के हवाले कर दिया जाए या नदियों और समुद्र में डाल दिया जाए। कई नदियों में सीवेज से कार्बनिक पदार्थों के अपघटन के कारण ऑक्सीजन की कमी से कई जलीय प्रजातियां नष्ट हो गईं।

अत्यधिक कार्बनिक पदार्थों और पोषक तत्वों के कारण शैवाल का तेजी से विकास हुआ है ऐसे में पानी ऑक्सीजन की कमी से दुर्गंधयुक्त हो गया। कई प्रकार के कीटनाशक ताजे पानी को दूषित करते हैं और मछलियों व अन्य जलीय जीवों को नुकसान पहुँचाते हैं। पारिस्थितिकी तंत्र के विघटन से पारिस्थितिक असंतुलन, प्रजातियों का विलुप्त होना और खाद्य श्रृंखलाओं में व्यवधान हुआ है। नदियों का पानी जहाँ हमारे पीने और सिंचाई का मुख्य साधन था वह जब कूड़े से दूषित हो गया और पीने लायक नहीं रहा। बहुत से देश समुद्र में हजारों टन कूड़ा प्रतिदिन बहाते हैं जिससे जलीय जंतुओं का जीवन खतरे में पड़ गया है और पर्यावरण असंतुलन की स्थिति बन गई है। आज कितने की जीवों की प्रजाति विलुप्त प्राय: है।

कूड़े को जब जलाया जाता है तब उसमें अनेक प्रकार की कृत्रिम रूप से निर्मित सामग्री भी होती है जिससे कई प्रकार की विषैली गैसें निकलती हैं जो कि जीवों और पर्यावरण प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं।

जंगल, पहाड़, नदियां, जीव – जन्तु और हम सब एकदूसरे के पर्याय हैं। इनमें से किसी का भी यदि सीमा से अधिक दोहन होगा तो हम सबका जीवन भी खतरे में पड़ जाएगा। पर्यावरण एक दूसरे पर निर्भरता का चक्र है जिसकी एक भी कड़ी टूटती है तो पर्यावरण का संतुलन गड़बड़ा जाता है।    

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