रोहित कौशिक
दिल्ली-एनसीआर में दीपावली से पहले वायु की गुणवत्ता खराब होने के कारण एक बार फिर प्रदूषण का खतरा मंडरा रहा है। हर साल अक्तूबर-नवम्बर में पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा पराली जलाने के कारण भी प्रदूषण बढ़ जाता है। इस साल भी यही हाल है और विशेषज्ञों ने अगले कुछ दिनों में हवा में विषाक्तता बढ़ने का अनुमान लगाया है। इस प्रदूषण के लिए किसानों द्वारा पराली जलाने को एक बड़ा कारण माना जाता है लेकिन वास्तविकता यह है कि पराली जलाना इस समस्या का एक कारण है। कुछ लोग और बुद्धिजीवी किसानों द्वारा पराली जलाने की प्रक्रिया को ऐसे प्रचारित करते हैं जैसे इस प्रदूषण का केवल यही एक कारण है। केवल पराली जलाने की प्रक्रिया को ही इस प्रदूषण के लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। इसके साथ ऐसे अनेक कारण है जो इन दिनों प्रदूषण बढ़ाकर हवा की गुणवत्ता खराब करते हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने पराली जलाने के मुद्दे पर पंजाब और हरियाणा की सरकारों को फटकार लगाई है। पराली न जलाने को लेकर बड़ी-बड़ी बातें तो की जाती हैं लेकिन किसानों के सामने इस समस्या को कोई व्यावहारिक समाधान भी पेश नहीं किया जाता है। दूसरी तरफ इस मामले में किसानों की लापरवाही प्रदूषण की समस्या को बढ़ा देती है। इस मामले में किसानों को ही दोष क्यों दिया जाए, शहरी लोग भी अपनी जिम्मेदारी कहां समझते हैं। करवाचौथ पर कई शहरों में जिस तरह से पटाखे छोड़े गए, वह यह दर्शाता है कि पर्यावरण और प्रदूषण जैसे मुद्दों पर हम कितने लापरवाह हैं। दीपावली आने वाली है। दीपावली पर भी हम अपनी लापरवाही और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार का परिचय न दें, यह कैसे हो सकता है। कुल मिलाकार आने वाला समय प्रदूषण के लिहाज से दिल्ली-एनसीआर और देश के कई शहरों के लिए अच्छा नहीं है।
दरअसल वायु प्रदूषण बढ़ने से सांस के रोगियों की समस्या बढ़ जाती है और स्वस्थ व्यक्ति को भी सांस सम्बन्धी बीमारियां होने की संभावना बढ़ जाती है। दरअसल वायु प्रदूषण बढ़ने पर सरकारें जरूर सक्रिय होती हैं लेकिन जैसे ही प्रदूषण कम होता है, सरकारें पुनः सो जाती हैं। जबकि वायु प्रदूषण कम करने वाले उपायों पर पूरे साल सक्रियता के साथ काम होते रहना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि कोई भी तकनीक प्रदूषण को कम करने में सहायता तो कर सकती है लेकिन इसे पूरी तरह से खत्म नहीं कर सकती। कई बार मौसम में परिवर्तन भी इस प्रदूषण के लिए जिम्मेदार होता है। रही-सही कसर हमारी नासमझी और मानवीय गतिविधियां पूरी कर देती हैं। यही कारण है कि हर साल अक्टूबर-नवम्बर में होने वाले इस प्रदूषण कम करने के लिए नीतियां तो बनती हैं लेकिन उनका सही ढंग से क्रियान्वयन न होने के कारण नतीजा ढाक के तीन पात रहता है। सरकारी नीतियों के सही ढंग से क्रियान्वयन के साथ जब तक जनता पूर्ण रूप से जागरूक नहीं होगी, वायु प्रदूषण को पूरी तरह से कम नहीं किया जा सकता।
