पंकज चतुर्वेदी
अब तो बरसात बंद हो गई है लेकिन उत्तराखंड के पहाड़ों का रूठना बंद नहीं हो रहा । एक तरफ प्रधानमंत्री का “10 सूत्रीय डिजास्टर रिस्क रिडक्शन” अर्थात आपदा में न्यूनतम जोखिम कार्यक्रम है तो दूसरी तरफ दुनिया के सबसे युवा और बढ़ते पहाड़ हिमालय की गोद में बसे प्रदेशों में मूलभूत संरचना का निर्माण । उत्तराखंड राज्य की आबादी मात्र सवा करोड़ है लेकिन यहाँ तीर्थ और पर्यटन के लिए आने वालों की संख्या सालाना दस गुना है। फिर यह चीन जैसे धूर्त शत्रु देश से लगी सीमा का प्रांत है । ऐसे में बेहतर सड़क और यातायात तंत्र अनिवार्य है लेकिन जब ऐसे विकास के कारण प्रकृति पर ही संकट खड़ा हो जाए तो ऐसे विकास के प्रतिमान पर पुनर्विचार तो करना ही होगा ।
यह सरकारी रिकार्ड में चेतावनी के रूप में दर्ज है कि कमैडा – हाइलांग के बीच 20 भूस्खलन क्षेत्र और 11 भू-धँसाव बिन्दु बेहद संवेदनशील है। इसके बावजूद यहाँ सड़क बनाने को बीते दो महीनों में पहाड़ तोड़ने को सैकड़ों विस्फोट किए गए । अभी 12 अक्टूबर को ही हेलंग-मारवाड़ी बाईपास निर्माण साईट, सेलंग गांव के ठीक नीचे भारी मात्रा में भूस्खलन हुआ जिमसें कार्य कर रही केसीसी कंपनी की एक मशीन दब गई और वहां काम कर रहे मजदूर बाल-बाल बचे। , भगवान नृसिंह की भूमि जोशीमठ को बाईपास कर हेलंग-मारवाड़ी ऑल वैदर बाईपास के लिए हो रहे धमाके पहले से ही कमजोर हो चुकी जोशीमठ की धरती के लिए तबाही के कदम हैं । उधर नैनीताल में बादलों के विद होने के बाद धोपप निकली तो खुपई इलाके में दरारें बढ़ने लगइन। वैसे यहाँ बीते एक दशक से धरती खिसक रही है लेकिन इस बार बरसात के बाद तेजी से भूस्खलन ने लोगों को चिंता में डाल दिया है । इस बात को सरकार और समाज दोनों को गंभीरता से लेना होगा कि जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक और तीखा असर उत्तराखंड के हिमालय पर्वत पर है और इसी के चलते यह राज्य विकट चुनौतियों का सामना कर रहा है । संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र, अप्रत्याशित मौसम और बादल फटना , भूस्खलन, अचानक बाढ़ औरग्लेशियर लैक आउटबर्स्ट (जीएलओएफ) की बढ़ती घटनाएं इस राज्य को अत्यधिक असुरक्षित बना रही है। बाढ़, भूस्खलन, अतिवृष्टि व वनाग्नि जैसी प्राकृतिक आपदाओं से राज्य को हर साल जन-धन की काफी हानि हो रही है । हर साल राज्य के बजट का बड़ा हिस्सा आपदाओं से नष्ट हुई संरचनाओं को दुरुस्त करने में ही व्यर्थ जाता है
राज्य में जुलाई, अगस्त और सितंबर में मानसून के कारण हुए नुकसान को लेकर एसडीसी फाउंडेशन ने उत्तराखंड डिजास्टर एंड एक्सीडेंट एनालिसिस इनिशिएटिव (उदय) रिपोर्ट जारी की है। इसमें बताया गया है कि राज्य में हर साल नए भूस्खलन जोन यानी लैंडस्लाइड जोन विकसित हो रहे हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के डाटा के अनुसार 1988 से 2023 के बीच उत्तराखंड में भूस्खलन की 12,319 घटनाएं हुईं। सन 2018 में प्रदेश में भूस्खलन की 216 घटनाएं हुई थीं जबकि 2023 में यह संख्या पांच गुना बढ़कर 1100 पहुंच गई। 2022 की तुलना में भी 2023 में करीब साढ़े चार गुना की वृद्धि भूस्खलन की घटनाओं में देखी गई है। इस साल अगस्त -24 तक बरसात के दौरान भूस्खलन की 2946 घटनाएं दर्ज की गई । ऐसा भी नहीं कि इस बार बरसात अधिक हुई हो ।मानसूनी बारिश सामान्य कोटे (1060 मिमी) से महज 2% ही ज्यादा हुई , जबकि भूस्खलन की घटनाएं पिछले साल से करीब दोगुनी हैं। अगस्त – 2024 तक भूस्खलन के चलते 67 लोगों की मौत हुई, जो कि बीते तीन साल में सर्वाधिक है।
