भारत में पारंपरिक जल स्रोतों का महत्व अत्यंत प्राचीन और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध है
अजय सहाय
भारत में पारंपरिक जल स्रोतों का महत्व अत्यंत प्राचीन और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध है, जो सदियों से जल संकट के समाधान, वर्षा जल संचयन, भूजल पुनर्भरण और सामुदायिक भागीदारी के आधार स्तंभ रहे हैं। बावड़ी, तालाब, कुएं, नाड़ी, कुंड, जोहड़, हौज, और हावेली जैसे पारंपरिक जल स्रोत भारत के विविध भू-भागों में जल संरक्षण के प्राचीन उदाहरण हैं।
पारंपरिक जल स्रोतों का संरक्षण और पुनरुद्धार जल आत्मनिर्भर भारत 2047 के लक्ष्य को प्राप्त करने में एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, क्योंकि भारत में जल संकट की स्थिति दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है। वर्ष 1951 में भारत में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 5177 घन मीटर थी, जो 2025 तक घटकर 1340 घन मीटर रह जाने का अनुमान है और 2047 तक यह आंकड़ा 1140 घन मीटर तक गिर सकता है, जो जल तनाव (water stress) की स्थिति को दर्शाता है।
भारत में लगभग 24 लाख पंजीकृत जल स्रोत मौजूद हैं, जिनमें से 59.5% तालाब, 15.7% टैंक, 12.1% जलाशय और शेष कुएं व अन्य पारंपरिक जल स्रोत हैं, जिनमें से 97% जल स्रोत ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित हैं। इन पारंपरिक जल स्रोतों की जल संचयन क्षमता का आंकलन करें तो यह देशभर में लगभग 300 से 400 बिलियन क्यूबिक मीटर (BCM) जल का भंडारण कर सकते हैं, जबकि भारत में वर्षा जल का कुल संभावित संचयन 4000 BCM प्रतिवर्ष होता है, जिसमें से वर्तमान में केवल 700 BCM जल ही संरक्षित किया जा पाता है।
यदि पारंपरिक जल स्रोतों का पुनरुद्धार किया जाए तो यह अतिरिक्त 100-150 BCM जल का संरक्षण कर सकते हैं, जिससे सिंचाई, पेयजल और भूजल पुनर्भरण की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, बुंदेलखंड क्षेत्र में पारंपरिक हावेली संरचनाएं लगभग 73 मिलियन लीटर जल का संचयन कर सकती हैं, जो सूखा प्रभावित क्षेत्रों में जल संकट से निपटने के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। राजस्थान के मरुस्थलीय क्षेत्रों में जोहड़, कुंड और तालाब जैसे जल स्रोत हर वर्ष लगभग 25-30 BCM जल का संरक्षण कर सकते हैं, जबकि गुजरात की बावड़ियां जल संचयन के साथ-साथ भूजल पुनर्भरण में सहायक होती हैं।
ओडिशा की चिलिका झील, जो भारत की सबसे बड़ी खारे पानी की झील है, जल संरक्षण के साथ-साथ जैव विविधता और मछली पालन के लिए भी महत्वपूर्ण है। सरकार द्वारा चिलिका विकास प्राधिकरण के माध्यम से इस झील का संरक्षण किया जा रहा है, जिसके कारण यहां मछली उत्पादन में 40% वृद्धि दर्ज की गई है। जल शक्ति मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, जल संरक्षण अभियान “कैच द रेन” के तहत अब तक 1.67 करोड़ जल संरक्षण परियोजनाएं पूरी की जा चुकी हैं, जिनमें से लगभग 30% परियोजनाएं पारंपरिक जल स्रोतों के पुनरुद्धार से संबंधित हैं।
जल संसाधन विभाग ने एक मिलियन से अधिक पुनर्भरण संरचनाओं जैसे चेक डैम, परकोलेशन टैंक, पुनर्भरण कुएं इत्यादि की योजना बनाई है, जिससे भूजल स्तर में वृद्धि हो रही है। नीति आयोग के जल प्रबंधन सूचकांक (Composite Water Management Index) के अनुसार, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश जैसे राज्य पारंपरिक जल स्रोतों के संरक्षण में अग्रणी हैं।
