दरकते पहाड़, कटते जंगल
अजय सहाय
भारत के पर्वतीय राज्यों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, मेघालय, मिज़ोरम, त्रिपुरा, नगालैंड, अरावली क्षेत्र (राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली), छत्तीसगढ़ के पठारी क्षेत्र, ओडिशा की पूर्वी घाटी तथा दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट के क्षेत्र आज जिस भूस्खलन, दरकती पहाड़ियों, फ्लैश फ्लड, मिट्टी के कटाव, नदी तल के खिसकने और प्राकृतिक असंतुलन से जूझ रहे हैं, उसका प्रमुख कारण पिछले 3–4 दशकों में बढ़ता वनों का विनाश (Deforestation), अनियंत्रित निर्माण कार्य (Unregulated construction), पर्यावरणीय मंजूरी के बिना विकास परियोजनाओं की अनुमति, सड़कों का अत्यधिक विस्तार, सुरंग निर्माण, होटल और टाउनशिप विकास के नाम पर पहाड़ों की खोदाई और वृक्षों की बेतहाशा कटाई है।
वनस्पति और वृक्ष केवल हरियाली का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि ये पहाड़ियों को स्थिरता (Slope stability), वर्षा जल अवशोषण (Rainwater absorption), भूमिगत जल पुनर्भरण (Groundwater recharge), भूस्खलन नियंत्रण (Landslide prevention), कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषण (CO₂ sink) तथा ऑक्सीजन उत्सर्जन (O₂ release) जैसे अनेक पारिस्थितिक कार्य करते हैं। परंतु जब इनका नाश होता है, तो वर्षा के प्रत्येक बूंद के गिरने पर मिट्टी की पकड़ कमजोर हो जाती है, और परिणामस्वरूप पहाड़ दरकने लगते हैं, जिससे मानव जीवन, वन्य जीवन, परिवहन संरचनाएं और सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में आ जाता है।
NASA, ISRO, IMD और NDMA की रिपोर्टों के अनुसार, उत्तराखंड में पिछले 20 वर्षों में औसतन 280 से अधिक छोटे-बड़े भूस्खलन घटनाएं प्रति वर्ष हुई हैं, जिनमें जोशीमठ (2023), केदारनाथ (2013), उत्तरकाशी (2021), औली, चमोली, टिहरी जैसे क्षेत्रों को गहरा नुकसान हुआ।
जोशीमठ क्षेत्र वैज्ञानिक रूप से सटीक उदाहरण है कि कैसे अनियंत्रित निर्माण (सुरंग, रोड कटिंग, होटल निर्माण) और जल रिसाव के कारण स्थलीय फॉल्ट (geological fault) सक्रिय हो गए और पूरा नगर धंसने लगा। Geological Survey of India (GSI) और ISRO की रिपोर्ट के अनुसार, जोशीमठ का धंसाव औसतन 5.4 से 7.2 सेंटीमीटर प्रति माह तक दर्ज किया गया। इसी प्रकार अरावली रेंज, जो भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला है, और NCR व राजस्थान के लिए पारिस्थितिक ढाल (ecological shield) का कार्य करती है, वहाँ पर खनन, निर्माण और वन कटाई के कारण न केवल वर्षा जल संग्रहण क्षमता में गिरावट आई है, बल्कि दिल्ली-गुरुग्राम और अलवर-भिवाड़ी में धूल भरे तूफानों की आवृत्ति भी बढ़ी है।
दिल्ली विश्वविद्यालय और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) की रिपोर्ट में बताया गया है कि अरावली के 60% क्षेत्र का या तो क्षरण हो चुका है या वह खनन के कारण समाप्त हो चुका है। उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश में वर्ष 1990–2020 के बीच 32% वन क्षेत्र का क्षरण रिकॉर्ड किया गया, जिसमें पेड़ों की कटाई के साथ-साथ जैव विविधता भी घटी। IMD के अनुसार, इन क्षेत्रों में मानसूनी वर्षा की तीव्रता तो बढ़ी है (cloudburst की घटनाएं), परंतु वनस्पति की कमी के कारण मिट्टी के अवशोषण की क्षमता घटी है, जिससे फ़्लैश फ्लड और भू-स्खलन एक आम घटना बन चुकी है।
इसी प्रकार झारखंड और ओडिशा के पठारी क्षेत्रों में कोयला खनन और औद्योगिक क्षेत्रों के विस्तार के कारण हज़ारों एकड़ में वृक्षों की कटाई हुई है। Forest Survey of India की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड में पिछले 10 वर्षों में 2.14% नेट फॉरेस्ट लॉस रिकॉर्ड किया गया है, वहीं छत्तीसगढ़ में यह लगभग 1.8% है।
