देर से हुई चरम बर्फबारी : धरती को राहत नहींदेर से हुई चरम बर्फबारी : धरती को राहत नहीं

बर्फबारी बहुत देर से हुई और यह त्रासद है

नदियों में कम पानी , गेहूं के कमजोर दाने आएंगे तो आटा महंगा होगा, आलू की पैदावार मारी जा रही, चीनी भी कम होगी

पंकज चतुर्वेदी

देर से हुई चरम बर्फबारी परेशान न होइए, शुक्र मनाइए कि गुजरे साल के अंतिम दिनों में पहाड़ों पर थोड़ी-बहुत बर्फबारी हो गई, अन्यथा तो जलवायु परिवर्तन का कहर इस तरह टूटता पड़ता दिख रहा था कि ठंड के दिनों में गर्मी का अहसास ही होता रहता और फसलें लगभग चौपट होते जाने से महंगाई की सुरसा का मुंह और थोड़ा खुल जाता।
लगातार कोई 90 दिन सूखे के बाद हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के पहाड़ों पर 8 दिसंबर के आसपास थोड़ी बर्फबारी हुई, पर फिर, मौसम सामान्य हो गया। हाल यह था कि जब हिमाचल प्रदेश के जनजातीय जिला लाहौल-स्पीति में दिसंबर का पहला हफ्ता भी सूखा बीत गया तो लाहौल घाटी में अटल टनल के उत्तरी पोर्ट के पास होटल कारोबारियों ने कृत्रिम बर्फबारी करवा दी। मीडिया खबरों में बताया गया कि पर्यटन कारोबारी अमित पाल और देवराज की मशीन से बनी कृत्रिम बर्फ पर्यटकों को लुभा रही थी। कृत्रिम बर्फबारी उसी तरह खतरनाक है जिस तरह कृत्रिम वर्षा। 
यह सीधे-सीधे पर्यावरण के साथ दखलंदाजी है। चीन इस प्रकार के प्रयोग हिमालयीन इलाकों में करता रहा है और इस वजह से भारत के सीमावर्ती इलाकों में बर्फबारी न होने के बावजूद अचानक बाढ़ आती रही है। मीडिया खबरों के मुताबिक, असम सरकार ने 2020 में ही इस बारे में शिकायत दर्ज कराई थी। चीन सरकार के पास इस नए साल में 5.5 मिलीयन वर्ग किलोमीटर क्षेत्र तक में कृत्रिम बारिश और बर्फबारी की क्षमता होगी। यह तिब्बत, भारत, बांग्लादेश में किस किस्म का कहर ढा सकती है, इसका अंदाज लगाना भी मुश्किल है।
कम बर्फबारी के कारण अगर तापमान जल्दी ही बढ़ जाता है तो तो देर से होने वाली बर्फबारी और भी अधिक त्रासदी दायक होती है।  इससे जीएलओएफ (हिमनद झील के फटने से होने वाली बाढ़) अचानक बाढ़ आएगी और घरों, बागानों  और मवेशियों को बहा ले जाएगी। गर्मी से यदि ग्लेशियर अधिक पिघले तो आने वाले दिनों में पहाड़ी राज्यों में स्थापित सैंकड़ों मेगावाट की जल विद्युत परियोजनाओं पर भी संकट आ सकता है। हालांकि यह भी कड़वा सच है कि पहाड़ों के मिजाज को बिगाड़ने में इन जल विद्युत परियोजनाओं की भूमिका कम संदिग्ध नहीं हैं।
 पहाड़ों पर बर्फ का असर पंजाब की नदियों पर गहराई से होता है। लंबे समय तक सूखे के कारण झेलम और अन्य नदियों का जल स्तर अभी से नकारात्मक सीमा में है। उत्तराखंड के पौड़ी जिले में भले ही तगड़ा जाड़ा हो लेकिन बीते चार महीनों से बर्फबारी और बारिश न होने के कारण यहां जमीन की नमी समाप्त हो गई । बहुत सारा नुकसान होने के बाद बर्फ गिरी । यदि मौसम गीला न होता तो यहां जंगलों में आग का खतरा बढ़ जाता । वैसे, इस किस्म का खतरा समूचे राज्य में है।