दरअसल धूल, धुएं और कुहासे से बना स्मॉग हमारे लिए कई समस्याएं पैदा करता है। जब ईंधन जलता है, वायुमंडलीय प्रदूषण या गैंसे हवा में मौजूद सूरज की रोशनी और वातावरण में इसकी गर्मी के साथ प्रतिक्रिया करती हैं, जिससे स्मॉग बनता है। इस मौसम में हर साल इस स्मॉग के कारण प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ जाता है। निमार्ण कार्य भी इस प्रदूषण के लिए जिम्मेदार होते हैं। इसके साथ ही वाहनों का प्रदूषण भी इस स्मॉग को बढ़ाता है। गौरतलब है कि काफी वायु प्रदूषण वाहनों के माध्यम से होता है। वाहनों से निकलने वाले धुएं में कार्बनमोनोऑक्साइड ,नाइट्रोजन के ऑक्साइड ,हाडड्रोकार्बन तथा सस्पेन्डेड परटिकुलेट मैटर जैसे खतरनाक तत्व एवं गैसे होती हैं जो स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक हैं। कार्बनमोनोऑक्साइड जब सांस के माध्यम से शरीर के अन्दर पहुंचता है तो वहां हीमोग्लोबिन के साथ मिलकर कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन नामक तत्व बनाता है। इस तत्व के कारण शरीर में आक्सीजन का परिवहन सुचारू रूप से नहीं हो पाता है। नाइट्रोजनमोनोऑक्साइड एवं नाइट्रोजनडाइऑक्साइड भी कम खतरनाक नहीं हैं। नाइट्रोजनमानोऑक्साइड ,कार्बनमोनोऑक्साइड की तरह ही हीमोग्लोबिन के साथ मिलकर शरीर में आक्सीजन की मात्रा घटाता है। इसी तरह नाइट्रोजनडाइऑक्साइड फेफडों के लिए बहुत ही खतरनाक है। इसकी अधिकता से दमा और ब्रोकाइटिस जैसे रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। वातावरण में हाइड्रोकार्बन की अधिकता कैंसर जैसे रोगों के लिए जिम्मेदार है। वाहनों से निकलने वाला इथाईलीन जैसा हाडड्रोकार्बन थोडी मात्रा में भी पौधो के लिए हानिकारक है। सस्पेन्डेड परटिकुलेट मैटर बहुत छोटे-छोटे कणों के रूप में विभिन्न स्वास्थ्यगत समस्याएं पैदा करते हैं। ऐसे तत्व हमारे फेफडों को नुकसान पहुंचाकर सांस सग्बन्धी रोग उत्पन्न करते हैं।
वास्तविकता यह है कि आज पर्यावरण के अनुकूल तकनीक के बारे में सोचने की फुरसत किसी को नहीं है। पुराने जमाने में पर्यावरण के हर अवयव को भगवान का दर्जा दिया जाता था। इसीलिए हम पर्यावरण के हर अवयव की इज्जत करना जानते थे। नए जमाने में पर्यावरण के अवयव वस्तु के तौर पर देखे जाने लगे और हम इन्हें मात्र भोग की वस्तु मानने लगे। उदारीकरण की आंधी ने तो हमारे समस्त ताने-बाने को ही नष्ट कर दिया। इस प्रक्रिया ने पर्यावरण के अनुकूल समझ विकसित करने में बाधा पहुंचाई। यह समझ विकसित करने के लिए एक बार फिर हमें नए सिरे से सोचना होगा। हमें यह मानना होगा कि प्रदूषण की यह समस्या किसी एक शहर ,राज्य या देश के सुधरने से हल होने वाली नहीं है। पर्यावरण की कोई ऐसी परिधि नहीं होती है कि एक जगह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन या प्रदूषण होने से उसका प्रभाव दूसरी जगह न पड़े। इसीलिए इस समय सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण के प्रति चिन्ता देखी जा रही है। सवाल यह है कि क्या खोखले आदर्शवाद से वायु प्रदूषण का मुद्दा हल हो सकता है ? दरअसल जब हम प्रकृति का सम्मान नहीं करते हैं तो वह प्रत्यक्ष रूप से तो हमें हानि पहुंचाती ही है, परोक्ष रूप से भी हमारे सामने कई समस्याएं खड़ी करती है। दरअसल हर साल अक्टूबर-नवम्बर होने वाले इस वायु प्रदूषण के लिए सरकारी नीतियां अपनी जगह जिम्मेदार हैं लेकिन इस सम्बन्ध में जब तक जनता जागरूक नहीं होगी, तब तक कोई सार्थक और ठोस हल नहीं निकल पाएगा। अब समय आ गया है कि हम हवा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए गम्भीरता के साथ काम करें।