तिलहनी फसलों पर पाले का प्रभाव और बचावतिलहनी फसलों पर पाले का प्रभाव और बचाव

तिलहनी फसलों पर पाले का प्रभाव और बचाव

डॉ. मौहम्मद अवैस एवं  अंकित कुमार

तिलहनी फसलें भारतीय कृषि में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।  इनमें सरसों, मूंगफली, तिल, सूर्यमुखी और सोयाबीन आदि प्रमुख हैं । भारत में तिलहनों की पैदावार प्रचुर मात्रा में होती है । कुछ वर्षों पूर्व बहुराष्ट्रीय कंपनिओं के अत्यधिक प्रसार के कारण विदेशी तेलों की तरफ लोगों का रुझान ज़्यादा हो गया । सरसों के तेल का प्रयोग काम होने लगा फलस्वरूप किसानों ने तिलहनों की बुवाई कम कर दी । लेकिन विगत वर्षों में आई कोरोना महामारी के उपरांत फिर से देसी तेलों की तरफ जनता की रुचि बढ़ने लगी ।

इस सम्बन्ध में सरसों के तेल के लिए एक कहावत प्रचलित है: “खाओ सरसों, जिओ बरसों”। इस समय भारत विश्व का चौथा सबसे बड़ा तिलहन उत्पादक तथा साथ ही तिलहन उत्पादों का बड़ा निर्यातक देश है। तिलहनों की खेती से जुड़े कई आर्थिक लाभ हैं । जिसमें तिलहनों से खाद्य तेल निकालने के कार्य से लोगों को रोज़गार मिलता है । तिलहन की खल का इस्तेमाल पशुओं के चारे के रूप में किया जाता है । तिलहन की खल का इस्तेमाल कपास, तम्बाकू, चाय, गन्ना जैसी फ़सलों के लिए उर्वरक के रूप में किया जाता है ।

तिलहनी फसलें किसानों की आय की वृद्धि के साथ साथ देश की खाद्य सुरक्षा में सुधार । और तिलहनी फसलों का निर्यात भी भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करता है । साल 2022-23 में भारत ने 10,900 करोड़ रुपये  मूल्य के तिलहन निर्यात किए थे । 

भारत में तिलहन उत्पादन पिछले कुछ सालों से बढ़ रहा है। वर्ष 2020-21 में भारत में तिलहन का उत्पादन 365.65 लाख टन था। वर्ष 2024-25 में तिलहन उत्पादन के लिए भारत सरकार ने रिकॉर्ड 447 लाख टन का लक्ष्य तय किया है।

        भारत में तिलहन फसलों की उत्पादकता में वृद्धि करने और देश को तिलहन फसलों में आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ देश की घरेलू मांग को पूरा करने के लिए 1986 – 1987  में “पीली क्रांति” शुरू हुई थी यह सरसों और अन्य तिलहन फसलों की उत्पादकता में वृद्धि के लिए किए गए प्रयासों की श्रृंखला है।

         इसका मुख्य उद्देश्य सरसों व अन्य तिलहन फसलों (तिल, मूंगफली, सोयाबीन, कुसुम, सूरजमुखी, नाइजर, अलसी, और अरंडी) की उत्पादकता में वृद्धि के लिए नई किस्मों का विकास और उनका प्रसार, किसानों को प्रशिक्षण और सहायता प्रदान करना ताकि वे तिलहन फसलों की खेती में सुधार कर सकें तथा तिलहन फसलों के विपणन के लिए नई तकनीकों का प्रसार करना था।

        तिलहनी फसलों की खेती करने के लिए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जैसे कि बाजार भाव में उतार चढ़ाव, उत्पादन लागत में वृद्धि,  बीज और उर्वरक की कमी, कृषि आदानों का अधिक मूल्य व पर्यावरण का प्रभाव। पर्यावरण प्रभावों को देखें तो तिलहन फसल उत्पादन और जलवायु परिवर्तन के बीच गहरा संबंध है।

         जलवायु परिवर्तन के कारण तिलहन फसलों की उत्पादकता और गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। तापमान में वृद्धि होने पर तिलहन फसलों की वृद्धि और विकास के लिए उपयुक्त तापमान की सीमा कम या अधिक होने  से उत्पादकता कम हो सकती है।

       अनियमित और कम वर्षा से तिलहन फसलों की सिंचाई की आवश्यकता बढ़ जाती है, जिससे उत्पादन लागत बढ़ सकती है। अत्यधिक तापमान, सूखा, और बाढ़ जैसी चरम मौसम की स्थितियों से तिलहन फसलों को नुकसान हो सकता है।