देर से और अचानक अफरात बारिश और बर्फबारी का असर हिमालयीन ग्लेशियरों पर भी है। यहां पहले पर्याप्त बर्फबारी नहीं मिलने से वे तेजी से पिघले और उस पर थोड़े से समय में बहुत सी बर्फ गिरी तो इससे भी नुकसान ही हो गया। इससे नदियों और जल स्रोतों का जलस्तर अचानक बढ़ता दिख रहा है लेकिन यह उतनी ही तेजी से घटेगा भी। इससे फरवरी की बाद ही पेयजल और सिंचाई के लिए संकट खड़ा हो सकता है। उत्तराखंड के ऊंचाई वाले पहाड़ों पर बरसात और बर्फ गिरने में देरी से जमीन के सूखने से वहां के वन्य जीवों के लिए बड़ा खतरा पैदा हो गया है। 
हरियाली पर जीने वाले जानवर बस्ती की तरफ आए और उनके पीछे-पीछे तेंदुए- गुलदार  भी पहले की तुलना में अधिक ही इस तरफ आए। अब जब मौसम ने मिजाज बदल तो जंगली जानवर बस्तियों में सुरक्षित ठिकाने तलाशने लगे। घास के मैदान समाप्त होने का असर कस्तूरी मृग पर तो गहरा पड़ा है। हिमाचल में लाहौल स्पीति से लेकर उत्तराखंड के उत्तरकाशी, टिहरी, रुद्रप्रयाग, चमोली, पिथौरागढ़, और बागेश्वर में दुर्लभ हो चुके हिम तेंदुओं का बगैर बर्फ के जीना मुश्किल हो रहा है।
इस बार स्थितियां विषम ही समझिए। मौसम विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, अक्तूबर और नवंबर के दौरान उत्तराखंड में सामान्य से 90 प्रतिशत कम बारिश हुई। राज्य के अधिकांश जिलों में सूखे की स्थिति रही। सिर्फ पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों में थोड़ी राहत मिली। हिमाचल प्रदेश में भी सामान्य से 97 प्रतिशत कम बारिश दर्ज की गई। फिलहाल तो  सभी जगह तगड़ी बर्फ गिर रही है लेकिन देर से हुई बर्फबारी से सेब को खासा नुकसान हो गया। 
हिमाचल प्रदेश में करीब दो महीने से सूखे जैसे हालात से सेब के बगीचे सूखे की चपेट में आ गए हैं। बगीचों में चिलिंग ऑवर्स पूरे होने का संकट है। हिमाचल प्रदेश के बागवानी विश्वविद्यालय, नौणी के क्षेत्रीय अनुसंधान केन्द्र, मशोबरा द्वारा जारी एडवाइजरी के मुताबिक, सेब के पौधों के लिए 7 डिग्री से कम तापमान में 800 से 1,600 घंटे चिलिंग ऑवर्स की जरूरत रहती है। बहुत देर से हुई बर्फबारी से चिलिंग ऑवर्स पूरे नहीं होने से एकसमान या कमजोर फूल उगे और देर से हुई बर्फबारी से वे झड़ भी रहे हैं। इससे सेब उत्पादन प्रभावित हो सकता है।
एक बात समझना होगा कि पहाड़ों पर सही समय पर और निर्धारित अवधि तक नियमित बर्फ न गिरना पूरे साल  देश के लिए संकट बन  सकता है । कम बर्फबारी के कारण तापमान में वृद्धि क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र को भी बाधित कर सकती है, जिससे पौधे और जानवरों के पर्यावास प्रभावित और जैव विविधता का नुकसान हो सकता है। बर्फबारी सूरज की रोशनी (एल्बिडो प्रभाव) को प्रतिबिंबित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि बर्फबारी कम हो  तो उस पर अधिक गर्मी अवशोषित का भार आ जाता है और यह ग्लोबल वार्मिंग का बड़ा कारक है । इसके चलते मौसम के मिजाज में असंतुलन पैदा होता है और परिणामस्वरूप अधिक लू , सूखा और अत्यधिक वर्षा की घटनाएं हो सकती हैं।