दूसरी ओर, सिक्किम, नागालैंड, मिज़ोरम जैसे पूर्वोत्तर राज्य जहाँ अधिक वर्षा होती है, वहां भी shifting cultivation, सड़क निर्माण और नगरीकरण के कारण पारंपरिक वर्षा जल संचयन प्रणाली जैसे झरने, घाटियाँ, रेंगने वाली वनस्पतियाँ नष्ट हो गईं। वैज्ञानिक दृष्टि से जब वनस्पति या वृक्ष नहीं होते, तब वर्षा जल का runoff (बहाव) 60–70% तक बढ़ जाता है जबकि वृक्षों के रहते यह केवल 10–15% होता है।
इससे अधिक मिट्टी का कटाव होता है और पर्वतीय मृदा बहकर नदी प्रणाली में जाकर तलछट (silt) बनाती है, जिससे नदी उथली होती है और बाढ़ की संभावना बढ़ जाती है। जलवायु परिवर्तन भी इन प्रभावों को और तीव्र बना रहा है – IPCC की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में औसत तापमान वृद्धि 0.3 से 0.6°C प्रति दशक हो रही है, जिससे वाष्पीकरण दर बढ़ रही है, और वर्षा अल्प समय में अधिक मात्रा में हो रही है (intense short-duration rainfall), जो दरकती पहाड़ियों का प्रमुख कारण बन रही है।
आज जब निर्माण कार्य बिना भूगर्भीय सर्वेक्षण के हो रहा है, तब पहाड़ी ढलानों की प्राकृतिक संरचना कमजोर होती जा रही है, जिससे vertical fractures (ऊर्ध्वाधर दरारें) और horizontal slippage (क्षैतिज खिसकाव) जैसी घटनाएं आम हो गई हैं। ISRO की रिपोर्ट बताती है कि अकेले उत्तराखंड में 2022 में 1200 से अधिक active landslide zones रिकॉर्ड हुए, जो 2015 में मात्र 280 थे – यह इस बात का संकेत है कि प्रकृति किस कदर क्रुद्ध हो चुकी है। वैज्ञानिक रूप से पहाड़ी पारिस्थितिकी प्रणाली में biodiversity और vegetation का क्षरण एक domino effect उत्पन्न करता है – वनस्पति कटती है, तो वर्षा जल भूमि में नहीं जाता; भूमिगत जल नहीं भरता; सतही जल अधिक होता है; पहाड़ दरकते हैं; नदियाँ सिक्त होती हैं; बाढ़ आती है; और अंततः मानव जीवन संकट में पड़ता है।
इसके अतिरिक्त, भारत में ऐसे विकास कार्य जो पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन (EIA) के बिना आरंभ हो जाते हैं, या जिनमें स्थानीय समुदाय को शामिल नहीं किया जाता, वे और भी अधिक विनाशकारी साबित होते हैं।
उदाहरणस्वरूप, 2019 में पर्यावरण मंत्रालय ने चारधाम परियोजना में 889 किलोमीटर सड़क चौड़ीकरण को मंजूरी दी, जबकि SC-appointed committee ने कहा था कि इससे भूस्खलन और पारिस्थितिक असंतुलन होगा, और वैसा ही हुआ। इसके उलट कुछ सकारात्मक उदाहरण भी हैं जैसे सिक्किम की जैविक खेती नीति, नागालैंड की सामुदायिक वन पंचायत, और अरुणाचल प्रदेश में शहीद वन परियोजना।
वैज्ञानिक समाधान की दृष्टि से, पर्वतीय क्षेत्रों में slope stabilization, deep-root vegetation plantation, rainwater trench, check dams, vertical slope guards, और EIA आधारित निर्माण को अनिवार्य किया जाना चाहिए। मनरेगा के तहत slope area plantation और जलग्रहण क्षेत्र में trenching को बढ़ावा देना चाहिए। पर्वतीय राज्यों में पारंपरिक जल संरचनाओं जैसे नउला, धारा, झरना पुनरुद्धार, और बायो-इंजीनियरिंग से slope control करना आज की आवश्यकता है। पेड़ जैसे बाँज, बुरांश, साल, देवदार, चीड़, और रेशमिया घास आदि की बहुवर्षीय रोपाई वर्षा जल अवशोषण, carbon sink और slope hold में सहायक है।
साथ ही, राज्य और केंद्र सरकार को मिलकर भू-गर्भीय जोखिम मूल्यांकन आधारित योजना बनानी चाहिए। नागरिक समाज, युवा, छात्र, स्थानीय पंचायत यदि इन प्रयासों में शामिल होते हैं, तो एक नया हरित पर्वतीय मॉडल (Green Hill Model) सामने आ सकता है। यदि आज हमने इस विनाश को नहीं रोका, तो न केवल पहाड़ दरकेंगे, बल्कि मानव सभ्यता, संस्कृति, और अस्तित्व भी इन दरकती चट्टानों के नीचे दब जाएगा।
अतः यह समय चेत जाने का है कि विकास के नाम पर विनाश न हो, बल्कि विज्ञान, संवेदनशीलता, और सततता के साथ पर्वतीय राज्यों को सशक्त और सुरक्षित बनाया जाए – यही 2047 के जल और पारिस्थितिक आत्मनिर्भर भारत की नींव बनेगी।