        रबी की फसलों के उत्पादन के लिए पाला बहुत हानिकारक है जो मुख्य रूप से तिलहनी फसलों के उत्पादन व गुणवत्ता पर प्रभाव डालता है। पाला  एक प्रकार से तापमान में गिरावट और मौसम का परिवर्तन है । इसमें वायुमंडल का तापमान 5°C से 0°C या उससे नीचे चला जाता है। और हवा में मौजूद जल वाष्प सीधे हिमकणों में बदलकर जम जाती है। यदि पाले का तिलहनी फसलों पर प्रभावों को देखा जाए। तो अधिक सर्दी के दिनों में फसल की बुआई करने पर फसल के बीज का अंकुरण कम व देरी से होता है। क्योंकि पाले के कारण फसल का बीज सुषुप्त अवस्था में चला जाता है । और अंकुरण को प्रभावित करता है।

        पाले के दौरान वातावरण में अधिक आर्द्रता हो जाती है । साधारण पाले के दौरान वातावरण में अधिक आर्द्रता व कम तापमान होने के कारण फसल की वृद्धि अधिक होती है । परन्तु तापमान में अत्यधिक गिरावट होने पर व बर्फ़ जमने की स्थिति पर फसल की वृद्धि रुक जाती है। पौधे की कोशिकाओं मैं जल का प्रवाह तंत्र रुक जाता है। और वह फसल की कोशिकाओं में जम जाता है। जिससे कोशिकाएँ फट जाती है। जिस कारण पौधों में जल व भोजन का स्थानांतरण रुक जाता है। और पौधों की मृत्यु हो जाती है।

         अत्यधिक पाला या सर्दी पड़ने के कारण तिलहनी फसलों के उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है। क्योंकि अत्यधिक पाला पड़ने के दौरान पौधों की फलियों  में दानों का विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पाता है। जिस कारण दाना छोटा रह जाता है और दाने की चमक भी खराब हो जाती है।   तथा उसमें तेल की गुणवत्ता भी कम हो जाती है। जिसके कारण उत्पादन में बहुत बड़ी कमी देखने को मिलती है। और बाजार में अच्छा मूल्य नहीं मिल पाता है। अतः किसानों को आर्थिक रूप से नुकसान का सामना करना पड़ता है।

          पाले से तिलहनी फसलों का बचाव करने के लिए आवश्यक क़दम उठाने ज़रूरी हैं। तब ही उत्पादन और गुणवत्ता बरक़रार रह सकती है। इसके लिए अत्यधिक सर्दी के दिनों में  फसल को सर्दी से बचाने के लिए  शाम के समय  में हल्की सिंचाई कर दें । जिससे पाले का प्रकोप फसल पर कम होता है। फसल को पाले से बचाने के लिए सूखी घास, लकड़ी व गोबर के उपले का प्रयोग कर आधी रात्री में खेत के चारों तरफ़ धुआं कर दें। जिस कारण तापमान में थोड़ी वृद्धि हो जाती है। और फसल पर पाले का प्रकोप थोड़ा कम हो जाता है।

           फसल को पाले के प्रकोप से बचाने के लिए शाम के समय  0.1% गंधक का उपयोग खेत में कर सकते हैं । जिससे फसल पर पाले का प्रकोप कम हो जाता है। फसल की बुआई के बाद प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत फसल का बीमा करवा लेना चाहिए । ताकि पाले के दौरान फसल का अधिक नुकसान होने पर फसल का किसान को उचित मुआवजा मिल सके और किसान को थोड़ी आर्थिक मजबूती मिल सके।

            इनके अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन के अनुकूल तिलहन फसलों की किस्में विकसित करना। सिंचाई के लिए जल संचयन और प्रबंधन के तरीकों को अपनाना ।   मौसम की भविष्यवाणी के लिए तकनीक का उपयोग करना। और किसानों को इसकी जानकारी देना तथा किसानों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के बारे में जागरूक करना। और उन्हें इसके अनुकूल कृषि पद्धतियों के बारे में प्रशिक्षित करना आदि उपाय हैं। जिससे तिलहनी फसलों को पाले के प्रकोप से बचाया जा सकता है । और तिलहन उत्पादों की गुणवत्ता व उत्पादन में वृद्धि करके खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

कृषि विज्ञान संकाय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)  

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