रोहित कौशिक
दिल्ली में एक बार फिर युमना नदी में जहरीले झाग की सफेद चादर देखी गई है। हर साल अक्टूबर-नवम्बर में यमुदा नदी में इस तरह का झाग दिखाई देता है। हालांकि इस झाग को दूर करने की कोशिश जा रही हैं लेकिन सवाल यह है कि हर साल यमुना में यह झाग क्यों पैदा हो जाता है ? क्यों पहले से ही ऐसी तैयारी नहीं की जाती कि यमुना यह झाग पैदा न हो सके ? झाग के कारण चिंता की बात इसलिए भी है क्योंकि कुछ ही दिनों बाद छठ का त्योहार आने वाला है। छठ से पहले हर साल दिल्ली में इस तरह की गंदगी देखी जाती है। फिर क्या कारण है दिल्ली सरकार इस संबंध में कोई गंभीर प्रयास नहीं करती। यह झाग काफी जहरीला और खतरनाक होता है। दरअसल दिल्ली के आस पास काफी संख्या में फैक्टियां हैं। इनसे निकलने वाला रसायन यमुना को प्रदूषित करता है। शहर का गंदा जल भी यमुना को प्रदूषित करता है। यह सही है यमुना दूसरे राज्यों से भी बहती है और दूसरे राज्यों में भी यमुना को प्रदूषण से मुक्त करने के गंभीर प्रयास नहीं होते हैं। लेकिन सिर्फ इस आधार पर दिल्ली सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकती। दिल्ली में यमुना को प्रदूषण से मुक्त बनाने में दिल्ली सरकार क्या वास्तव में गंभीर है ? जाहिर है ऐसे मुद्दों पर राजनीति भी शुरू हो जाती है। एक बार फिर इस मुद्दे पर राजनीति शुरू हो गई है। लेकिन असली सवाल यही है कि करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद भी यमुना को अभी तक प्रदूषण मुक्त क्यों नहीं बनाया जा सका है ?
दरअसल नदियों के किनारे अनेक सभ्यताएं विकसित हुई हैं। नदियां जहां एक ओर हमारी आस्था से जुड़ी हुई हैं वहीं दूसरी ओर हमारी अनेक मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। पुराने जमाने में हमारे गांवों और कस्बों में गृहस्थी की शुरूआत नदियों के माध्यम से ही होती थी। शादी-ब्याह में नदियों का जल घर पर लाया जाता था और इस जल से पूजा पाठ कर नवयुगल के सफल जीवन की कामना की जाती थी। इस तरह समाज में बचपन से ही नदियों को सम्मान देने और साफ-सुथरा रखने की सीख दी जाती थी। यही कारण था कि नदियां हमारी संस्कृति और सभ्यता की पहचान का आधार बनीं। धीरे-धीरे समय बदला और विकास की चकाचौंध में अच्छी परम्पराओं को भी तिलांजलि दे दी गई। विकास के नाम पर हुए औद्योगीकरण ने स्थिति को भयावह बना दिया और नदियां अपने अस्तित्व के लिए जूझने लगीं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्थिति की भयावहता को देखते हुए हमारा ध्यान बड़ी नदियों पर ही केन्द्रित रहा। छोटी नदियों को बचाने के लिए न तो कोई बड़ा आन्दोलन हुआ और न ही सरकार ने छोटी नदियों के लिए कोई ठोस नीति बनाई। यही कारण है कि आज देश की अनेक छोटी नदियां या तो मर चुकी हैं या फिर मरने के कगार पर हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज देश की अनेक छोटी नदियां, नालों में तब्दील हो चुकी हैं। इन नदियों में लगभग 30-35 साल पहले स्वच्छ जल बहता था लेकिन आज इन छोटी नदियों का प्रदूषित जल समाज के लिए अभिशाप बन गया है। इन नदियों के किनारे बसे गांवों में ग्रामीण कैंसर जैसी घातक बीमारियों से जूझ रहे हैं। हालात यह हैं कि नदियों के प्रदूषण के कारण पीने का पानी भी प्रदूषित हो गया है। फलस्वरूप ग्रामीणों को त्वचा और पेट सम्बन्धी बीमारियों ने घेर लिया है। स्थिति इतनी खतरनाक है कि पुरुषों की पौरुषता और महिलाओं की प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो रही है। इन छोटी नदियों के किनारे और आस-पास उगने वाली सब्जियां भी जहरीली हो गई हैं, इसलिए इन सब्जियों से पौष्टिकता गायब है और ये जहर परोस रही हैं। बुरी तरह से प्रदूषित हो चुकी नदियों का असर पशुओं पर