उत्तराखंड में 40 से अधिक गांव और शहरी कस्बे ऐसे हैं जहां घरों में दरारें आ चुकी हैं या फिर वहां धंसाव का खतरा है। इस साल नैनीताल के निकट सूपी गांव, टिहरी के तिनगढ़, चमोली के कनियाज और भाटगांव नामेतोक गांव में भी धंसाव और भूस्खलन के मामले आ चुके हैं। इस मानसून सीजन में 500 नए भूस्खलन जोन चिन्हित किए गए। उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग और विश्व बैंक ने सन 2018 में एक अध्ययन करवाया था जिसके अनुसार छोटे से उत्त्रनाचल में 6300 से अधिक स्थान भूस्खलन ज़ोन के रूप में चिन्हित किये गये। रिपोर्ट कहती है कि राज्य में चल रही हज़ारों करोड़ की विकास परियोजनाएं पहाड़ों को काट कर या जंगल उजाड़ कर ही बन रही हैं और इसी से भूस्खलन ज़ोन की संख्या में इजाफा हो रहा है।
प्रकृति में जिस पहाड़ के निर्माण में हजारों-हजार साल लगते हैं, हमारा समाज उसे उन निर्माणों की सामग्री जुटाने के नाम पर तोड़ देता है जो कि बमुश्किल सौ साल चलते हैं। विकास के नाम पर राज्य में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों, के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया।
यह बात स्वीकार करना होगा कि पहाड़ के भू वैज्ञानिक सर्वेक्षण किये बगैर बन रही परियोजनाओं के लिए हो रहे धमाकों व तोड़ फोड़ से शांत – धीर गंभीर रहने वाले जीवित हिम- पर्वत नाखुश हैं। जान कर आश्चर्य होगा कि जिस परियोजना के लिए सिल्कियारा सुरंग बनाई जा रही है , उसके पर्यवार्नीय प्रभाव आकलन की अनिवार्यता से बचने के लिए उसे छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़ कर दिखाया गया .
सनद रहे हिमालय पहाड़ ना केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती हैं। यहां पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है। जानना जरूरी है कि हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है जिससे क्रस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरुपण होता है। ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है। जब पहाड़ पर तोड़फोड या धमाके होते हैं, जब उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाउ होती है तो दिल्ली तक भूकंप के खतरे तो बढ़ते ही हैं , यमुना में कम पानी का संकट भी खड़ा होता है। पहले उत्तराखंड में भूस्खलन की तीन चौथाई घटनाएँ बरसात के कारण होती थीं लेकिन अब बरसात के बाद भी यह आपदा नहीं रुक रही । खासकर इस साल लानीन के कारण बरसात का दौर फरवरी तक चलने की संभावना है । ऐसे में देवभूमि, विकास में पर्यावरण संरक्षण, नैसर्गिक विकास और आस्था में सुख को त्याज्य करने की भावना विकसित करने के लिए आमंत्रित भी कर रही है और चेता भी रही हैं।
उम्मीद है सुरंग में फंसे 41 लोग भारतीय सेना की मेहनत और योजना के चलते जल्दी ही सुरक्षित बाहर आ जायेंगे लेकिन इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया है कि हमें अभी देश के “जल-प्राण” कहलाने वाले हिमालय के बारे में सतत अध्ययन और नियमित आकलन की बेहद जरूरत है। यह विचार करने की जरूरत है कि राज्य में आस्था के केन्द्रों को कितना पर्यटन की मौज मस्ती में बदला जाए और यहाँ पर्यटन को किस हद तक व किस शर्त पर बढ़ावा दिया जाए ।