जल बम के मुहाने  पर बैठा है दक्षिण एशियाजल बम के मुहाने  पर बैठा है दक्षिण एशिया

जब जल पर जंग होगी !

पंकज चतुर्वेदी 

‘खून और आतंकवाद साथ नहीं चल सकता’- पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के विरुद्ध भारतीय नीति ने पानी की पाबंदी से हथियार से अधिक खतरनाक जंग की नई इबारत लिख दी हैं । पाकिस्तान की लगभग 80-90% खेती सिंधु नदी के पानी पर निर्भर है सिंधु जल समझौते के निलंबन के बाद पाकिस्तान के पंजाब और सिंध क्षेत्रों में जल की भारी कमी देखी जा रही है, जिससे फसलों की बुवाई और उत्पादन दोनों प्रभावित हुए हैं।

        पाकिस्तान के दो प्रमुख जलाशयों—तरबेला (सिंधु नदी पर) और मंगला (झेलम नदी पर)—का जल स्तर न्यूनतम के करीब पहुँच गया है, जिससे सिंचाई और पीने के पानी की आपूर्ति बाधित हो गई है। पाकिस्तान के दो मुख्य जलाशय—टर्बेला (सिंधु नदी पर) और मंगला (झेलम नदी पर)—डेड स्टोरेज स्तर पर पहुँच चुके हैं।

        इसका अर्थ है कि इन जलाशयों से अब पानी को गुरुत्वाकर्षण से निकाला नहीं जा सकता, जिससे सिंचाई और पीने के पानी की आपूर्ति बाधित हो गई है। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में खरीफ की फसल की बुवाई 20% तक घट गई है और गेहूं उत्पादन में 9% की गिरावट आई है। पानी की कमी से कृषि क्षेत्र को गहरा झटका लगा है। अब पाकिस्तान को बेहतर मानसून का ही सहारा है । वहाँ की संसद कह चुके हैं कि  यदि  सिंधु समझोता लागू नहीं हुआ तो पाकिस्तान के बड़े हिस्से में भुखमरी के हालात होंगे ।

         जाहिर है पानी की मार से पाकिस्तान बिलबिला रहा है लेकिन याद रखें कि मई महीने में तीन दिन के युद्ध जैसे हालात में चीन  सीधे सीधे पाकिस्तान के साथ खड़ा था और भारत के बड़े हिस्से में विशाल नदियों की धारा का उदगम  चीन है । यदि चीन ने पानी के मामले में पाकिस्तान से दोस्ती निभाई तो क्या भारत पर भी पानी  की मार पड़  सकती है ? क्या अंतर्राष्ट्रीय नदियां अपनी किसी बात को मनवाने के लिए स्थाई और मजबूत माध्यम हो सकती हैं ?

         पिछले दिनों दिल्ली के एक बड़े अंग्रेजी अखबार में मशहूर बुजुर्ग पत्रकार का एक लेख छपा जिसमें बताया गया कि चीन चाह कर भी भारत में ब्रह्मपुत्र की धार को प्रभावित नहीं कर सकता ।  उन्होनें  यह लेख इस वर्ष जनवरी में अर्थशास्त्री नीलांजन घोष और उनके साथी शोधकर्ता सायनांग्शु मोडक द्वारा  इंटरनेशनल जर्नल ऑफ वाटर रिसोर्सेज डेवलपमेंट में प्रकाशित एक शोध पत्र के आधार पर लिखा था, जिसमें उन्होंने हाइड्रोलॉजिकल डेटा का उपयोग करके इस बात को खारिज किया था कि चीन ब्रह्मपुत्र के नल को बंद करने में सक्षम है।

          शोध के मुताबिक वर्षों से एकत्रित आंकड़ों से पता चलता है कि तिब्बत के नुक्सिया में मापी गई यारलुंग त्सांगपो नदी का निर्वहन प्रतिवर्ष 31.2 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) है, जो ग्रेट बेंड से गुजरते हुए और चीन से बाहर निकलते समय बढ़कर अनुमानतः 78.1 बीसीएम हो जाता है। गुवाहाटी के पांडु में मापक स्टेशन पर ब्रह्मपुत्र का वार्षिक निर्वहन 526 बीसीएम है, जो छह गुना मात्रा वृद्धि दर्शाता है।

          बांग्लादेश के बहादुराबाद में, जो भारत की सीमा के पार है, वार्षिक निर्वहन 606 बीसीएम है। इन आंकड़ों से दावा किया गया कि भारत में नदी के प्रवेश के बाद से, ब्रह्मपुत्र नदी अपनी सहायक नदियों से पोषित होकर बड़े पैमाने पर बढ़ी है । लेकिन इस बात को गंभीरता से सोचना होगा कि क्या आंकड़ों की आईने में , जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रहे अनियमित और  अचानक भीषण बारिश की त्रासदी के मद्देनजर इस तरह कि निश्चिंतता उचित होगी ?

           चीन से आने वाली नदियों में अकेले ब्रह्मपुत्र ही नहीं हैं , बल्कि वह सिंधु भी है, जो लद्दाख और जम्मू-कश्मीर के लिए जीवनरेखा है और  जिसके कारण हमने पाकिस्तान की बोलती बंद की हुई हैं । सिंधु नदी तिब्बत की मानसरोवर झील और कैलश पर्वत के पास सेंग खबाब नाम के ग्लेशियर से निकलती है।  यह नदी तिब्बत में कुछ सफर तय करने के बाद लद्दाख में प्रवेश करती है।  इसके बाद यह जम्मू-कश्मीर होते हुए पाकिस्तान में प्रवेश कर जाती है और बाद में अरब सागर में मिल जाती है।                  

             इसके अलावा सतलुज का उद्गम स्थल भी तिब्बत में ही है।  यह नदी तिब्बत में राक्षसताल के पास लांगचेन खबाब हिमनदी  से निकलती है। भारत में इसका प्रवेश हिमाचल प्रदेश में शिपकी-ला दर्रा के पास है जहां से यह  पंजाब में प्रवेश कर कर जाती है।  अंत में यह नदी पाकिस्तान में सिंधु नदी में मिल जाती है।

             भूस्थानिक शोधकर्ता (जियॉलॉजिस्ट )और नासा  के पूर्व स्टेशन मैनेजर डॉक्टर वाय नित्यानंद ने सैटेलाइट से मिले सतलुज जल प्रवाह के डाटा पर रिसर्च कर बताया है कि सतलुज नदी से भारत में आने वाले पानी की मात्रा पिछले पांच सालों में 75 फीसदी से ज्यादा कम हो गई है। सतलुज में भारत आने वाले पानी की मात्रा बीते वर्षों में 8,000 गीगालीटर से घटकर 2,000 गीगालीटर रह गई है। उन्होंने संभावना जताई है कि चीन की ओर से भारत आने वाले पानी को नियंत्रित कर रहा है।

               ब्रह्मपुत्र पर चीन के बेअसर नियंत्रण के दावे के विपरीत यदि इन दिनों अरुणाचल प्रदेश में सियांग नदी पर प्रस्तावित बांध के विरुद्ध आवाज उठा  रहे लोगों का पक्ष जाने तो  राज्य की जीवन रेखा कहलाने  वाली सियांग पर  चीन जब-तब तमाशे करता है – कभी अचानक बाढ़ तो कभी ढेर सारा मलवा  आता रहता हैं । यदि बांध बन गया तो  उसमें जल प्रवाह बढ़ा कर चीन उनके यहाँ तबाही ला देगा। सियांग नदी का उदभव पश्चिमी तिब्बत के कैलाश पर्वत और मानसरोवर झील से दक्षिणपूर्व में स्थित तमलुंग त्सो (झील) से हैं। तिब्बत में अपने कोई 1600 किलोमीटर के रास्ते में इसेयरलुंग त्संगपो  कहते हैं। भारत में दाखिल होने के बाद इस नदी को सियांग या दिहांग नाम से जाना जाता है ।

               कोई  230 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद यह लोहित नदी से जुड़ती है। अरूणाचल के पासीघाट से 35 किलोमीटर नीचे उतर कर इसका जुड़ाव दिबांग से होता है। इसके बाद यह ब्रह्मपुत्र में परिवर्तित हो जाती है।  जब-तब सियांग नदी में रहस्यमयी लहरों से लोग भयभीत रहते हैं । चीन इस नदी के प्रवाह क्षेत्र में जाम कर खनन कर रहा है । किसी से छिपी नहीं है कि चीन अरूणाचल प्रदेश के बड़े हिस्से पर अपना दावा करता है और यहां वह आए रोज कुछ न कुछ हरकतें करता है। अंतर्राष्ट्रीय नदियों के प्रवाह में गड़बड़ी कर वह भारत को परेशान करने की साजिशें करता रहा है।

             वैसे भी जल-प्रवाह की मूल नीति  यही है कि ऊंचाई से आने वाले पानी का नियंत्रण उपर बैठे  देश के हाथ होगा ही। इस आशंका  से इनकार नहीं किया जा सकता कि चीन नदियों पर बड़े बांध बना कर पानी को रोक सकता है, खासकर सूखे मौसम में। इससे भारत के निचले इलाकों, जैसे अरुणाचल प्रदेश और असम, में पानी की कमी हो सकती है, जिससे कृषि, पीने के पानी की उपलब्धता और जलविद्युत परियोजनाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

              जिस तरह भारत ने पाकिस्तान के साथ सिंधु नदी तंत्र की नदियों के प्रवाह के आँकड़े साझा करना बंद कर दिए हैं और यही यदि चीन ने किया तो चीन भारी बारिश या बांध के पूर्ण होने पर अचानक बड़ी मात्रा में पानी छोड़ता है, तो इससे भारत के निचले इलाकों में विनाशकारी बाढ़ आ सकती है। 2000 में तिब्बत में बांध टूटने के कारण पूर्वोत्तर भारत में भारी तबाही हुई थी, जो इसका एक उदाहरण है। चीन और भारत के बीच नदियों के जल स्तर और प्रवाह से संबंधित हाइड्रोलॉजिकल डेटा साझा करने के समझौते हैं। यदि चीन इस डेटा को साझा करने से इनकार करता है, जैसा कि 2017 के डोकलाम गतिरोध के दौरान हुआ था, तो भारत के लिए बाढ़ की भविष्यवाणी करना और उससे निपटना मुश्किल हो जाएगा, जिससे जान-माल का नुकसान बढ़ सकता है।

               यह समझना होगा कि तेज प्रवाह के साथ आई जल धराएं अकेले तबाही ही नहीं लाती, उनके साथ जीवन की आस भी आती हैं । असम के कई जिले ऐसे ही प्रवाह के साथ आई मिट्टी पर बसे  हैं । काजीरंगा जैसे नैसर्गिक उद्यान का अस्तित्व ही ब्रहमपुत्र  और उसमें आई बाढ़ और बाढ़ के साथ बह कर आई मिट्टी से है । चीन की सीमा में बने बड़े बांध नदियों में गाद (sediment) और पोषक तत्वों के प्राकृतिक प्रवाह को रोक सकते हैं। ये गाद निचले इलाकों की कृषि भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए महत्वपूर्ण होती है। गाद की कमी से कृषि उत्पादकता कम हो सकती है और नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान हो सकता है।

                 नदी के प्रवाह में परिवर्तन से जलीय जीवन, जैसे मछली और अन्य प्रजातियों के प्रवास पैटर्न पर असर पड़ सकता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिमालयी क्षेत्र जिसमें तिब्बत से ले कर  असम और अरुणाचल प्रदेश तक का इलाका है , भीषण भूकंप-संभावित ज़ोन है। इस क्षेत्र में बड़े बांधों का निर्माण भूकंप के जोखिम को बढ़ा सकता है, जिससे निचले इलाकों में और भी बड़े पैमाने पर आपदा आ सकती है।

            भारत ने ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों पर कई जलविद्युत परियोजनाओं की योजना बनाई है। चीन द्वारा ऊपरी प्रवाह में बांध बनाने से इन परियोजनाओं के लिए पानी की उपलब्धता प्रभावित हो सकती है, जिससे उनकी दक्षता और निवेश पर असर पड़ेगा।

            बढ़ती आबादी  के पेट भरने के लिए खेती, आवास और पेय  जल के लिए  समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में  पानी पर अधिक से अधिक हक की बात होना लाजिमी हैं । सबसे बड़ी बात कि जलवायु परिवर्तन अपना रंग दिखा रहा है । ज्येष्ठ में सावन की झड़ी और  आषाढ़ में  भीषण लू के रंग  इसी भौगोलिक क्षेत्र में सर्वाधिक हैं ।

              चरम मौसम की मार , कम समय में बहुत अधिक बरसात होना , बरसात की बड़ी बूंदें और तेज गति, ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स (जीएलओएफ)  अर्थात हिमनद  झीलों के अचानक फटने से आई बाढ़, बढ़ती गर्मी के चलते तेजी से पिघलते  ग्लेशियर्स  के कारण गर्मी में बाढ़ ,  – कुछ ऐसे कारक हैं जो बताते हैं कि पानी को सहेजने के पारंपरिक तरीके, जिनमें बड़े बांध या कच्ची नहरें शामिल है, की बार आत्मघाती हो सकती हैं ।

               यह अंतर्राष्ट्रीय  अध्ययन से स्थापित हो चुका है कि हिंदुकुश पर्वतमाला से निकलने वाली जल-हिम धाराओं के बारे में अनुमान लगाना सरल नहीं है और प्राकृतिक  आपदा के लिए  समूचा इलाका बेहद संवेदनशील है । इसके कुप्रभाव को कम करने का एकमात्र तरीका है कि  नदी, झील, हिमनद जैसी  संरचनाओं को कम से कम छेड़ा जाए । अधिक पानी रोकने की लिप्सा या दुश्मनी में पड़ोसी का पानी  रोकने की कोशिश कई बार पलट कर मार कर सकती है । उत्तर पूर्वी भारत में नदियां तेजी से अन्य मार्ग बदल रही हैं और ऐसे में नदी को बांधने की कोई भी बड़ी परियोजना कभी भी असफल हो सकती हैं ।

               आज जरूरत इस बात की है कि जल संधियों पर क्षेत्रीय  सहमति बने और नदियों के राजनयिक और सामरिक इस्तेमाल पर कड़ाई से पाबंदी लगे । इन विवादों का प्रबंधन भारत की विदेश नीति और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण है।