पड़ रहा है। यही कारण है कि पशुओं में अनेक स्वास्थ्यगत समस्याएं पैदा हो गई हैं। ऐसी जगहों पर अपने गिरते स्वास्थ्य से परेशान ग्रामीण पालतू पशुओं के स्वास्थ्य को लेकर भी चिन्तित हैं। ग्रामीणों का अपने और अपने पालतू पशुओं के स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च लगातार बढ़ रहा है। केन्द्रीय भू-जल बोर्ड की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कुछ छोटी नदियों के पानी में अत्यधिक मात्रा में कॉपर, क्रोमियम, लोहा, जिंक एवं प्रतिबन्धित कीटनाशक घुले हुए हैं। हालात यह हैं कि कुछ जगहों पर धरती के अन्दर काफी गहराई तक भारी तत्व अधिक मात्रा में पाए गए हैं। प्रदूषण की भयावहता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन नदियों के जल में पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन नहीं है। इसी कारण मछलियों एवं अन्य जलीय जीवों के जीवन पर मंडराता खतरा अन्ततः उनके लिए मौत का सबब बन रहा है। फलस्वरूप इन नदियों में जलीय जीवों के अस्तित्व की कोई सम्भावना दिखाई नहीं देती। कुछ समय पहले ‘डाउन टू अर्थ’ की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि प्रदूषण के मामले में नदियों की हालत बहुत दयनीय है। भारत में नदियों की गुणवत्ता निगरानी करने वाले कई स्टेशन ऐसे हैं जहां नदी जल के नमूनों में लेड, आयरन, निकेल, कैडमियम, आर्सेनिक, क्रोमियम और कॉपर जैसी भारी धातुएं मिली हैं। इसके साथ ही 117 नदियों और सहायक नदियों की गुणवत्ता की निगरानी करने वाले कई स्टेशनों की जांच में जल नमूनों में दो या उससे अधिक जहरीली धातुओं की उपस्थिति है। छोटी नदियों के इस प्रदूषण के लिए मुख्यतः चीनी मिल, पेपर मिल और रासायनिक उद्योगों जिम्मेदार हैं। इन मिलों और उद्योगों का गन्दा जल नदियों में गिरता है। इसके साथ ही अनेक गांवों, कस्बों और कुछ शहरों का गन्दा पानी भी नदियों में गिरकर प्रदूषण बढ़ा रहा है। छोटी नदियों के प्रदूषण को कम करने के लिए अभी तक कोई बड़ा प्रयास नहीं हुआ है। कुछ पर्यावरणविद् और पर्यावरण को प्यार करने वाले लोग जरूर अपने स्तर पर नदियों को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। विडम्बना यह है कि नदियों किनारे बसी आबादी ने भी नदियों को साफ-सुथरा रखने की कोई सुध नहीं ली बल्कि इसे प्रदूषित ही किया। इस प्रदूषण के कारण ही आज हैजा ,पीलिया ,पेचिश और टाइफायड जैसी जल-जनित बीमारियां बढ़ती जा रही हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 80 फीसद स्वास्थ्यगत समस्याएं और एक तिहाई मौतें जल-जनित बीमारियों के कारण ही होती हैं। यह सही है कि नदियों के साथ भारतीय समाज की आस्था जुड़ी हुई है लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि अंध आस्था अनेक नई समस्याओं को जन्म देती है। अगर नदियों के प्रति भारतीय समाज की आस्था सच्ची होती तो न नदियां प्रदूषित हुई होतीं और न ही हमें नदियों की स्वच्छता के लिए सरकारी नीतियों के भरोसे रहना पड़ता। भारतीय समाज ने अपने पाप धोने के लिए नदियों में डुबकी तो लगा ली लेकिन वह नदियों की आत्मा में डुबकी न लगा पाया। यही कारण है कि नदियों के साथ हमारे समाज का रिश्ता स्वार्थ की भेंट चढ़ गया। नदियां हमें विभिन्न तौर-तरीकों से सुख-समृद्धि प्रदान करती रहीं लेकिन हम नदियों को वह आदर नहीं दे पाए जिसकी वे हकदार थीं। भारतीय समाज ने आस्था की आड़ में नदियों पर जो कहर ढ़ाया, वह अन्ततः समाज के लिए ही घातक सिद्ध हुआ। अब समय आ गया है कि हम गंभीरता के साथ नदियों को बचाने के प्रयास करें। इस मुद्दे पर केवल सरकार के भरोसे बैठे रहना उचित नही है। हमें कोशिश करनी होगी कि नदियों को साफ करने की योजना में आम आदमी की सहभागिता भी हो।