तमिलनाडु सरकार की ‘कुडिमरामथु योजना’ के तहत 16,098 टैंकों और झीलों का पुनरुद्धार किया गया है, जिनसे लगभग 2.1 BCM जल का संचयन प्रतिवर्ष संभव हुआ है। इसी तरह महाराष्ट्र की जलयुक्त शिवार योजना के तहत 94,000 से अधिक जल संरचनाओं का पुनरुद्धार हुआ है, जिससे 25 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि सिंचित हो रही है।
उत्तर प्रदेश में भी 1200 से अधिक हावेलियों का संरक्षण किया गया है, जिससे जल संकट प्रभावित क्षेत्रों में राहत मिली है। जल आत्मनिर्भर भारत 2047 के विजन के तहत सरकार का लक्ष्य है कि देश में जल उपलब्धता को 1140 घन मीटर प्रति व्यक्ति से बढ़ाकर 1700 घन मीटर प्रतिवर्ष किया जाए, जो कि जल पर्याप्तता (water adequacy) की स्थिति है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में पारंपरिक जल स्रोतों का योगदान अत्यंत आवश्यक है।
वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि वर्षा जल संचयन की पारंपरिक तकनीकें भूजल स्तर को औसतन 1.5 से 3 मीटर तक बढ़ा सकती हैं, जिससे सूखा प्रभावित क्षेत्रों में कृषि उत्पादन में 25-30% तक वृद्धि हो सकती है। युवाओं की भागीदारी इस दिशा में एक क्रांतिकारी भूमिका निभा सकती है। 2022 में तमिलनाडु में युवाओं द्वारा 400 से अधिक तालाबों का पुनरुद्धार किया गया, जिससे लगभग 50 लाख लीटर जल संचयन क्षमता बढ़ी।
वहीं राजस्थान में युवाओं ने 150 से अधिक जोहड़ों की सफाई और मरम्मत की, जिससे जल उपलब्धता में उल्लेखनीय सुधार हुआ। जल संरक्षण में डिजिटल तकनीकों जैसे जीआईएस मैपिंग, रिमोट सेंसिंग और ड्रोन सर्वेक्षण का भी उपयोग किया जा रहा है, जिससे जल स्रोतों की निगरानी और प्रबंधन अधिक प्रभावी हो रहा है। जल जीवन मिशन, अटल भूजल योजना और प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना जैसी सरकारी पहलें भी पारंपरिक जल स्रोतों के संरक्षण को प्राथमिकता दे रही हैं।
जल जीवन मिशन के तहत 2024 तक हर घर नल से जल की आपूर्ति सुनिश्चित करने का लक्ष्य है, जिसके लिए जल स्रोतों का संरक्षण आवश्यक है। भारत सरकार ने जल शक्ति मंत्रालय के माध्यम से जल संरक्षण के लिए ₹3 लाख करोड़ का निवेश किया है, जिसमें पारंपरिक जल स्रोतों के पुनरुद्धार के लिए विशेष बजट प्रावधान किया गया है।
नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, यदि पारंपरिक जल स्रोतों का पूर्ण संरक्षण किया जाए तो वर्ष 2047 तक भारत की कुल जल उपलब्धता में 15-20% की वृद्धि संभव है, जिससे जल संकट को दूर किया जा सकता है। अतः जल आत्मनिर्भर भारत 2047 के लक्ष्य को प्राप्त करने में पारंपरिक जल स्रोतों का संरक्षण, पुनरुद्धार और प्रभावी प्रबंधन अत्यंत आवश्यक है।
इसके लिए युवाओं की सक्रिय भागीदारी, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, और सरकारी नीतियों का प्रभावी क्रियान्वयन आवश्यक है। पारंपरिक जल स्रोत न केवल जल संकट को दूर करने में मददगार हैं, बल्कि कृषि उत्पादन, रोजगार सृजन, और पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जल संरक्षण की यह यात्रा हमें हमारी सांस्कृतिक विरासत से जोड़ती है और भविष्य की पीढ़ियों के लिए जल सुरक्षा सुनिश्चित करती है।
इसलिए पारंपरिक जल स्रोतों का संरक्षण आज समय की मांग है और जल आत्मनिर्भर भारत 2047 के सपने को साकार करने का सशक्त माध्यम है।