देरी से बरसात जैसे जलवायु परिवर्तन का सीधा असर मैदानी इलाकों पर बेहद  गहरा है। समूचे उत्तरी और मध्य भारत में गेहूं, सरसों और चना जैसी रबी की फसलें अक्तूबर से दिसंबर तक बोई जाती हैं। अच्छी पैदावार के लिए इन फसलों को बढ़ने और पकने के समय ठंडे मौसम की जरूरत होती है। बारिश देर से होना रबी की फसलों, खासकर गेहूं के लिए बुरा रहा है। इस वजह से आटा महंगा होने की आशंका अभी से ही हो रही है। असल में, सर्दियों की बारिश केवल पानी की जरूरत पूरा नहीं करती, बल्कि खेतों के लिए खाद का काम भी करती है। 
इससे पौधों को नाइट्रोजन, फास्फोरस और दूसरे पोषक तत्व कुदरती रूप से मिलते हैं। इसका विकल्प सिंचाई नहीं है। रबी की फसल बिगड़ने का असर सारे देश की अर्थ और भोजन व्यवस्था पर पड़ना तय है। बदलते मौसम की तलवार कई तरह से लटक रही है। अक्तूबर-नवंबर के गरम रहने से आलू का अंकुरण कम हुआ है। बहुत-सी जगह आलू के बीज पौधा बनने की जगह गर्मी से गल गए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ने की मिठास नवंबर की गर्मी ने सोख ली। 
गन्ने में सुक्रोज बनने के लिए ठंड जरूरी है लेकिन अभी तक गन्ने में पानी की मात्रा अधिक है इसलिए गुड़ बन ही नहीं पा रहा था। एक महीने देरी से गुड़ बनना शुरू हुआ तो बरसात के कारण उसे रोकना पड़ा । बदलते मौसम ने देश के हर हिस्से की खेती-किसानी पर ग्रहण लगा दिया है। कोढ़ में खाज यह कि किसान खाद-बीज के लिए अलग से परेशान हैं।
ऊंचे पहाड़ों पर खेतों में बर्फ का आवरण आम तौर पर इन्सुलेशन कंबल के तौर पर काम करता है। बर्फ की परत से उनके फसलों की रक्षा होती है और कंद-मूल जैसे उत्पादों की वृद्धि होती है, पाले का प्रकोप नहीं हो पाता। साथ ही, बर्फ से मिट्टी का कटाव भी रुकता है। पूरे हिमालय क्षेत्र में कम बर्फबारी और अनियमित बारिश से क्षेत्र में पानी और कृषि वानिकी सहित प्रतिकूल पारिस्थितिकीय प्रभाव पड़ने की आशंका है।
इन सबकी वजह जलवायु परिवर्तन के वैश्विक असर या फिर  पश्चिमी विक्षोभ के कमजोर होने की बातें कर पल्ला नहीं झाड़ सकते। अत्यधिक पर्यटन, पक्के निर्माण, पहाड़ों पर तोड़फोड़, हरियाली कवच के कम होने, हिमालय के नजदीक बेशुमार वाहन पहुंचने, इनसे निकलने वाले कार्बन और बढ़ते मानवीय दखल से तापमान में बढ़ोतरी के साथ दूषित हो रहे पर्यावरण के कारण कभी चांदी से दमकती चोटियां काली दिखने लगी हैं। 
जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयन पर्यावरण संस्थान, अल्मोड़ा के निदेशक प्रो. सुनील नौटियाल ने अब तक हुए शोधों का हवाला देते हुए बताया कि वर्ष 1985 से 2000 तक ही हिमालय और ग्लेशियरों में बर्फ पिघलने की रफ्तार दो से तीन गुना बढ़ गई। उनका कहना है कि 40 साल में हिमालयी क्षेत्रों में 440 अरब टन बर्फ पिघल चुकी है। हिमालयीन पहाड़ महज मनोरंजन या पर्यटन के लिए नहीं हैं। ये जल देने वाले स्रोत हैं। जल किसी कारखाने में बनाया नहीं जा सकता। फिर जैविक और वानस्पतिक जैव विविधता भी तभी तक है जब तक पहाड़ों पर पर्याप्त बर्फ रहे। हिमालयीन राज्यों के लिए जलवायु परिवर्तन और  वैश्विक तापमान वृद्धि से निबटने को स्थानीय स्तर पर निकटवर्ती और दूरगामी कार्ययोजनाएं बनाने की तुरंत जरूरत है और इनमें स्थानीय लोगों की सहभागिता और पारंपरिक ज्ञान को भी स्थान देना अनिवार्य है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *