विकास के विस्तारवादी होने से जहर हो रही है हवाविकास के विस्तारवादी होने से जहर हो रही है हवा

पंकज चतुर्वेदी

बीते एक दशक से यह साल अब यही होता  है कि सुप्रीम कोर्ट  आतिशबाजी को ले आकर चेतावनी देता है , आदेश देता है , फिर उन पर क्रियान्वयन होता नहीं और जैसे ही दिल्ली की हवा जहर होती है – “भारत भाग्य विधाता “ लोगों के शहर में कोहराम मच जाता है ।  लगभग शहर-बंदी तक के हालात बन  जाते हैं । लेकिन दिल्ली में काम करने वालों की आधी आब्दि को अपनी गोद में जगह देने वाले और सीमा से बिल्कुल सटे गाजियाबाद तो साल में तीन सौ दिन बीते छह साल से देश के सबसे जहरीली हवा वाले महानगरों में गिना जाता है  लेकिन न यहाँ किसी को इसकी परवाह रहती है और न ही चिंता ।  सुप्रीम कोर्ट ने 18 नवंबर को कहा कि क्या दिल्ली में पढ़ने वाले कक्ष दस और बाढ़ के बच्चों के फेफड़े  अलग किस्म के होते हैं , जो उनके स्कूल बंद नहीं किए गये?  काश न्यायमूर्ति यह भी सोचते कि क्या 500 ए क्यू आई पार कर चुके बहादुरगढ़ और सारे साल इतने ही जहरीले  गाजियाबाद के लोगों  के फेफड़े  क्या किसी दीगर धातु के बने हैं? हालांकि गाजियाबाद का सरकारी अस्पताल  बानगी है कि यहाँ खांसी , स्वास के बीमारी के रोगी किस गति से बढ़े हैं । यह वायु प्रदूषण का ही असर है कि इस शहर में समय पूर्व  प्रसव, दमे के मरीज बहुत टेजिन से बढ़े हैं ।

वैसे जब तक दिल्ली का सिंहासन हिलता नहीं तब तक कार्यपालिका-न्याय पालिका किसी को भी लोगों के सांस में घुल रहे जहर  परवाह होती नहीं हैं । इसी साल मार्च-24 में  सेंटर फॉर एनर्जी एण्ड क्लीन एयर (सी आर ई ए ) की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें फरवरी महीने में मेघालय राज्य के असम की सीमा से लगे छोटे से कस्बे बैरनहात को देश  का सबसे अधिक दूषित नगर बताया था । पी एम 2.5 की आकलन के मुताबिक दूसरा सर्वाधिक प्रदूषित नगर बिहार का अररिया था । उसके बाद यूपी के हापुड़ और फिर राजस्था के हनुमानगढ़ का नाम था । शायद ही इस रिपोर्ट के बारे में कहीं चर्चा हुई और न ही इन नगरों को तत्काल जहरीली हवा से मुक्त  करने पर कोई कार्यवाही हुई । ऐसी ही बेपरवाही दीपावली के बाद लगातार बदतर हो रहे हालत के प्रति भी है । देश के बड़े शहरों को तुलना में छोटे शहरों में स्थिति कहीं ज्यादा खराब है। ‘बेहद खराब’  गुणवत्ता की हवा वाले शहरों की संख्या में 80 फीसदी का उछाल आया है ।  राजस्थान में हनुमानगढ़, चुरू, बीकानेर, श्रीगंगानगर जैसे पाकिस्तान से लगे रेगीस्तानी शहर हों  या फिर कभी देश का सबसे सुंदर कहे जाने वाला चंडीगढ़, भोपाल के पास  औधयोगिक  नगर मंडीदीप, या फिर हिमाचल का बद्दी और दिल्ली का पड़ोसी बहादुरगढ़ और सोनीपत  आदि शहरों में वायु में जहरीले पदार्थ दिल्ली से अधिक हैं

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित  20 महानगरों में से 14 भारत के हैं और उनमें दिल्ली शीर्ष पर है।  अगर विभिन्न राज्य की राजधानियों को छोड़ देन और अगले पायदानों के शरह की बात करें तो व पूरे साल  धूल, वाहनों के धुएं और के प्रति बेपरवाही से उपज रही गैसों के कारण  साँसों पर पहरा रहता है । यदि गंभीरता से इस बात का आकलन करें तो स्पष्ट होता है कि जिन शहरों में पलायन व रोजगार के लिए पलायन कर आने वालों की संख्या बढ़ी व इसके चलते उसका अनियेाजित विकास हुआ, वहां के हवा-पानी में ज्यादा जहर पाया जा रहा है।

ओडिसा में विशाखप्पटनम से बस्तर जाने वाली सड़क पर छोटा सा शहर है –कोरापुट – चारों तरफ से पहड़ों से घिरा और ढेर सारी नदी- तालाब। सड़क के दोनों तरफ बस गए शहर से थोड़ा बाहर निकलें तो देखेंगे कि घाटी वाले रास्ते के दोनों तरफ जिन गहराइयों में कभी हरियाली होती थी, कूड़ा , खासकर प्लास्टिक भरी पड़ी है । शाम को जब इस कूड़े  से बदबू उठती है  वहाँ रहने वाले परेशान रहते हैं, पूरे दिन शहर के बीकह से संकरी सड़क से ट्रक निकलते हैं जिसने यहाँ हर घर में सांस की बीमारी दे दी है । बुंदेलखंड के छतरपुर शहर को कभी वेनिस माना जाता था, दोनों तरफ तालाब और बीच  में सड़क व बस्ती । अब जल निधियों पर कब्जे हुए, जाम कर निर्माण कार्य सारे साल चलते हैं – सड़कें चौड़ी हो रही हैं  और सारे साल धूल की एक परत वायुमंडल के नीचले अपरिवेश मेंक हहाई रहती है जिसे और अधिक जहरीला बना देता  है , बढ़ते वाहनों का धुआँ । यह महज दो शहरों के नाम नहीं हैं, बल्कि गोबर –पट्टी कहलाने वाले हिन्दी भाषी राज्यों के हर शहर-कस्बे की हालत हैं ।

असल में शहरीकरण के कारण पर्यावरण को हो रहा नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृति पूरे देश में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़क बनी, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया। यह दुखद है कि आज विकास का अर्थ विस्तार हो गया है। विस्तार- शहर के आकार का, सड़क का, भवन का आदि-आदि। लेकिन बारिकी से देखें तो यह विस्तार या विकास प्राकृतिक संरचनाओं जैसे कि धरती, नदी या तालाब, पहाड़ और पेड़, जीव-जंतु आदि के नैसर्गिक स्थान को घटा कर किया जाता है। नदी के पाट को घटा कर बने रिवर फ्रंट हों या तालाब को मिट्टी से भर कर बनाई गई कालोनियां, तात्कालिक रूप से तो सुख देती है। लेकिन प्रकृति के विपरीत जाना इंसान के लिए संभव नहीं है और उसके दुष्परिणाम  कुछ ही दिनों में  सामने आ जाते हैं। पीने के जल का संकट, बरसात में जलभराव, आबादी और यातायात बढ़ने से उपजने वाले प्राण वायु का जहरीला होना आदि।

देश  के अधिकांश  उभरते शहर अब सड़कों के दोनेां ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। ना तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, ना ही सुरक्षा, ना ही बिजली-पानी की न्यूनतम मांग। असल में देश में बढ़े काले धन को जब बैंक या घर में रखना जटिल होने लगा तो जमीन में निवेश  के अंधे कुंए का सहारा लिया जाने लगा। इससे खेत की कीमतें बढ़ीं, खेती की लागत भी बढ़ी और किसानी लाभ का काम नहीं रहा गया। पारंपरिक शिल्प  और रोजगार की त्यागने वालों का सहारा शहर बने और उससे वहां का अनियोजित व बगैर दूरगामी सोच के विस्तार का आत्मघाती कदम उभरा।

छोटे शहरों में अकेले वायु प्रदूषण ही नहीं , जल- प्रदूषण , ध्वनि प्रदूषण के प्रति बह लापरवाही है तभी दूरस्थ अंचलों तक छोटे से अस्पताल और यहाँ तक कि झोला-डॉक्टर भी हर समय  व्यस्त रहते हैं ।  बढ़ता  प्रदूषण  लोगों के जीवन के लिए तो खतरनाक है ही , यह उनकी मेहनत  की कमाई में भी छेद कर रहा है और फिर खासकर सांस की बीमारी के बाद किसी भी इंसान के काम करने की क्षमता  पर होती ही है ।

आखिर क्या करें

1. अनियोजित शहर पर कड़ाई से पाबंदी हो

2. गांवों से पलायन को नियंत्रित किया जाए । शिक्षा और स्वास्थ्य के बेहतर अवसर , स्थानीय उत्पाद पर  आधारित छोटे उधयोग, अपनी कृषि उपज बेचने के लिए शहर की मंडी जाने की अनिवार्यता – कुचयः ऐसे  कार्य हैं जिनसे लोगों को गाँव में सहज जीवन दिया जा सकता है और गाँव वालों को गैरजरूरी  वहाँ खरीदने से बचाया जा सकता है ।

3. बेहतर अर्थ व्यवस्था के लोभ में अधिक से अधिक वाहन बेचने और  बेशुमार ईंधन बेचने के लोभ से सरकारों  को बचना होगा । छोटे शहरों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था  को दुरुस्त करना, कुछ सड़कों को वाहनों के लिए निरुद्ध करना जैसे उपाय जरूरी हैं ।

4. छोटे शहरों  के सबसे बड़ी समस्या निरंतर निर्माण कार्य और सड़कों पर धूल है । इसके लिए निर्माण कार्य और निर्माण सामग्री के परिवहन के कड़े मानक , सड़कों की धूल हटाने के लिए पानी छिड़कने और अधिक हरियाली  के प्रयास करने होंगे ।

5. सर्वाधिक सटीक निदान= शहरों की तरफ पलायन रोकने के आर्थिक -सामाजिक और मूलभू त  सुविधाओं  संबंधी कारक को चिन्हित कर गांवों को स्मार्ट और सम्पन्न बनाना ।